9th August 2021 at 8:42 PM
सरकार की इस नीति को जबर्दस्त टक्कर देँगे-बैंक यूनियन लीडर
मोदी सरकार अपनी पूर्व नियोजित स्क्रिप्ट के मुताबिक सब कुछ अपनी मनमर्ज़ी के मुताबिक करती चली जा रही है। वाम, विपक्ष या दूसरी ट्रेड यूनियनें केंद्र सरकार के किसी भी कदम को रोक पाने में सफल नहीं हो सकीं। केवल तीन कृषि कानूनों को लेकर शुरू हुए किसान आंदोलन ने ही केंद्र सत्ता को अवरोध का कुछ अहसास कराया है अन्य क्षेत्रों में तो सत्ता की मनमानी जारी पूरी तरह जारी है। इस हकीकत के बावजूद बैंकों से सबंधित ट्रेड यूनियनों का कहना है हम बैंकों का निजीकरण नहीं होने देंगें और इस अभियान को ज़बरदस्त टक्कर देंगें। क्या सचमुच में ऐसा हो पाएगा? क्या मोदी सरकार की मनमानी के तेज़ रफ्तार रथ का घोडा ट्रेड यूनियन का यह मोर्चा कभी पकड़ पाएगा? आइए देखते हैं बैंकों से जुड़े ट्रेड यूनियन नेताओं के दावों और बयानों को।
सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया कर्मचारी संघ (एन.जेड) और सेंट्रल बैंक ऑफिसर्स यूनियन (चंडीगढ़ जोन) की कार्यकारी समिति की एक संयुक्त बैठक आयोजित की गई जिसमें बैंकों के निजीकरण पर एक बार फिर से ज़ोरदार चर्चा की गई।
इस सिलसिले में हुई बैठक को संबोधित करते हुए यूनियनों के नेताओं ने याद दिलाया कि सन 1969 से पहले सैकड़ों निजी बैंक विफल हो चुके थे और आम आदमी की बचत को बर्बाद किया जा रहा था। बैंक कर्मचारी 1946 से एआईबीईए के मार्गदर्शन में बैंकों के राष्ट्रीयकरण की मांग कर रहे थे। अंत में, 1969 में 14 प्रमुख निजी बैंकों और 1980 में 6 और बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया। बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद, देश ने चौतरफा प्रगति की और विशेष रूप से बैंकों ने ग्रामीण और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में अपनी शाखाएँ खोलीं, जिससे आबादी के बड़े भाग को बहुत लाभ हुआ। परिणाम भी सुखद रहा। हरित क्रांति, श्वेत क्रांति, नीली क्रांति और औद्योगिक क्रांति ने विकास के नए रेकार्ड कायम किये। इस खुशहाली का रंग आम गरीब और माध्यम वर्ग के लोगों के जीवन में भी नज़र आया।
गौरतलब है कि सन 1969 में गैर-सूचीबद्ध वाणिज्यिक बैंकों की 9000 शाखाएँ थीं जो राष्ट्रीकरण के बाद अब बढ़कर 160,000 हो गई हैं। इसके अलावा, 220,000 एटीएम, ग्रामीण क्षेत्रों में 541,000 बैंकिंग संपर्क कर्ता और शहरी क्षेत्रों में 635,000 बैंकिंग संपर्क कर्ता लोगों को उनके बैंकिंग लेनदेन में सहायता कर रहे हैं। सन 1969 में ही कृषि को कुछ हज़ार करोड़ का क़र्ज़ ही दिया गया था, जो अब बढ़कर 12 लाख करोड़ हो गया है।
सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक वर्तमान सरकार द्वारा चलाई जा रही योजनाओं में भारी रूप से शामिल रहे हैं। मुद्रा योजना के तहत 28 करोड़ लाभार्थियों को वितरित किए गए 15 लाख करोड़ रुपये में से अधिकांश ऋण सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों द्वारा वितरित किए गए थे। पिछले पांच वर्षों के दौरान, प्रधान मंत्री जन धन योजना के तहत 41 करोड़ खाते खोले गए, जिनमें से 97% सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों और इसके प्रायोजित क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों द्वारा खोले गए। यह भी एक नया रेकार्ड है।
