Sunday, January 23, 2011

महंगाई का हथौड़ा: क्या है आंकड़ों की हकीकत


महंगाई का हथौड़ा   
अब वो बातें पुरानी हो चुकीं हैं जब कहा जाता था कि  "दब्ब के वाह ते रज के खा " [मतलब: खूब कमा और खूब खा] लेकिन   आज के चलन में तो जैसे जैसे ये बात सोचनी भी गुनाह है | आज-कल तो यही बात बात जचती है "खाधा पीता लाहे दा, बाकी अह्म्दशाहे दा " [मतलब: जो खा-पी लिया सो खा-पी लिया| बचत कुछ भी नहीं है ] |  महंगाई इतनी बढ़ चुकी है कि  जैसे कोई पतंगबाज़ी का कोई मुकाबला चल रहा हो कि किसकी पतंग ज्यादा ऊँची है मतलब कि कौनसी चीज़ ज्यादा महंगी है | चलन यह चल पड़ा है कि रोज-मर्राह की ज़रूरत की वस्तुएं दिन-प्रति-दिन महंगी होती जा रहीं हैं और ऐश्प्रस्ती [लग्ज़री] की वस्तुएं मुकाबले के दौर की वजह से सस्ती होती जा रहीं हैं | एक बार आँख घुमा कर देखो अपने इर्द-गिर्द खुद ही मालूम पड़ जाएगा | 
फिर मुझे श्याम जगोता जी की और से कही गयी यह बात कहनी बड़ी ही स्वाभाविक लगती है कि आम इंसान कहीं न कहीं ये पूछना चाह रहा है की कि क्या आप मुझे भी अफजल और कसाब की तरह बचाएंगे ? तस्वीर में महंगाई के गुब्बार से उड़ रहे शख्स की जुबान चीख चीख कर यही बोल रही है | फिर अगर जवाब मिलता है तो बड़ी देर के बाद कि जब तक कई आम इंसान महंगाई के गुब्बार के साथ चढ़ाई कर चुके होते हैं  और फिर जवाब में मिलता है बहुत ही लंबा नारा कि जिसको पूरे होते होते आधी दुनिया की सांस सूख जाने वाली है | इन बातों के सरल अर्थ मैं बाद में बताऊंगा पहले महंगाई को आर्थिक पक्ष से भी देख लें | 
महंगाई दर :-
कार्टून साभार :  wheelosphere 
 25 दिसंबर के आंकड़ों के मुताबिक खाने-पीने की वस्तुओं की मुद्र्रा सफिती दर 18.32 % को छुह गयी थी | जब की यह उस से पिछले हफ्ते 14.44 % थी | 13 नवंबर को यह 10.15 % थी | आखिर ये 18.32 %, 14.44 %, 10.15 % क्या है ? अगर इसको आम भाषा में बताना हो तो इसको ऐसे बोला जा सकता है यह एक विअकती की खरीद शक्ति में इज़ाफा या कमी है | अब ये इज़ाफा है या कमी ये चक्कर उल्टा है | कहने का मतलब अगर अक्षर जमा के निशान में हैं तो खरीद शक्ति में कमी है और अगर अक्षर घटाओ के निशान में है तो खरीद शक्ति में इज़ाफा है | और सरल अर्थों में इसको ऐसे समझा सकते हैं, 18.32 % या +18.32 % [बात एक ही है] है तब खरीद शक्ति में कमी है और अगर येही आंकड़े -18.32 % हों तो खरीद शक्ति में इज़ाफा है | 
फोटो साभार: विचार मीमांसा 
अब सहज ही ये कहा जा सकता है की 13 नवंबर को महंगाई पर जो लगाम 10.15 % तक थी वो 25 दिसंबर को 18.32 % की हद्द को भी पार कर गयी | अब हम इसको ये बोल सकते हैं की 18.32 % से भाव की मनुष्य की खरीद शक्ति में 18.32 % की गिरावट आई है | आखिर ये खरीद शक्ति कैसे कम हुई ? इन आंकड़ों का आधार कौन से तथ्य हैं जो ये सब निर्धारित करते हैं ?
