चला गया पहाड़ का प्रेमचंद-विद्यासागर नौटियाल नहीं रहे
-शिवप्रसाद जोशी के शब्दों में श्रद्धा सुमन
-शिवप्रसाद जोशी के शब्दों में श्रद्धा सुमन
अपनी कहानियों और अपने उपन्यासों से एक ठेठ ग्रामीण जीवन की व्यथा और यातना को स्वर देने वाले अग्रणी कथाकार उपन्यासकार विद्यासागर नौटियाल नहीं रहे. इस साल सितंबर में वो 79 वर्ष के हो जाते. विद्यासागर नौटियाल हिंदी में मोहन राकेश कमलेश्वर और राजेंद्र यादव की त्रयी के बाहर उन गिनेचुने रचनाकारों में थे जिन्होंने एक रोमानी पैनेपन के साथ आंचलिक अंधेरो को पाठकों के सामने पेश किया. उनकी टिहरी की कहानियां, हिंदी में बेजोड़ मानी जाती हैं. वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल मानते हैं कि उनकी रचनाओं में प्रेमचंद की यथार्थवादी परंपरा का सार्थक विस्तार मिलता है.
विद्यासागर नौटियाल ने कम्युनिस्ट आंदोलन और टिहरी में सामंतशाही विरोधी आंदोलन में भाग लिया. वो अपने इलाक़े के प्रति इस क़िस्म के अगाध और अनिर्वचनीय प्रेम से बंधे रहे कि उनकी हर रचना उसी ऊबड़ख़ाबड़ और बदक़िस्मती और ज़ुल्मोसितम के शिकार भूगोल में भटकती रही. विद्यासागर नौटियाल पहाड़ की स्त्रियों और दलितों के जीवन, पहाड़ के पाखंडो और विस्थापन जैसे सवालों से हमेशा बात करते रहने वाली एक भटकती रूह सरीखे थे.
फट जा पंचधार, उत्तर बायां हैं, झुंड से बिछुड़ा, बाग़ी टिहरी गाए जा, भीम अकेला, मोहन गाता जाएगा और सूरज सबका है जैसी रचनाएं अपने शीर्षकों में जितना कौतुहल और ड्रामा और संघर्ष, वेदना और उल्लास के जो शेड्स दिखाती हैं वे अपने पाठ में उतने ही बड़े अंधेरों उजालों और उतराइयों और चढ़ाइयों की व्यापक दास्तानें हैं. उनकी भाषा हिंदी के शोरोगुल के बीच एक नई भाषा है. उसमें पहाड़ की रंगतें थीं, वहां की छवियां और उसमें एक निराली किस्म की आधुनिकता है.
विद्यासागर नौटियाल हिंदी में एक ख़ामोश किनारे के लेखक रहे हैं. उन्हें पहल सम्मान मिला था, वो आयोजन देहरादून में ही हुआ था. और वरिष्ठ हिंदी लेखक ज्ञानरंजन और बाक़ी सहयोगी रचनाकार देहरादून में ही जुटे थे. विद्यासागर नौटियाल ने इस पुरस्कार पर बहुत गहरी ख़ुशी और तसल्ली ज़ाहिर की थी. ख़राब स्वास्थ्य के बीच दिल्ली में उन्हें पिछले दिनों पहला श्रीलाल शुक्ल स्मृति पुरस्कार मिला था.
विद्यासागर नौटियाल की आलोचना अक़्सर इसलिए की जाती थी कि वो एक ही जगह के बारे में बार बार लिखते हैं. वे दोहराते हैं. इसके जवाब में नौटियाल ने एक बार इन पंक्तियों के लेखक के साथ बातचीत में कहा था कि उनकी रचनाएं इस बात का प्रमाण हैं कि वहां दोहराव की गुंजायश नहीं है. उनके मुताबिक मेरा वो इलाक़ा छोटा भले ही है लेकिन वो ज़ुल्म संघर्ष और किसान समाज के एक दौर की अहम जानकारियां बताता है. वहां कथाएं भरी पड़ी हैं. वे पुराने कहे जा रहे मूल्य अभी लोगों ने जाने ही कहां है. उस पुरानेपन की गाथा कहने वाला भी कोई होना चाहिए. सागर के मुताबिक वो वही हो सकते हैं. सागरजी ने इस बातचीत में ये भी कहा था कि नए लेखक मुझे अपने साथ लेकर चलें. हिंदी साहित्य में मैं पुरानी पीढ़ी में गिना नहीं जाता हूं.
विद्यासागर नौटियाल एक बड़े महाआख्यान क़िस्म के नॉवल की तैयारी कर रहे थे. उनके मस्तिष्क में उसकी रूपरेखा बनी थी. वो भूमंडलीकरण और विकास के नए तनावों और अपने उन वंचित लोगों की उलझनों और मुश्किलों को जोड़कर कुछ नया काम करना चाहते थे. वे बहुत सक्रिय लेखक थे. और ये सक्रियता इसलिए भी असाधारण थी कि तीस साल के लंबे विराम के बाद आई थी. 60 से 90 तक. वो टिहरी बांध से हुई विभिन्न बरबादियों पर लिखना चाहते थे.