इसी तरह, कोरोना महामारी के दौरान, बैंक कर्मचारी कोरोना योद्धाओं के रूप में सेवा करते रहे, जिसकी वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने भी आगे बढ़ कर सराहना की। इन सबके बावजूद मोदी सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के निजीकरण के लिए कटिबद्ध है। इस मकसद के लिए निरंतर प्रयासशील भी है।
ट्रेड यूनियन नेताओं ने आगे कहा कि ए.आई.बी.ई.ए और ए.आई. बी.ओ.ए के बैनर तले बैंक कर्मचारी किसी भी तरह के संघर्ष के लिए तैयार हैं। बैंक कर्मचारी 1991 से सरकार की नई आर्थिक नीतियों के तहत सुधारों का विरोध कर रहे हैं क्योंकि वे किसी भी तरह से बैंकों या देश के लोगों के पक्ष में नहीं हैं।
महिला विंग की चेयरपरसन बलजीत कौर और ऑफिसर्स यूनियन के वरिष्ठ उपाध्यक्ष गुरमेल सिंह भी मौजूद थे। बैठक में पंजाब, हरियाणा, हिमाचल, जम्मू-कश्मीर और चंडीगढ़ यूटी के नेताओं और साथियों ने भाग लिया। बैठक में मौजूद वरिष्ठ कॉमरेड एमएस भाटिया ने भी सभा को संबोधित किया और युवा साथियों को आगे आकर आंदोलन में शामिल होने को कहा।
लेकिन आंदोलन क्या होगा? निजीकरण के इस सरकारी कदम को रोकने का कोई ठोस तरीका क्या होगा? यह सवाल भी जवाब मांगते हैं। वास्तव में मोदी सरकार के आने से काफी पहले ही 1990 के दशक में केन्द्रीय सत्ता का विशेष लेकिन छुपा हुआ प्रचार अभियान इस मकसद के लिए चल रहा था कि सरकारी बैंकों के कर्मचारी कामचोरी जैसी डयूटी करते हैं। अगर किसीबैंक में किसी मुलाज़िम ने कुछ ऊंचा बोल दिया तो इसे भी निजीकरण के हक में इस्तेमाल किया जाने लगा। क्या ट्रेड यूनियन नेताओं ने कार्पोरेट के समर्थक हो चुकी सरकारों के खिलाफ उसी समय कोई ज़ोरदार कदम उठाया। इस तरह कोई खतरनाक साज़िशों को समझा? नहीं--ऐसा कुछ भी नहीं हो सका। ट्रेड यूनियन लीडर अपने ही बंद कमरों में, अपने ही लोगों के दरम्यान, अपने ही रटे रटाए भाषण देते रहे। शहरों और गाँवों की आम जनता से सीधा सम्पर्क शुरू करने में ट्रेड यूनियन लहर कभी गंभीर ही नहीं हुई। बैंक अधिकारीयों के अपने बच्चे निजी बैंकों में खाते खुलवाने और यहाँ तक कि नौकरी करने को भी पहल देने लगे।
अब भी केवल यही रास्ता बचा है जो स्थिति को बदल सकता है। क्या बैंकों से सबंधित ट्रेड यूनियन लीडर गांवों और शहरों के आम लोगों की तरफ रुख करेंगे? इस काम को करना है तो अपनी यूनियनों, अपने सम्मेलनों, अपने हाल कमरों और अपने मंचों से बाहर निकल कर बहुत ही खुले मन से लोगों में जाना ही होगा। सरकार का मुकाबिला समुचित और एकजुट जनता को साथ लेकर ही किया जा सकता है। जागरूक जनता की शक्ति बहुत बड़ों बड़ों का रुख मोड़ देती है। लेकिन इसे एकजुट तो करना ही होगा। कभी इन ट्रेड यूनियनों ने ऐसा गंभीर प्रयास किया? ये लोग यही सोचते रहे-यह कांग्रेस की जनता, यह सीपीआई की जनता, यह सीपीएम की जनता......और ऐसा सोच कर असली एकता कभी बन ही नहीं पाएगी और सरकार सफल होती रहेगी। अब गेंद ट्रेड यूनियनों के पाले में भी आ सकती है लेकिन कुछ बोल्ड तो होना पड़ेगा। सरकार के मुकाबिले में अब भी बहुत बड़ी शक्ति बना जा सकता है। क्या वास्तव में ट्रेड यूनियन लहर इस बेहद ईमानदार अभियान के लिए तैयार भी है?
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