Wednesday, October 06, 2010

जिसने पैदा किया तुझको तेरी औलादों को. आदमी के लिए औरत रही चौसर क्यों है??

योगराज प्रभाकर 
ओपन बुक्स ऑनलाइन डोट कॉम के मंच से नौजवान शायर जनाब राणा प्रताप सिंह के द्वारा चौथा तरही मुशायरा दिनांक 1 अक्टूबर से 4 अक्टूबर तक आयोजित किया गया ! सभी शायरों को जनाब सुदर्शन फाकिर साहिब की लिखी एक ग़ज़ल के निम्नलिखित मिसरे के काफिया रदीफ़ पर ग़ज़ल लिखने का अनुरोध किया गया :

"फिर ज़मीं पर कहीं मस्जिद कहीं मन्दिर क्यूँ है"

इस मुशायरे में नए और पुराने शायरों ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया और सभी ने दिए गए मिसरे की ज़मीन पर आपने खूबसूरत आशार के साथ महफ़िल को रौनक बख्शी !

मुशायरे की शुरुयात जनाब
नवीन चतुर्वेदी साहिब ने अपनी एक बाकमाल ग़ज़ल से की ! नवीन जी की शायरी अपनी नवीनता और प्रयोगों के लिए जानी जाती है ! हालात-ए-हाज़रा पर भी उनकी पैनी नज़र रहती है रहती है ! आपके चंद शेअर पेश-ए-खिदमत हैं : 


जो 'मसीहा' कहे खुद को 'सुलह' का 'अमरीका'|
तो 'किराए' पे सबको भेजता 'लश्कर' क्यूँ है|
"चाँद पर आशियाँ" के स्वप्न दृष्टा के दिल में|
बालकों की व्यथा सा, एलियन का डर क्यूँ है|
बाँध-सड़कें-नहर-पुल सब पुराने हैं पुख़्ता|
काम लेकिन नया जो भी हुआ, जर्जर क्यूँ है|
देश के कर्णधारो तुम बता दो बस इतना|
क़ायदे से बड़ा इस मुल्क में अफ़सर क्यूँ है|
आपसी तालमेलों से जो बँटने हैं ठेके|
व्यर्थ में फिर छपा अख़बार में टेंडर क्यूँ है|
ज़्यादहातर उसी का माल उठाती है दुनिया|
सिर्फ़ इतराज ये ही, "चीन की मोहर" क्यूँ है|
कोर्ट का फ़ैसला सब ने कुबूला है तो फिर|
तू वकीलों के दर पे काटता चक्कर क्यूँ है|
आज कॉलेज से ज़्यादा तो हैं ट्यूशन चलते|
शारदे! आप की धरती पे ये मंज़र क्यूँ है !



जनाब अरुण कुमार पाण्डेय जी मुशायरे के अगले शुरका थे ! आपने भी अच्छी ग़ज़ल कही जिसको खूँ सराहा गया, मगर इन दो शेअरों ने सभी का दिल जीता :  


ऐसा बिगड़ा हुआ इस दौर का मंज़र क्यूँ है,
हर ज़ुबां मीठी मगर हाथ में खँजर क्यूँ है.
माँ कहा करती थी रहता है खुदा हर शै में,
फिर ज़मीं पर कहीं मस्जिद कहीं मंदर क्यूँ है.

नौजवान शायर जनाब पल्लव पंचोली "मासूम" ने भी अपनी ताज़ा ग़ज़ल के साथ मुशायरे में शिरकत की ! उनके दो शेअर बहुत पसंद किए गए :

आँख में चुभने लगा आज ये मंज़र क्यों है ?
आग मे आज यहाँ झुलसे सभी घर क्यों है ?
जिसने दौलत को चुना था तोड़ कर दिल मेरा
हाल उसका मेरे हालात से बदतर क्यों है ?


