Sunday, April 13, 2014

बाबा साहेब डॉ० भीमराव अम्बेडकर की 123 वीं वर्षगाँठ पर :

Sun, Apr 13, 2014 at 6:13 PM
दलित वर्ग की राजनैतिक चेतना और परिपक्वता से  मुख्यधारा के समाज को सीखने की जरुरत है !
14 अप्रैल इस तथ्य की गहराई को समझने के लिये सबसे प्रासंगिक दिन 
Courtesy photo
यह शीर्षक थोड़ा सा अतिशयोक्तिपूर्ण लग सकता है लेकिन यदि पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर इस पक्ष पर थोड़ा सा गंभीर चिन्तन करें तो निश्चितरूप से वास्तविक जनतंत्र की परिकल्पना दलित वर्ग के नेतृत्व में एक व्यापक राष्ट्रीय आन्दोलन के माध्यम से सम्भावित हो सकती है।  
बाबा साहेब डॉ० भीमराव अम्बेडकर शायद देश के एक मात्र ऐसे व्यक्तित्व और मार्गदर्शक हैँ जो आज भी दबे कुचले वर्गों के बीच जीवंत हैं। डॉ० अम्बेडकर के विचार समाज के जिस वर्ग के सम्मान ,समानता और अधिकारों को सुनिश्चित करके देश की मुख्यधारा से जोड़ने की पैरवी करते हैं, वह वर्ग सीधे सीधे उनके विचारों को आत्मसात करता है, प्रेरणा और दिशा लेता है। वह दलित वर्ग के आत्मविश्वास और ऊर्जा का माध्यम  है।

दलित और आदिवासी मात्र दो ऐसे  वर्ग या समुदाय हैं जो अपने मुक्तिदाताओ डॉ ० अम्बेडकर और बिरसा मुण्डा को अपने जीवन में सबसे ज्यादा महत्व देते हैं जबकि देश के अधिकतर अन्य समुदाय अपने वैचारिक विश्वासों से ज्यादा अपने धार्मिक आस्थाओ को महत्व देते हैं। विचार और आस्था का यह असहज रिश्ता ही आज मुख्यधारा के समाज की  सबसे बड़ी चुनौती बना हुआ है। जबकि दलित और आदिवासी समुदाय के अन्दर इस  मुद्दे पर गहरी स्पष्टता है।  इस तथ्य के अन्दर एक व्यापक सन्देश छिपा हुआ है।
14 अप्रैल का दिन इस तथ्य की गहराई को समझने के लिये सबसे प्रासंगिक दिन है।प्रत्येक वर्ष  14 अप्रैल को दिल्ली का संसद मार्ग , 14 अक्टूबर को नागपुर की दीक्षा भूमि और 6  दिसम्बर को मुम्बई का चैत्य भूमि स्थल इसके गवाह होते हैं। जहाँ लाखों की तादाद में स्वतः स्फूर्त तरीके से देश भर के दलित अपने पूरे परिवारों के साथ अपने मुक्तिदाता को नमन करने पूरे जोशखरोश के साथ पहुँचते है। इन आयोजनो का  कोई केंद्रीय आयोजक नहीं होता है और न कोई अपील या निमन्त्रण भेजा जाता है। यह गुलामी के खिलाफ मुक्ति का महापर्व जैसा आभास कराता है।5  से 15 लाख की तादाद में अपने मुक्तिदाता को नमन करने पहुँचा  दलित वर्ग का यह स्वतः स्फूर्त और स्वानुशसित जन समुदाय समानता और आत्मसम्मान की भावना से भरा होता है। आज़ादी के 66 वर्षो में इस महापर्व जैसा कोई भी दूसरा उदाहरण आज तक नहीं मिला है।  
इन तीन महापर्वो में बिकने वाला आंबेडकर साहित्य पूरे देश में दूसरे महापुरुषों के पूरे साल में बिकने वाले साहित्य से कई गुना होता है। जिसे खरीदनेवाले कोई दलित बुद्धिजीवी वर्ग न होकर आम निम्न दलित व्यक्ति महिला ,पुरुष और बच्चे होते हैं। यह पुरे देश के सामने सम्मान, समानता और अधिकार के संघर्ष का एक जीवंत उदाहरण है। जिसे  14 अप्रैल को दिल्ली के संसद मार्ग में , 14 अक्टूबर को नागपुर की दीक्षा भूमि में या फिर 6 दिसम्बर को मुम्बई के चैत्य भूमि स्थल में महसूस किया जा सकता है।
इतना ही नहीं देश भर में शायद आंबेडकर जयंती एक मात्र ऐसा पर्व है जिसे पूरे देश में समुदाय के द्वारा सामूहिक रूप से मनाया जाता है। प्रभातफेरी से शुरू होकर देर रात तक विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन देश भर में गॉवो से लेकर शहरो की दलित बस्तीओ में नए वस्त्रो से सजे धजे स्त्री पुरुष और बच्चे इस महापर्व के महत्त्व का अहसास बहुत आसानी से करा देंगे।
यह महज़ संयोग नहीं है बल्कि प्रत्यक्ष सत्य है कि देश भर में डॉ ० आम्बेडकर की 98 % प्रतिमाएँ दलित समुदाय ने लगवाई हैं जबकि गांधीजी की 98 % प्रतिमाएँ सरकार के द्वारा स्थापित की गई हैं। यह दलित वर्ग की राजनैतिक चेतना और परिपक्वता का ज्वलंत उदाहरण है। 

 गांधी से लेकर मार्क्स तक की  विचारधारायें किताबों में बंद हैं या फिर कुलीन वर्ग की बैठको में बुद्धि विलास के काम आती हैं। लेकिन आम जनता या फिर मुख्यधारा के समाज न तो उससे कोई दिशा ले पाते हैं और न ही प्रेरणा !!!!!!
डॉ अम्बेडकर का विचार और साहित्य अपने वर्ग से सीधे संवाद करता है।  उसे प्रेरणा और ऊर्जा देता है।
अब समय आ गया है जब यदि हमें वास्तविक जनतंत्र चाहिये जो समानता, सबको बराबरी के अधिकार और अवसर देने की गारन्टी देता हो तो वह मुक्ति की वास्तविक और अन्तिम लड़ाई दलितों के नेतृत्व में ही सम्भव है।
फैसला हम सबको मिलकर करना है। ।!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
डॉ ०  अम्बेडकर की 123 जयन्ती पर आप सभी को अभिनन्दन !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

ARUN KHOTE
राष्ट्रीय भूमिश्रम  एवं न्याय आन्दोलन
National Movement For Land, Labor & Justice-NMLLJ
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