बात बड़ी स्पष्ट है | पहिले ये जान लें की ये निर्धारती कैसे होते हैं | दरअसल महंगाई को मापने के लिए हमारे देश कुछ मापदंड बनाए गए हैं जिनके ज़रिये  महंगाई की बढती और घटती चाल को आंका जा सकता है | इसको मापने के लिए बहुत सरे पक्ष देखने पड़ते हैं लेकिन जो पक्ष सबसे ज्यादा महत्व रखता है वो है आधार साल [Base Year] | मतलब कि किसी साल की कीमतों को आधार मान कर उस से अगले सालों में आये फरक [इज़ाफा या कमी] की लेकर आधार साल की कीमतों से तकसीम [divide] कर के 100 से जरब [multiply] किया जाता है और इसके नतीजे से जो आंकड़े मिलते हैं वो प्रतिशत में बोले जाते हैं | जैसे की 18.32 % | ये आधार साल कुछ समय के बाद बदल दिया जाता है | इस बार जो मुद्र्रा सफिती की दर है उसका आधार साल 2004-05 का वित्तीय वर्ष है |
महंगाई बढ़ने के कारण :- 
 जैसे विज्ञान में किसी क्रिया के होने या न होने का कारण होता है बिलकुल वैसे ही अर्थशास्त्र में भी महंगाई के बढ़ने या न बढ़ने का  कारण होता है | अर्थशास्त्र के मुताबिक वस्तुओं की कीमत बाजार में उनकी मांग और पैदावार पर आधारित होती है जिसको अंग्रेजी में Demand and Supply भी कहते हैं | अगर तो वस्तुओं की मांग एक जैसी रहे तो वस्तुएं एक संतुलित केन्द्र बिंदु [equilibrium point] पर आधारित रहती हैं | अगर मांग बढ़ जाये और पैदावार बराबर रहे या पैदावार कम हो जाये तो कीमतें बढ़ जाती हैं | अगर मांग कम हो जाये और पैदावार बढ़ जाये तो कीमतें कम हो जाती हैं | अर्थशास्त्र मुताबिक यही एक मुख्य  कारण है कीमतों के बढ़ने और कम होने का |
राजनीतिक हल और बयानबाजी :-
     कड़ी के मुताबिक अगला प्रशन यह बनता है कि आज जो कीमतें बढ़ी हुई हैं इनके पीछे क्या कारण हो सकता है ? क्या इस बार मांग अधिक बढ़ गयी और पैदावार न के बराबर है ? या फिर इस बार पैदावार कम हुई है और मांग बराबर है ? 
महंगाई के खिलाफ महिलायों का प्रदर्शन 
     मुझे इन दोनों में से कोई भी कारण  वाजिब नहीं लगता | ज़रा गौर करना क्या कीमतें जान-बूझ कर नहीं बढ़ाई जा सकतीं ? मगर कैसे ? जैसे कि अर्थशास्त्र के मुताबिक अगर पैदावार कम हो जाये तो कीमतें बढ़ जाती हैं बिलकुल वैसे ही अगर वस्तुओं की बाजार में आमद कम कर दी जाये या फिर बंद कर दी जाये तो कीमतें अपने आप ही बढ़ जाएँगी | फिर वही माल बिकेगा जो बाजार में मौजूदा रूप में मौजूद होगा और वो भी ऊँची दरों पर | लो जी बढ़ गयीं कीमतें |
 अब बात ये आती है कि इस सारे मामले  को अंजाम कैसे दिया जाता है ? इसमें कोई हैरानी वाली बात नहीं कि इस सारे साज़िशी घटनाक्रम को बड़े-बड़े व्यापारियों  और जमाखोरों की ओर से अंजाम दिया जाता है और काफी तकड़ा मुनाफा कमाया जाता है | इस जनविरोधी काम को अंजाम देने में मदद करते हैं राजनीतिक बयान | मगर वो कैसे ? थोडा सा सिक्के का दूसरा पहलू देखने का प्रयास करना, जब किसी  राजनीतिक नेता का ब्यान आता है कि इस बार बरसात की वजह से फसल खराब होने के असार हैं तो क्या ये व्यापारियों और जमाखोरों को मौजूदा माल गोदामों में दबा कर रखने के लिए दी गयी एक सीधे रूप से शह नहीं है ? और इनसे होने वाले  मुनाफों में अगर किसी नेता की मिलिभुगत हो तो इसमें कोई दो राए नहीं है | जब पवार साहब का यह बयान आता है कि महाराष्ट में बरसात की वजह से फसल खराब हो गयी है और इस बार पैदावार कम रहेगी |  तो क्या ये जमाखोरों को एक शह नहीं है ? 
महंगाई के खिलाफ कामरेड  
बात यह है कि पैदावार वाला बयान देना कितना ज़रूरी है ? क्या एक प्रदेश में हुई कम पैदावार पूरे देश को अनाज के संकट में डाल सकती है ? अगर डाल भी सकती है तो क्या पडोसी देशों से वस्तुएँ आयात नहीं की जा सकतीं ? फिर ये पैदावार कम होने वाली बात को जनतक करने की क्या ज़रूरत है ? क्या ये सीधे लफ़्ज़ों में अवश्यक वस्तुयों को जमा करके रखने और उन की कीमतों को आसमान पर पहुंचाने के लिए दी गयी शह नहीं है तो और क्या है ? 
