Sunday, January 22, 2012

शहर-ए-दिल्ली, पुराना नहीं होता

विशेष लेख                                                                                    लेखक:-सतपाल *
सात बार उजड़ने और बसने की कहानी
दिल्ली जो एक शहर है, हर शख्स की पसंद
चर्चे इस शहर के हमेशा रहे बुलन्द।

किसी भी दौर में यह वीराना नहीं होता
शहर-ए-दिल्ली, कभी पुराना नही होता।

आज चर्चा है दिल्ली के सौ साल पूरे होने की मगर तथ्य पर गौर करें तो पता चलेगा कि यह सत्य नहीं हैं। दिल्ली का इतिहास कई हजार साल पुराना है। कहते है कि पांडवों की दिल्ली का नाम इन्द्रप्रस्थ था। इस बीच का कई सैकडों वर्ष का विवरण गुमनाम है मगर, सात बार उजड़ने और बसने की कहानी आज भी लोगों को याद है। इन सात शहरों के नाम और खंडहर तो अपने काल का हाल चाल सुना रहे हैं।  दिल्ली हमेशा से देश की राजधानी रही ।  हर साम्राज्य ने दिल्ली को देश का दिल समझकर इसे राजधानी बनाना पसंद किया।  मुगल साम्राज्य भी अपनी राजधानी आगरा और फतेहपुर सीकरी से लेकर दिल्ली आया और ख्वाबों के हसीन शहर शाहजहांनाबाद की तामीर कराई। यमुना नदी के किनारे बसा शहर समूचे संसार में मशहूर हुआ और कई विदेशी राजा इससे ईष्र्या करने लगे।  अंग्रेजों को भी यहां के ईमानदार और मेहनती लोग और यहां का भूगोल और हरा-भरा इलाका पसंद आया और उन्होंने 1911 में अपने दरबार में अपने इण्डिया की राजधानी कलकत्ता से दिल्ली लाने की घोषणा कर दी।  उन्होंने यह घोषणा तब के तमाम राजा, महाराजाओं, नवाबों और बादशाहों की उपस्थिति में की ताकि हरेक आम और खास को इसकी जानकारी मिल जाए और राजधानी के इस बदलाव का संदेश देश के कोने-कोने में पहुंच जाए।  इस तरह यह सौ साल फिर से दिल्ली को राजधानी बनाने का ऐलान करने से संबंधित है।  मुगलों के कमजोर हो जाने और ईस्ट इण्डिया कम्पनी की राजधानी के रूप में कलकत्ता का महत्व बढ़ जाने के बाद अंग्रेजों ने यह जरूरी समझा कि देश की पुरातन, सनातन राजधानी यानि ऐतिहासिक शहर दिल्ली को राजधानी बनाया जाए ताकि वह एक ऐसे शहर से समूचे भारत पर लम्बे से लम्बे समय तक राज कर सकें, जहां से मुगल सल्तनत का हुक्म देश के कोने-कोने तक सम्मान और गर्व के साथ सुना जाता था। 
कुछ लोग इसे नई दिल्ली के सौ साल होने का दावा कर रहे है।  गौर किया जाए तो, पता चलेगा कि यह भी सत्य नहीं है।  न तो 1911 में नई दिल्ली की नींव पड़ी और न ही इस साल नई दिल्ली का उद्घाटन किया गया।  नई दिल्ली का उद्घाटन तो 1931 में हुआ जिसके बाद दिल्ली एक नगर से महानगर बनना शुरू हो गया।
यह सच है कि आज ज्यादातर दिल्ली का भाग नया है मगर जो शहर कभी दीवारों के बीच सटा हुआ था और मिली-जुली तहजीब का मरकज माना जाता था वह भी तो नया ही महसूस होता है, क्योंकि वहां का रहन-सहन पूरी तरह बदला तो नहीं मगर आधुनिकता के साथ घी और शक्कर की तरह मिल कर और भी समृद्ध हो गया है।
           अंग्रेजों ने जब राजधानी दिल्ली बनाने की घोषणा की तो उन्होंने सिविल लाइन्स में राजधानी के लिए जरूरी इमारतें बनानी शुरू की और कश्मीरी गेट को मुख्य बाजार और रिज की दहलीज के चारों ओर सत्ता के गलियारे बनाने शुरू किए।  लेकिन जब उन्हें यमुना जो कभी बारहमासी नदी हुआ करती थी, उसका रौद्र रूप दिखाई दिया तो वह भयभीत हो गए और इस इलाके को निचला क्षेत्र मानकर एक उंचे स्थान पर राजधानी बनाने की तलाश में निकल पड़े।  मगर, दिल्ली की सबसे पुरानी चर्च कश्मीरी गेट और चांदनी चौक में अब भी विद्यमान हैं और किसी लिहाज से पुरानी नहीं लगती।  इसी तरह पुराना सचिवालय तो अंग्रेजों की पहली संसद थी और इसी के सभागार में दिल्ली यूनिवर्सिटी की पहली कन्वोकेशन हुई थी। दिल्ली यूनिवर्सिटी का वी0सी0 ऑफिस कभी वायसरॉय निवास था।  कहां बदला है ये सब कुछ।  पहले से कहीं ज्यादा रौनक और ताजगी है वहां।

