Friday, March 20, 2015

इमरजेंसी का वह दौर जिससे मुक्ति मिली 21 मार्च को

आपातकाल :स्वतंत्र भारत की वह कालरात्रि
तारीख: 21 Jun 2014 14:54:35
$img_title25 जून, 1975 को रात में जब 'हम भारत के लोग' सोये, तो एक स्वतन्त्र देश के अधिकार-सम्पन्न नागरिक थे; परन्तु 26 जून, 1975 को जब प्रात: जगे, तो पाया कि हम एक स्वतन्त्र देश के 'अधिकार-विपन्न बन्दी नागरिक' हैं। 26 जून का सवेरे उगा सूरज काला लगा। ऐसा विपर्यय 25/26 की उस आधी रात को मात्र एक कागज पर तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के हस्ताक्षर होते ही उसी क्षण से हो गया था। यह कागज प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के विधिमन्त्री सिद्घार्थ शंकर राय का बनाया हुआ था। वे उन प्रसिद्घ देशभक्त देशबन्धु चित्तरंजन दास के नाती थे, जो नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के राजनीतिक गुरु और विख्यात क्रान्तिकारी अरविन्द घोष को 'अलीपुर बम केस' से ससम्मान बरी कराने वाले नि:शुल्क बैरिस्टर थे। यह कागज संविधान स्थगित कर आपातकाल घोषित करने वाला आदेश था। नियमत: मन्त्रिमण्डल में सर्वसम्मत प्रस्ताव को ही राष्ट्रपति स्वीकार करते हैं; परन्तु यहां तो इस अनिवार्य संवैधानिक प्रावधान का पालन किये बिना ही मात्र प्रधानमंत्री की इच्छापूर्त्ति कर दी गयी थी, मन्त्रिमण्डल में तो उसे बाद में पारित कराने की औपचारिकता पूरी की गयी थी।
पाञ्चजन्य से साभार
यहां पर यह उल्लेख करना आवश्यक है कि आखिर फखरुद्दीन अली अहमद ने इस पूर्णत: असंवैधानिक प्रस्ताव को स्वीकृत कर राष्ट्रपति पद की गरिमा और प्रतिष्ठा को 'शून्य' करने का घोर पाप क्यों किया? ऐसी क्या बाध्यता थी उनकी? इसके लिए इन राष्ट्रपति महोदय के पूर्व इतिहास के कुछ पन्ने पलटने होंगे। फखरुद्दीन अली अहमद वह महानुभाव थे, जिन्होंने जिन्ना के निजी सचिव रहे मुईनुल्हक चौधरी के साथ मिलकर विभाजन-पूर्व असम में लगभग 20 लाख बंगाली मुसलमानों को बसाकर उस प्रदेश के इस्लामीकरण की आधारशिला रखी थी। देश के स्वतन्त्र होते ही अनेक मुस्लिम लीगी नेताओं की तरह ये भी रातोंरात खद्दर की शेरवानी पहनकर कांग्रेसी बन गये थे। इन्दिरा गांधी ने अपनी सरकार में इन्हें मंत्री बनाया था और 1974 में अरब देश मोरक्को की राजधानी रबात में हो रहे इस्लामी देशों के सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधि बनाकर भेजा था, जहां इन्हें घुसने तक नहीं दिया गया था और अपना-सा मुंह लेकर लौटना पड़ा था। मुस्लिमों को प्रसन्न रखने के अपने सेक्युलर मन्तव्य के अन्तर्गत पुरस्कार स्वरूप इन्हें राष्ट्रपति बना दिया गया था। ऐसा रीढ़हीन राष्ट्रपति इन्दिरा गांधी की इच्छा के विपरीत कैसे जा सकता था!