जनाब धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी की ग़ज़ल का तेवर भी काबिल-ए-दाद रहा, उसकी एक बानगी पेश है :

तू नहीं साँप न ही साँप का बच्चा है तो
तेरी हर बात में फिर ज़हर सा असर क्य़ूँ है।
एक चट्टान के टुकड़े हँ ये सारे ‘सज्जन’
तब एक कंकड़ इक पत्थर इक शंकर क्यूँ है।


जनाब मोईन शम्सी साहिब भी अपनी एक निहायत पुर-असर और पुरनूर ग़ज़ल के साथ तशरीफ़ लाए, और सब का दिल जीत ले गए ! आज के मौजूदा हालात पर उनके दो शेअर:   


वो तेरे दिल में भी रहता है मेरे दिल में भी,
फिर ज़मीं पर कहीं मस्जिद कहीं मन्दर क्यूं है !
तू तो हिन्दू है मैं मुस्लिम हूं ज़रा ये तो बता,
रहता अक्सर तेरे कांधे पे मेरा सर क्यूं है !
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मोहतरमा मुमताज़ नाज़ा जी जोकि उर्दू ग़ज़ल में एक ख़ास मुकाम रखती हैं, उनकी ग़ज़ल के सब से ख़ूबसूरत शेअर:: 

हर किसी मोड़ पे उट्ठा कोई महशर क्यूँ है
सहमा सहमा सा हर एक मोड़ पे रहबर क्यूँ है
ये यजीदों की हुकूमत है के शैतान का शर
शाहराहों पे लहूखेज़ ये मंज़र क्यूँ है
पाँव फैलाऊँ मैं कैसे के न सर खुल जाए

इतनी छोटी सी इलाही मेरी चादर क्यूँ है
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डॉ ब्रिजेश त्रिपाठी जी जिनका का सम्बन्ध हिंदी साहित्य से है, वे भी इस मुशायरे से प्रभावित होकर अपनी एक ग़ज़ल लेकर हाज़िर हुए ! आपके इन शेअरों को भरपूर दाद हासिल हुई :   

इन्सान बने रहने में आती है क्यूँ शरम...
फितरत में यूँ छिपता हुआ बन्दर क्यूँ है ?
रहने की तेरे क्या तुझे कुछ कमी पड़ गयी ...
ये मंदर और मस्जिद का बवंडर क्यूँ है ?
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कुमारी अनुपमा जी :

जिंदगी तनहा तनहा इस कदर क्यूँ है
सब हासिल तो भटकता मन दर बदर क्यूँ है!
झूम रही हैं लताएँ जाने किस ख़ुशी में,
मेरे आँगन में ठहरा ये उदास पहर क्यूँ है!
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आचार्य संजीव 'सलिल' जी जोकि हिंदी साहित्य और हिंदी भाषा के विकास से जुडे हुए हैं उन्होंने भी अपनी ग़ज़लों (बकौल उनके मुक्तिका) के साथ साथ कई दफा मंच की शोभा बढ़ाने के लिए पधारे ! आपके कुक्क चुनिन्दा शेअर :
आदमी में छिपा, हर वक़्त ये बंदर क्यों है?
कभी हिटलर है, कभी मस्त कलंदर क्यों है??
जिसने औरत को 'सलिल' जिस्म कहा औ' माना.
उसमें दुनिया को दिखा देव-पुरंदर क्यों है??
जिसने पैदा किया तुझको तेरी औलादों को.
आदमी के लिए औरत रही चौसर क्यों है??
फ़ौज में क्यों नहीं नेताओं के बेटे जाते?
पूछा जनता ने तो नेता जी निरुत्तर क्यों है??

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जनाब राणा प्रताप सिंह जिन्होंने इस मुशायरे को आयोजित किया था आपने बाकमाल आशार के साथ महफ़िल में हाज़िर हुए ! आधुनिक और देसी भारतीय बिम्ब उनकी शायरी का एक अभिन्न हिस्सा हैं, आपके कुछ बेहतरीन शेअर : :

सारी दुनिया में छिड़ी जंग ये आखिर क्यूँ है
अम्न के देश में छब्बीस नवम्बर क्यूँ है
दीनो ईमान जो कायम रख आगे बढ़ता
जाने उसको ही लगी राह में ठोकर क्यूँ है
सादगी सबको सिखाता जो पहन कर खादी
ले के चलता वो इतने लाव और लश्कर क्यूँ है

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जनाब गणेश जी बागी जी जोकि ओपन बुक्स ऑनलाइन डोट कॉम के सर्वे सर्वा हैं, एक उभतरे हुए शायर हैं ! इस मुशायरे में  पेश की गई उनकी ग़ज़ल के २ बेहतरीन शेअर :

उभरती जेहन मे बात ये अक्सर क्यूँ  है,
सेठ के चौखट कोई भूखा नौकर क्यूँ  है,
हम सभी गर एक ही मालिक के है बंदे,
फिर जमीं पर कही मस्जिद कही मंदिर क्यूँ है,

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जनाब हिलाल अहमद हिलाल


बदला बदला सा मेरे हिंद का मंज़र क्यूँ है ,
आज हिन्दू में मुसलमान मै अंतर क्यूँ है ?
"हम पुजारी भी नहीं और नमाज़ी भी नहीं "
फिर ज़मी पर कही मस्जिद कही मंदर क्यूँ है?
मेरे अहबाब तो महलों के मकीं बन बैठे,
मेरे घर पे अभी तक बांस का छप्पर क्यूँ है?