उत्तराखंड बनने के बाद सत्ता राजनीति की मारकाट को उन्होंने गहरी वितृष्णा से देखा. उनका कहना था कि बड़े माफ़िया की जगह छोटे माफ़िया ने ले ली. यही हुआ यहां. “बिराळा बाघ अर कताल्डा नाग.” कबाड़ख़ाना से साभार
विद्यासागर नौटियाल ने कम्युनिस्ट आंदोलन और टिहरी में सामंतशाही विरोधी आंदोलन में भाग लिया. वो अपने इलाक़े के प्रति इस क़िस्म के अगाध और अनिर्वचनीय प्रेम से बंधे रहे कि उनकी हर रचना उसी ऊबड़ख़ाबड़ और बदक़िस्मती और ज़ुल्मोसितम के शिकार भूगोल में भटकती रही. विद्यासागर नौटियाल पहाड़ की स्त्रियों और दलितों के जीवन, पहाड़ के पाखंडो और विस्थापन जैसे सवालों से हमेशा बात करते रहने वाली एक भटकती रूह सरीखे थे.
फट जा पंचधार, उत्तर बायां हैं, झुंड से बिछुड़ा, बाग़ी टिहरी गाए जा, भीम अकेला, मोहन गाता जाएगा और सूरज सबका है जैसी रचनाएं अपने शीर्षकों में जितना कौतुहल और ड्रामा और संघर्ष, वेदना और उल्लास के जो शेड्स दिखाती हैं वे अपने पाठ में उतने ही बड़े अंधेरों उजालों और उतराइयों और चढ़ाइयों की व्यापक दास्तानें हैं. उनकी भाषा हिंदी के शोरोगुल के बीच एक नई भाषा है. उसमें पहाड़ की रंगतें थीं, वहां की छवियां और उसमें एक निराली किस्म की आधुनिकता है.
विद्यासागर नौटियाल हिंदी में एक ख़ामोश किनारे के लेखक रहे हैं. उन्हें पहल सम्मान मिला था, वो आयोजन देहरादून में ही हुआ था. और वरिष्ठ हिंदी लेखक ज्ञानरंजन और बाक़ी सहयोगी रचनाकार देहरादून में ही जुटे थे. विद्यासागर नौटियाल ने इस पुरस्कार पर बहुत गहरी ख़ुशी और तसल्ली ज़ाहिर की थी. ख़राब स्वास्थ्य के बीच दिल्ली में उन्हें पिछले दिनों पहला श्रीलाल शुक्ल स्मृति पुरस्कार मिला था.
विद्यासागर नौटियाल की आलोचना अक़्सर इसलिए की जाती थी कि वो एक ही जगह के बारे में बार बार लिखते हैं. वे दोहराते हैं. इसके जवाब में नौटियाल ने एक बार इन पंक्तियों के लेखक के साथ बातचीत में कहा था कि उनकी रचनाएं इस बात का प्रमाण हैं कि वहां दोहराव की गुंजायश नहीं है. उनके मुताबिक मेरा वो इलाक़ा छोटा भले ही है लेकिन वो ज़ुल्म संघर्ष और किसान समाज के एक दौर की अहम जानकारियां बताता है. वहां कथाएं भरी पड़ी हैं. वे पुराने कहे जा रहे मूल्य अभी लोगों ने जाने ही कहां है. उस पुरानेपन की गाथा कहने वाला भी कोई होना चाहिए. सागर के मुताबिक वो वही हो सकते हैं. सागरजी ने इस बातचीत में ये भी कहा था कि नए लेखक मुझे अपने साथ लेकर चलें. हिंदी साहित्य में मैं पुरानी पीढ़ी में गिना नहीं जाता हूं.
विद्यासागर नौटियाल एक बड़े महाआख्यान क़िस्म के नॉवल की तैयारी कर रहे थे. उनके मस्तिष्क में उसकी रूपरेखा बनी थी. वो भूमंडलीकरण और विकास के नए तनावों और अपने उन वंचित लोगों की उलझनों और मुश्किलों को जोड़कर कुछ नया काम करना चाहते थे. वे बहुत सक्रिय लेखक थे. और ये सक्रियता इसलिए भी असाधारण थी कि तीस साल के लंबे विराम के बाद आई थी. 60 से 90 तक. वो टिहरी बांध से हुई विभिन्न बरबादियों पर लिखना चाहते थे.
उत्तराखंड बनने के बाद सत्ता राजनीति की मारकाट को उन्होंने गहरी वितृष्णा से देखा. उनका कहना था कि बड़े माफ़िया की जगह छोटे माफ़िया ने ले ली. यही हुआ यहां. “बिराळा बाघ अर कताल्डा नाग.” कबाड़ख़ाना से साभार
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