26 जून की प्रात: लोग स्तब्ध, हतप्रभ थे, जब उन्हें पता चला कि विपक्षी दलों के सभी मूर्धन्य नेता यथा मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेयी आदि ही नहीं, जयप्रकाश नारायण और वे चन्द्रशेखर, जो इन्दिरा कांग्रेस की कार्यकारिणी के निर्वाचित सदस्य थे, भी जेल भेज दिये गये हैं; प्रेस पर सेंसरशिप लगा दी गयी है। अखबारों की रात में ही बिजली काट दी गयी थी कि कोई समाचारपत्र न छप सके। जो कुछ छप चुके थे और सवेरे-सवेरे लोगों के हाथों में पहुंच गये थे, उनमें जिस भी अखबार का सम्पादकीय स्तम्भ रिक्त था या बड़ा-सा प्रश्नचिन्ह लगाकर छोड़ दिया गया था या ऐसा ही कोई आपातकाल विरोधी प्रयत्न दिखा, उन सब को जब्त कर लिया गया, उनके सम्पादकों को उनके इस दु:साहस के लिए जेल में ठूंस दिया गया। विपक्षी दलों और कांग्रेस के कथित या कल्पित विरोधियों की धड़ाधड़ गिरफ्तारियां शुरू हो गयीं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर भी तत्काल प्रतिबन्ध लगा दिया गया। उसके तृतीय सरसंघचालक श्री मधुकर दत्तात्रेय देवरस उपाख्य बालासाहब देवरस को भी गिरफ्तार कर यरवदा जेल भेज दिया गया। अनेक जिलों में गुटबाज कांग्रेसियों ने अपने विरोधी गुट के लोगों तक से इसी बहाने बदला ले लिया था। आपातकाल के इस भयाक्रान्त काल में कांग्रेसियों ने बहती गंगा में खूब हाथ धोये। इंदिरा गांधी की शंकालुता की पराकाष्ठा यहां तक थी कि उ़ प्र. के हेमवतीनन्दन बहुगुणा जैसे विचक्षणबुद्घि कांग्रेसी मुख्यमंत्री के आवास तक पर आई़ बी. का एक डी़ एस़ पी़ रैंक का अधिकारी जासूसी में तैनात रहा था।
इंदिरा गांधी के छोटे पुत्र संजय गांधी उस समय सरकारी आतंक के प्रतीक बन गये थे। उनके 15 सूत्री कार्यक्रम में वृक्षारोपण के साथ ही सबसे अधिक बल परिवार-नियोजन पर था। कृत्रिम उपायों से अधिक जोर पुरुषों और स्त्रियों की नसबन्दी पर था। जिलाधिकारियों में अधिकाधिक नसबन्दी कराने की ऐसी होड़ लगी थी कि पुलिस और पी़ए़सी़ से रात में गांव घिरवाकर नसबन्दी के योग्य-अयोग्य जो मिला, उसकी बलात् नसबन्दी करा दी गयी। अविवाहित युवकों, विधुर गृहस्थों और बूढ़ों तक की नसबन्दी करके आंकड़े बढ़ाये गये। लाखों के वारे-न्यारे हो गये। अधीनस्थ कर्मचारियों की विवशता देखते बनती थी। अपनी या अपनी पत्नी की नसबन्दी कराने के बाद भी नसबन्दी के कम से कम दो 'केस' दो, तभी अर्जित अवकाश, अवकाश नगदीकरण, चरित्र-पंजी में अच्छी प्रविष्टि, स्कूटर/ मोटरसाइकिल/ गृह-निर्माण, भविष्य-निधि से अग्रिम स्वीकृत किये जाते थे। सर्वत्र त्राहि-त्राहि मच गयी थी; पर प्रतिरोध करने का साहस नहीं। ऐसी घोर-परिस्थिति में भी उत्तर प्रदेश के एक जिले शाहजहांपुर के जिला अधिकारी ने नसबन्दी के लिए किसी का उत्पीड़न न करने का साहस दिखाया था। मुख्य सचिव द्वारा नसबन्दी की उनसे जिले के प्रदेश में न्यूनतम संख्या पर जब कड़े शब्दों में स्पष्टीकरण मांगा गया, तो उनका निर्भीक उत्तर था, सर! शासनादेश में 'स्वेच्छा से' नसबन्दी कराने का स्पष्ट उल्लेख है, ऐसे में किसी प्रकार की जोर-जबर्दस्ती करके किसी की नसबन्दी कैसे करायी जा सकती है? मुख्य सचिव को ऐसा उत्तर सुनने की कल्पना तक न थी; पर