अंग्रेजों ने जब नई दिल्ली का निर्माण शुरू किया तो न जाने कितनी इमारतें बनाई गई।  लुटियन के नक्शे के हिसाब से खुला-खुला, हरा-भरा नया शहर यानी नई दिल्ली सामने आई।  इसकी हर इमारत ऐतिहासिक है मगर इस्तेमाल की दृष्टि से नई भी है और सुविधा सम्पन्न भी।  क्या नई दिल्ली की शान पुरानी हुई है?  नहीं, कभी नहीं हो सकती।  एक समय आया जब अंग्रेजों का बनाया कनॉट प्लेस व्यापार की दृष्टि से महत्व खोने लगा मगर जब मेट्रो का जादू चला तो यहां की रौनक लौट आई और व्यापारी भी फिर प्रसन्न होने लगे।  यह साबित करता है कि दिल्ली कभी न तो बूढ़ी होगी और न ही पुरानी।
           अगर हम तब और अब की ट्रांसपोर्ट की चर्चा करें तो आप महसूस करेंगे कि अंग्रेजों के जमाने के ट्रांसपोर्ट के छोड़े गए निशान पर आज हमारी पब्लिक ट्रांसपोर्ट दौड़ रही है।  अंग्रेजों ने 1903 में चांदनी चौक से ट्राम का सफर शुरू किया था। यह ट्राम 1963 तक चली और इसका किराया एक टका यानी आधा आना और एक आना हुआ करता था।  आज उसी स्थान के नीचे चांदनी चौक, चावड़ी बाजार और सब्जी मण्डी, बर्फखाने में भूमिगत और एलिवेटिड मेट्रो दौड़ रही है।  कभी अंग्रेजों ने रायसीना हिल्स तक निर्माण के लिए पत्थर पहुंचाने के मकसद से रेल लाइन बिछाई थी वहां जमीन के नीचे आज मेट्रो की दो लाइनें सेंट्रल सेक्रेट्रियट स्टेशन से निकल रही इतना ही नहीं अंग्रेजों ने 1911 में अपने दरबार तक जाने के लिए एक रेल लाइन बिछाई थी जो आजाद पुर तक दौड़ती थी।  उसी लाइन के एक स्टेशन तीस हजारी की जगह पर ही आज दिल्ली मेट्रो का तीस हजारी स्टेशन है।

                आज भी लोग कुतुब मीनार को दिल्ली की पहचान मानते हैं। यह बात और है कि कई किताबों में बहाई टेम्पल यानी लोटस टेम्पल को दिल्ली की नई पहचान मानकर दिखाया जाता है मगर कुतुब मीनार अपनी बुलंदी की वजह से हर काल में नई पहचान ही बना रहेगा।  कभी यहां तक जाने के लिए लोग पुरानी दिल्ली से तांगों पर जाया करते थे। हरियाली के बीचों बीच संकरी सड़क से होकर तांगे में बैठे मुसाफिरों को एअर कंडीशन सवारी का आनन्द मिलता था और आज वहां तक जाने के लिए एअर कंडीशन मेट्रो है।  कह सकते है कि वही दिल्ली, वही कुतुब मीनार, वही एअर कंडीशन सफर तो कौन कहता है कि दिल्ली पुरानी हुई है।  दिल्ली का दिल एक ऐसे नौजवान की तरह धड़कता है जिसे हर दम आगे बढ़ने की ललक होती है।  इसी तरह दिल्ली हर पल, संवरती, निखरती, बदलती, सुधरती दिखाई देती है तो कौन कहेगा कि यह शहर पुराना होता है।
इस शहर के हर दम नया रहने के तो ये कुछ संकेत है।  अगर हजारों साल की इस दिल्ली के इतिहास में नएपन का मजा लेना हो तो दिल से दिल्ली वाला बनना होगा। 

दिल्ली नहीं है शहर, एक मिजाज का नाम है।
यह  खास, इस कदर है कि इसको सलाम है।

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सूचना:

1.*लेखक दिल्ली की मुख्यमंत्री के सूचना अधिकारी हैं।
2.तस्वीरें इंटरनेट से जुटाई गयी हैं....अगर किसी को एतराज़ हो तो इन्हें हटा दिया जायेगा .

1 comment:

गुड्डोदादी said...

देहली रायसीना में पहले मिटटी के तेल की लालटेन जलाते थे सड़कों की रौशनी के लिए धीरे बाद में डी सी करंट से बिजली आयी
सुजान सिंह,शोभा सिंह(लेक्ख खुशवंत सिंह पिता दादा ) ,चेला राम.छांगा राम और एक अन्य ठेकेदार ने मिल कर वाईस राय का दफ्तर ,संसद भवन बनवाये ,फव्वारे विजय चौक और दोनों नहरें श्री चमनलाल ठेकेदार ने बनवाये |सर कनाट के इंजीनियर श्री राम चंद थे लुई वितीयन इन सभी का नाम ही नहीं लिखा