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जनाब स्पंदन पाण्डेय साहिब ने हमारे अनुरोध पर अपनी ग़ज़ल इरसाल की ! ग़ज़ल में आपकी पकड़ कमाल की है, और ख्यालों में ग़ज़ब की पुख्तगी जिनका सुबूत ये शेअर हैं: 


आज हर क़तरा नुमाइश में समंदर क्यूँ है
सबकी ख्वाहिश यहाँ औक़ात से बढ़ कर क्यूँ है
मेरे जिस राम ने इस दुनिया को तामीर किया
वजहे तखरीब यहाँ उसका ही मंदिर क्यूँ है
चीख ज़ख्मों की है और आहो फुगाँ अश्कों की
आज इक शोर हर इक शख्स के अन्दर क्यूँ है
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जनाब पुरषोत्तम आजर साहिब जिन्हें कि फन-ए-ग़ज़ल और इल्म-ए-उरूज़ में महारत हासिल है, वे भी हमारी दरख्वास्त कबूल फार्म कर मुशायरे कि शोभा बढ़ने पहुंचे ! आप ने फ़रमाया:

बुत में भगवान अगर है? लगे पत्थर क्यूँ है
नाम धर्मो के जुदा ,फ़िर खुदा का घर क्यूँ है
तू खफ़ा किस लिए , मेरी जाँ बता दे इतना
जान हाजिर है , तेरे हाथ में खंजर क्यूँ है
मोल बिकती नहीं तहजीब ये दुनिया वालो
डूब मरने के लिए ही पानी दूभर क्यूँ है !
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जनाब आशीष यादव जी ने फ़रमाया:

पांच साल बीत रहे गांव भ्रमण को उनके|
जोड़ कर हाथ दिखे आज वो आखिर क्यूँ हैं|| (सकता)
है प्रजातंत्र या यूँ कहें की राज जनता का|
फिर यहाँ नेता ही काबिज़ औ' कादिर क्यूँ हैं||
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सय्यद बसीरुल हसन "वफ़ा नकवी" जिनका सम्बन्ध अलीगढ उत्तरप्रदेश से है, मुशायरे में शरीक होने वाले आख़री शायर थे जिन्होंने अपनी एक बहुत ही प्रभावशाली रचना के साथ मुशायरे को चार चाँद लगा दिए :     

मेरे होंठों पे भला प्यास का सागर क्यूँ है !
और दरियाओं का हर सिम्त से लश्कर क्यों है !
हम क़बीलों में तो बांटा नहीं करते रब को
फिर ज़मीं पर कहीं मस्जिद कहीं मंदर क्यूँ है !
सूखे पत्ते ही बताएं तो कोई राज़ खुले,
शाख पर बैठा हुआ ज़ख़्मी कबूतर क्यूँ है !

इन सब के इलावा इस खाकसार (योगराज प्रभाकर) और जनाब सुबोध कुमार "शरद' साहिब ने भी अपनी ग़ज़लों के साथ मुशायरे में शिरकत की !

कुल मिला कर मुशायरा बेहद कामयाब रहा, जहाँ ग़ज़लों में रिवायती रंग देखे को मिला वहीँ आधुनिक बिम्ब और शब्दों के प्रयोग ने महफ़िल को एक अलग ही रंग प्रदान किया ! मुझे ये देखकर बहुत ही सुकून मिला कि आज का ग़ज़ल-गो महबूबा कि जुल्फों से निकाल कर सड़क पर उतर आया है ! वो आपने आस पास होती घटनायों से वाकिफ भी है और चिंतित भी है ! ग़ज़ल विधा को जन जन तक पहुँचाने का जो बीड़ा इस तरही मुशायरे के माध्यम से उठाया गया है वो काबिल-ए-तारीफ है, जनाब राणा प्रताप सिंह और ओपन बुक्स ऑनलाइन डोट कॉम की प्रबंधन टीम बधाई की पात्र है   ! 

नोट: इस मुशायरे में पेश की गई सारी ग़ज़लें और उन पर आई टिप्पणियों को पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें
                             प्रस्तुति --योगराज प्रभाकर 

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