     फिर कुछ दिनों बाद जब भारत के जाने-माने अर्थशास्त्री मोंटेक सिंह अहलुवालिया जी का बयान आता है कि कीमतें बढ़ने से आर्थिक खुशहाली बढ़ी है | देश की GDP बढ़ रही है और हमारा मनोरथ है की इस वित्तीय वर्ष के अंत तक 9 % का आंकड़ा पार कर जाये | मैं पूछता हूँ अहलुवालिया साहब से आप खुशहाली बढ़ने की बजाये ये बयान क्यों नहीं देते की लोगों की खरीद शक्ति में कमी आई है और ये दिन-प्रति-दिन जरी रहेगी ? आखिर जब कीमतें बढेंगी तो GDP तो स्वाभाविक तौर बढ़ेगी ही बढ़ेगी और फिर आप ये भी इशारा कर रहे हो की आप इसको 9 % तक लेकर जाना चाहते हो | बात तो तब बनती है जब कीमतें भी पकड़ में रहें और GDP भी बढती रहे | अहलुवालिया साहब ये GDP बढ़ने वाली बात को जनतक करने की क्या ज़रूरत है ? ये तो फिर यही हुआ कि जैसे औपचारिकता भर के लिए ही कोई कोई बयान दे दिया गया होता है | अब पाठक ही बताएं की सीधे रूप से कीमतें बढ़ाने को शह नहीं तो और क्या है ?
     मेरे मुताबिक कीमतें बढ़ने में जितना बड़ा हिस्सा सरकारी और राजनीतिक बयानबाजी का है उतना और किसी का भी नहीं है | अगर ये हिस्सा % से भी अधिक  है तो मेरे मुताबिक इसमें हैरानी वाली कोई बात नहीं होगी | अब तो देश के प्रधानमंत्री डाक्टर मनमोहन सिंह जी का भी ब्यान आ गया है और कहतें हैं कि महंगाई मार्च महीने के अंत तक पकड़ में आ जायेगी | ये वही बातें हैं जिनके सरल अर्थ मैंने बाद में खोलने की बात मैंने ऊपर लिखी थी |
पेट्रोल की कीमतों में बढोतरी:-
     जब से सरकार ने पेट्रोल की कीमतों को निर्धारित करने का ज़िम्मा कंपनियों को सौंप दिया है तब से ये हर महीने कुछ न कुछ किसी न किसी तरीके से बढ़ रहा है | अभी हाल ही में इसकी कीमतों में उछाल देखने को मिला है | अगर देखा जाये तो कच्चे तेल की कीमत पिछले स्साल से सिर्फ 1 डालर प्रति बैरल बढ़ी है | लेकिन पेट्रोल की आज की कीमत और पिछले साल की कीमत में कितना फर्क है ये हर कोई आसानी से समझ सकता है | इसके पीछे अब क्या कारन है ये भी एक गहरायी की बात तो है ही लेकिन चिंता इस बात की है की अब कीमतों पर बढौतरी के रूप में क्या असर पड़ेगा ? महंगाई हर हाल में बढ़ेगी  ही बढ़ेगी | 
लेखक सतिन्द्र शाह सिंह 
अब तो हाल ये हो गया है की फेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर युवकों की और से ऐसे सन्देश पढ़ने को मिलते हैं "This is the first time in the history that needs, comfort and luxuries are available on same price. Onions: Rs. 65/- KG, Petrol: Rs. 65/- liter, Beer: Rs. 65/- bottle."
अभी तो शुक्र है की डीजल की कीमतें निर्धारित करने का जिम्मा सरकार के हाथों में ही है और इसकी कीमत में अभी इज़ाफा नहीं किया गया है | लेकिन दर ये भी है की कहीं आने वाले वित्तीय बजट में इसकी कीमतें न बाधा दी जाएँ | अगर हुआ तो आम आदमी का जीना भी दुश्वार हुआ समझो |फिर जहाँ ये बात सिर्फ दिल्लों में है तब ये जुबान पर भी आ जाएगी | "क्या आप भी मुझे अफज़ल और कसाब की तरह बचाएंगे ?"  -- सतिन्द्र शाह सिंह
साहनेवाल (लुधियाना) के सतिन्द्र शाह सिंह आजकल नोयडा में रह कर उच्च शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं. जन हितों की चिंता करना और उन पर कुछ न कुछ लिखना उनके अवशयक कार्यों में से एक है जिसके लिए वह समय निकाल ही लेते हैं. आपको उनकी यह रचना कैसी लगी आ अवश्य बताएं....--रेक्टर कथूरिया  

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