Saturday, November 21, 2009

हजारों कुर्सियां ऐसी कि हर कुर्सी पे दम निकले,

 जो इस पे बैठ कर खुद से उठे हों ऐसे कम निकले
चलते चलते  याद आ गयी तो उठ कर डायरी  के पन्ने उलटे. एक पन्ने पर नज़र अटकी तो देखा  तारीख थी 16 मार्च और साल था 1996. दिल्ली  में  42 वां शंकर  शाद  मुशायरा था जिसमें पाकिस्तान से डाक्टर अहमद फ़राज़ भी आये हुए थे. जनाब कैफ़ी आज़मी, निदा  फाजली  और  कृशन बिहारी नूर जैसे कई और शायर भी इस रात को बहुत रंगीन बनाने वाले थे.  उस मुशायरे में बहुत कुछ यादगारी पढ़ा भी गया और सुना भी गया. पर जिस जिस जिस की चर्चा हुयी उसका ज़िक्र करने से पहले ग़ालिब साहिब का ज़िक्र बहुत ज़रूरी है. जनाब मिर्ज़ा ग़ालिब का एक अश्यार है:

हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले, 
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले.

इस की पैरोडी पेश करते हुए जनाब कैफ़ी आज़मी ने इस मुशायरे में अपना कलाम पढ़ा :

हजारों  कुर्सियां  ऐसी  कि हर कुर्सी पे दम निकले, 
जो इस पे बैठ कर खुद से उठे हों ऐसे कम निकले.

इस मौके पर निदा फाजली भी मौजूद थे. जब आधी रात के बाद उनकी बारी आई तो उन्होंने अपना निशाना साधा  लाल कृष्ण  अडवानी की दूसरी रथ यात्रा पर और कहा :

तुम्हे हिन्दू की चाहत है न मुस्लिम से अदावत है ;
तुम्हारा धर्म सदिओं से तिजारत था तिजारत है.

मुझे इस की याद आई कल रात उस वक्त आई जब टीवी पर चल रही लोकमत और आईबीएन-7 पर हुए  हमले  की खबर पुराना होने का नाम ही नहीं ले रही थी. इस खबर के मुद्दे में मओवादिओं की और से ब्लास्ट करके उड़ाई गयी रेल की खबर भी कहीं गुम हो गयी थी और दिल्ली  में किसानों  की महारैली  के कारन हुए हंगामों  और जाम की खबरें भी गायब थीं. सुबह होने पर यह भी पता चला कि शिव सेना ने बाकायदा इस हमले की ज़िम्मेदारी ले ली है और शिव सेना के सुप्रीमो बाल ठाकरे ने इसे सामना में जायज़ ठहराते हुए लिखा है  कि मीडिया कोई भगवान् तो नहीं है....

इस टिप्पणी को पढ़ कर लगा कि सचमुच भगवान  तो अपने आप को वही लोग समझते हैं जिन्हें कुर्सी मिल जाती है और ठाकरे साहब तो किंग मेकर  रहे हैं ... वे मीडिया तो दूर भगवान् को भी पूछ सकते हैं हां भाई कौन हो...? कहाँ से आये हो...? क्या करने आये हो...?  अगर उत्तर  भारत के देवता हो तो फिर यहाँ महाराष्ट्र में क्या करने आये हो....चलो अगर अब आ ही गए हो तो सिर्फ मराठा लोगों को ही अपना भक्त बनाना...समझे या फिर हम समझाएं....!!!!  अगर भगवान् मान गए तो ठीक नहीं तो फिर उन पर भी हो सकता है  शिव सेना या फिर मनसे का  एक हमला.

बहुत कुछ है कहने को...कई और यादें भी ताज़ा हो गयी हैं पर उनकी चर्चा फिर कभी सही.... फिलहाल इसी मुशायरे में से कैफ़ी आज़मी साहब की ही एक और ग़ज़ल की चर्चा:

बस्ती में अपनी हिन्दू मुसलमां जो बस गए,
इन्सां की शक्ल देखने को हम तरस गए .
बस अब गरीबी जाने ही वाली है मुल्क से,
ये सुनते सुनते ऊम्र से 70 बरस गए..!

देश की जनता इस मूल मुद्दे को कब समझेगी और उन लीडरों को कब अलविदा कहेगी जो जनता को लड़ाने के चक्र में ही रहते है...
आजमगढ़ से आये सागर आज़मी ने एक बात इसी मुशायरे में कही थी...वो आपकी नज़र कर रहा हूँ इस उम्मीद के साथ कि शायद देश कि जनता अपने दोस्तों और दुश्मनों  को अब भी जल्द से जल्द पहचान ले.....सागर साहब ने अपना तजुर्बा भी कहा और सलाह भी दी.....:

जब उसने कोई ज़ख़्म हमारा नहीं देखा, 
हमने भी उसे मुड़के दोबारा नहीं देखा.

7 comments:

नीरज गोस्वामी said...

लाजवाब अशआरों से सजी बेमिसाल पोस्ट...बधाई
नीरज

गगन शर्मा, कुछ अलग सा said...

बहुत सुंदर।
इन चिकने घड़ों को शर्म कहां आनी है।

Anonymous said...

जब उसने कोई ज़ख़्म हमारा नहीं देखा,
हमने भी उसे मुड़के दोबारा नहीं देखा.

स्पष्ट सरोकारों से लबरेज़ एक बेहतर पोस्ट...

अजय कुमार said...

बड़े ही सशक्त विचार,साधुवाद

Randhir Singh Suman said...

nice

हिमांशु डबराल Himanshu Dabral (journalist) said...

bahut vadiya...shi likha hai apne...

Sampoorn Anand said...

तुम्हे हिन्दू की चाहत है न मुस्लिम से अदावत है ;
तुम्हारा धर्म सदिओं से तिजारत था तिजारत है.

Great.....sab kuch kah diya do lines me...