.... मैंने कुछ ही महीनों में अपनी किताब की आठ हजार प्रतिंयां बेच डाली थी, फिर भी मुझे कोई प्रकाशक नहीं मिल रहा था.मैंने फिर उपवास के माध्यम से प्रयास किया. जैसे ही मई-1986 में कक्षाएं समाप्त हुयीं, मैंने एक सप्ताह के उपवास का निश्चय किया. ठीक उसी पुराने ढंग से, पहले तीन दिन बिना कुछ खाए-पिए और अंतिम चार दिन जल के साथ. यह मेरा सातवां लम्बा उपवास था. लेकिन अब मेरा शरीर बहुत दुर्बल हो चूका था. मेरे संघर्षों की कीमत चुक चुकी थी. मैं छठे दिन उपवास नहीं कर सका. मुझे चक्र आने लगे और उल्टियाँ लग गयीं. उपवास तोडना पड़ा.
यह मेरे जीवन का सब से बड़ा संकट काल था. परमपिता के प्रति मेरा विशवास डिगने लगा था.....सारी दुनिया को सुचेत करने के लिए जो भी मेरे लिए सम्भव था, मैं कर चुका था. बहुत हो चुका था. अंतर्मन दुखी होकर चिल्ला रहा था," अब और अधिक कष्ट सहन नहीं करूंगा., स्वयं को और पीड़ा नहीं दूंगा".
मैंने किताब सम्बन्धी सारे काम बंद कर दिए. मुझे तीसरे प्रकाशन के बर्बाद होने की भी चिंता नहीं थी. मैं तो अब घंटों घंटों ध्यान साधना के आनंद में दुबकी लगाने के लिए बठने लगा.मैं परमपिता को नहीं भूल सकता था.
कुछ बहुत बड़ी बात जो मेरी जानकारी में नहीं थी, होने जा रही थी. सातवें अधूरे उपवास ने वास्तव में उन बाधाओं की कमर तोड़ दी थी जो मेरा पीछा लगातार कर रहीं थीं....
बस यहाँ से शुरू हो जाती है डाक्टर रवि बत्रा को सफलता के आसमान पर पहुँचाने वाली कई कहानिओं की शुरुआत...और यह सिलसिला आज भी जारी है. विश्व में अर्थशास्त्र के क्षेत्र में उनका नाम आज भी सम्मान से लिया जाता है. उनकी भविष्यवाणियो को आज भी लोक दिल थाम कर पढ़ते और सुनते हैं....गौरतलब है कि जब अंतर्राष्ट्रीय स्तर के प्रख्यात आर्थिक जर्नल इकोनोमिकल इन्क्वायरी के अक्टूबर-1990 के अंक में एक विशेष तुलनात्मक अध्यन प्रकाशित किया तो अमेरिका और कनाडा के तमाम विश्वविद्यालिओं के अर्थशास्त्र विषय के 46 सुपरस्टार अर्थशास्त्रियो के क्रम में तीसरा स्थान डाक्टर रवि बत्रा को दिया गया था.
और अब आखिरी पंक्तिया: आध्यात्मिकता की जिस मशाल को विवेकानंद ने पहले अपनी अमरीकी यात्रा में जलाया था अब वही मशाल प्रोउत के रूप में पल्लवित और पुषिप्त होकर पूरण ज्योति के साथ प्रजव्लित होगी. उठिए और मेरे साथ भगवत गीता कि भावना से ओत प्रोत पंक्तिया दोहराइए.
जितनी बड़ी दुनिया, उतनी ही बड़ी बाधा,
जितनी बड़ी बाधा, उतनी ही बड़ी उपलब्धि.
अत: असफलता के लिए बाधाओं को नहीं, बल्कि निरंतर प्रयत्नशीलता के अभाव को लांछित करना चाहिए. --रैक्टर कथूरिया
4 comments:
मुझे रवि बत्रा जी की द ग्रेट डिप्रेशन बहुत भायी थी
बी एस पाबला
परिचय के लिए आभार.
रवि बत्रा जी के बार में-बहुत प्रेरणादायी आलेख.
Post a Comment