Tuesday, May 03, 2016

डर का पेशेवर इस्तेमाल है आतंक

इस शोषण का प्रतिफल तुम इन्सानों को ही भुगतना पड़ता है

आतंक एक मनोदशा है,जो तुम इन्सानों पर तब से हावी है,जब तुमने सभ्यता का चोगा पहली बार पहना था। तभी से तुम आतंकित होते रहे हो या आतंकित करते रहे हो। आतंक तुम्हारे दिमाग में व्याप्त सहज डर का सुनियोजित दोहन है, डर का पेशेवर इस्तेमाल है। जब तुम सहज जीव थे यानि जब तुम खुद आदिम अवस्था में मानते थे, तब हर जीव की तरह तुम्हारे दिमाग में भी डर का एक सहज भाव मौजूद था। यह सहज डर तुम्हारे जीवन की रक्षा के लिए तुम्हारी शरीर प्रणाली को हर पल सचेत और सतर्क रखता था। इसी डर को कम करने के लिए तुमने राज्य,धर्म,समाज,सभ्यता और अर्थव्यवस्था जैसे दिमागीतन्त्रों को अस्तित्व प्रदान किया था। अब तुम्हारे सहज डर की जगह दिमागीतन्त्रों के काल्पनिक और आभासी डर ने ले ली। जैसे-जैसे दिमागीतन्त्रों का आकार बढता गया, वैसे-वैसे यह काल्पनिक डर फैलता गया और इसने आतंक का स्वरूप ले लिया। तुम पर दिमागीतन्त्रों का असर इतना गहरा हो गया कि तुम बाकी जीव-पदार्थो के साथ-साथ एक-दूसरे को भी आतंकित करके अपने वजूद की हिफाजत तय करने लगे। तुम्हें हर जीव, हर पदार्थ और हर इंसान को आतंकित रखकर अपने देश ,धर्म, समाज और सभ्यता को बचाना था। तुम आतंकी मनोदशा में इतना डूब चुके हो कि तुम अपने परिवार,अपने बच्चों,अपने आसपास के लोगों को भी आतंक के साये में रखना चाहते हो।
वरुण सरकार की पोस्ट 
पेड़-पौधों,सूक्ष्म जीवों,जानवरों,अपने से कमजोर इन्सानों का शोषण करके तुमने अपने जीवन की नहीं,बल्कि दिमागीतन्त्रों के वजूद की रक्षा की है। लेकिन दिमागीतंत्र अमूर्त हैं,इसलिए इस शोषण का प्रतिफल तुम इन्सानों को ही भुगतना पड़ता है। तुम्हारी मशीनों, बन्दूकों, बमों से कोई राष्ट्र, धर्म, समाज या सभ्यता नहीं मरती है,केवल तुम इन्सानों को ही मरना पड़ता है।  तुम भले ही शहादत के नाम पर इन मौतों को अपना महान कृत्य मान लो लेकिन मेरी सहज व्यवस्था में यह तुम्हारी गतिविधियों का स्वाभाविक नतीजा मात्र है। इस नतीजे को तुम तभी टाल सकते हो,जब तुम अपने सहज डर  और दिमागीतन्त्रों के काल्पनिक डर के बीच अंतर  कर लो वर्ना आतंक की यह मनोदशा तुम्हारी पूरी प्रजाति को ही शहादत का दर्जा दिलवा देगी लेकिन तब उस दर्जे को सलाम करने के लिए कोई भी इंसान इस धरती पर मौजूद नहीं होगा। 

- तुम्हारा ईश्वर  

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