उनकी हिम्मत उन जिला अधिकारी का स्थानान्तरण करने तक की नहीं पड़ी। वैसे कुएं में भांग तो ऐसी पड़ी थी कि अत्याचारों की सीमा नहीं थी। सर्वाधिक प्रताड़ना उन परिवारों की महिलाओं एवं बच्चों को झेलनी पड़ी थी, जिनके घर के कमाऊ सदस्य जेलों में ठूंस दिये गये थे। एक दारुण उदाहरण- लखनऊ के चौपटियां मोहल्ले के निवासी सोशलिस्ट नेता रामसागर मिश्र को मीसा में बन्द कर दिया गया था। उनके अल्पवयस्क पुत्र ने पिता की मुक्ति के लिए हनुमान् जी का निर्जल-व्रत रखकर अपने घर से अलीगंज हनुमान-मन्दिर तक दण्डवत्-यात्रा बड़े मंगल (ज्येष्ठ मास का प्रथम मंगल) की ठानी और लोग उस पर जल डालते साथ चल रहे थे; पर मन्दिर पहुंचकर दर्शन करने के पहले ही उसके प्राण-पखेरू उड़ गये। उधर रामसागर मिश्र भी जेल से जीवित न लौट पाये। ऐसी अनेक दारुण कथाएं हैं।

देश के गण्यमान्य मनीषियों, जिनका किसी पार्टी से कोई लेना-देना न था, को भी नहीं बख्शा गया। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ़ रघुवंश, जिनके दोनों हाथ लंुज-पुंज थे, को रेल की पटरी उखाड़ने के आरोप में जेल में डाल दिया गया। मराठी की प्रसिद्घ लेखिका दुर्गा भागवत जी ने एक सम्मेलन में आपातकाल की आलोचना में कुछ बोल दिया, तो उन्हें भी जेल में ठूंस दिया गया। काशी के मनीषी-प्रवर पं़ बलदेव उपाध्याय को भी पुलिस ने पकड़कर हवालात में बन्द कर दिया, तो वहां के लोग भड़क उठे, जिलाधिकारी के बंगले पर जा धमके।
इस गिरफ्तारी से अनभिज्ञ जिलाधिकारी चौंक पड़े। तुरन्त पण्डित जी को छोड़ने का आदेश दिया। बेचारे पण्डित जी को रात भर हवालात में रहना पड़ा था। महीयसी महादेवी वर्मा जी ने भी आपातकाल के विरोध में बोल दिया था, तो इलाहाबाद का जिला प्रशासन उन्हें भी बन्दी बनाने की सोचने लगा। इन्दिरा जी को कहीं से इसकी भनक लग गयी। सम्भवत: प्रसिद्घ पत्रकार पी़ डी़ टण्डन से। उन्होंने तुरन्त निषेध किया अन्यथा महादेवी जी भी दुर्गा भागवत की गति को प्राप्त हो जातीं। नेहरू जी को महादेवी जी अपना भाई मानती थीं, यह तथ्य इन्दिरा जी जानती थीं।
इस दुर्धर्ष काल में दो राजमाताओं- विजयाराजे सिन्धिया और गायत्री देवी को भी जेल में डाल दिया गया। दोनों को प्रताड़नाएं भी दी गयी थीं। स्वास्थ्य बहुत अधिक गिर जाने पर राजमाता सिन्धिया को पैरोल पर छोड़ा गया था। उनके निजी सचिव आंग्रे जी उन्हें घुमाते हुए एक स्थान पर ले गये। राजमाता जी के पूछने पर बोले, हम नेपाल-सीमा पर अमुक स्थान पर हैं, आप कहें, तो सीमा पार कर नेपाल चल जायें, फिर इन्दिरा क्या कर लेंगी? इतना सुनते ही राजमाता बिगड़ पड़ीं, आपके दिमाग में यह बात आयी कैसे? मैंने न्यायालय को वचन दिया है, अभी वापस चलो। बेचारे आंग्रे जी सन्न। राजमाता जी ने वापस लौटकर तुरन्त न्यायालय में समर्पण किया और पैरोल की अवधि पूरी होने से पहले ही पुन: जेल चली गयीं। राजमाता जी का यह प्रसंग स्वयं पूर्व सरसंघचालक पूज्य रज्जू भैया जी ने लखनऊ के अपने अन्तिम प्रवास में लगभग 45 मिनट तक लेखक से वार्त्ता में बताया था; वचन की प्रामाणिकता और जीवन के अन्तिम क्षण तक सक्रिय रहने के ये दो मन्त्र दिये थे। आज हममें से कितने इसका प्रयत्न करते हैं?
पत्रकार-धर्म निर्वाह सम्बन्धी एक प्रसंग। तब हिन्दी के दो सम्पादक शीर्ष पर थे- 1़ 'नवभारत टाइम्स' (दैनिक) के अक्षयकुमार जैन और 2़ 'हिन्दुस्तान' (दैनिक) के रतन लाल जोशी। जहां अक्षय कुमार जैन लगभग 200 पत्रकारों के साथ 'इन्दिरा गान्धी की जय' बोलते, उन्हें बधाई देने गये, वहीं रतनलाल जोशी ने अपने सम्पादकीय में लिखा, कितना सुखद आश्चर्य है कि उच्चतम न्यायालय के तीन माननीय न्यायमूर्त्तियों ने पृथक्-पृथक् निर्णय दिये; परन्तु तीनों निर्णय एक समान हैं। अक्षय कुमार जैन की कीर्त्ति इसके बाद शून्य पर जा पहुंची थी; परन्तु रतनलाल जोशी ने नौकरी व जेल जाने का खतरा मोल लेकर भी उक्त वाक्य में 'सब कुछ' कह देने का साहस जुटाया था। पत्रकारिता धर्म का ऐसा निर्वाह उन्हें अमर कर गया।
'हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता'। ऐसे सरकारी आतंक के समय भी मुस्लिम हेकड़ी का एक प्रसंग। उ़ प्र. की राजधानी के माल एवेन्यू में ईसाई कब्रिस्तान के पश्चिम चौड़ी सड़क के बाद लगभग 40 फीट चौड़ा और 300 फीट लम्बा एक सरकारी भूखण्ड। उसके पश्चिम मुस्लिम कब्रिस्तान। 1976 में एक दिन उस 'पॉश कालोनी' के लोगों के देखते-देखते उस भूखण्ड पर दिन-दहाड़े कब्जा कर लिया गया। कब्रिस्तान की पूर्वी दीवार तोड़कर हाथ की ठेलियों पर ईंट लाद-लादकर अनेक मुल्लाओं ने उनसे भूखण्ड की पूर्वी सीमा पर अस्थायी दीवार खड़ी कर ली। रातोंरात कब्रिस्तान की एक कब्र पर मकबरा बनाकर उसे 'दादा मियां की मजार' घोषित कर दिया। इस दु:साहस के नेपथ्य में था- राज्यपाल मुसलमान, उनका एक सलाहकार मुसलमान, स्वायत्त शासन (अब नगर विकास) सचिव मुसलमान तथा नगर महापालिका का प्रशासक मुसलमान। भला ऐसा स्वर्ण अवसर फिर कब मिलता! चलते-चलते एक और प्रसंग। आपातकाल में हो रहे अत्याचारों के विरुद्घ संघ का सत्याग्रह करने का निर्णय। 1,76,000 से अधिक स्वयंसेवकों ने जेल जाकर विश्व रिकार्ड बनाया। अन्ततोगत्वा संघ से प्रतिबंध हटा।
बालासाहब देवरस यरवदा जेल से जब मुक्त हुए, तो प्रसिद्घ सोशलिस्ट नेता एस़ एम. जोशी हजारों लोगों को साथ लेकर उनका स्वागत करने जेल के द्वार पर थे। वह भव्य दृश्य देखने योग्य था। लेकिन दैव दुर्विपाक से जब जनता पार्टी सरकार को अपने परामर्शी मधु लिमये और राजनारायण के दबाव में चरणसिंह ('चेयर सिंह'-राजनारायण का दिया पूर्व व्यंग्य नाम)ने गिरा दिया,तो आपातकाल में सहस्त्रों कार्यकर्त्ताओं के बलिदान और लाखों के त्याग को निष्फल करने का कलंक लेकर भी चौधरी चरण सिंह एक बार भी संसद में प्रधानमंत्री की आसन्दी पर न बैठ पाये। आपातकाल का वह काला अध्याय, स्वतन्त्र भारत के कांग्रेस से मुक्ति के स्वर्ण-अवसर का अवसान बनते-बनते रह गया।
(लेखक आनन्द मिश्र 'अभय' 'राष्ट्रधर्म' (मासिक) के सम्पादक हैं) 


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