Sat, Mar 22, 2014 at 5:08 PM
गरीबी, बीमारी और अस्थिरता के चलते कभी भी पूरी तरह शान्ति नहीं हो सकती
विश्व के सभी देशों में लगभग एक समान स्थिति है कि आम चुनावों की घोषणा होते ही सभी राजनीतिक दल हरकत में आ जाते हैं और सत्ता हथियाने के लिए जोड़-तोड़, गठबंधन और समीकरण बनाने में जुट जाते हैं। सभी दल लुभावने वादे करते हैं, जनता को सुनहरे ख़्वाब दिखाते हैं और घोषणा करते हैं कि यदि वे सत्ता में आये तो उनकी क्या-क्या नीतियाँ और कार्यक्रम होंगें। सभी राजनीतिक दल अपने घोषणा पत्रों में बयान देते हैं कि वे सत्ता में आने पर पवित्रता, पारदर्शिता, शान्ति और प्रगति लायेंगे और सभी लोगों के लिए धन-धान्य, समृद्धि और खुशी सुनिश्चित करेंगे। अब अगर हम उनकी इस घोषणा पर विचार करें तो पायेंगे कि धन, समृद्धि और प्रसन्नता सभी आपस में जुड़े विषय हैं और सही अर्थों में इनका आनन्द तब तक नहीं लिया जा सकता जब तक कि ये सभी मनुष्यों के पास बहुतायत में न हों। यदि कुछ मनुष्यों के पास धन, समृद्धि और प्रसन्नता है और कुछ के पास नहीं, तो जीवन का वास्तविक आनन्द कभी भी प्राप्त नहीं किया जा सकता। यदि देश के किसी भी भाग में गरीबी, बीमारी और अस्थिरता है तो पूरे देश में कभी भी पूरी तरह शान्ति नहीं रह सकती।
राजनीतिक दलों द्वारा चुनावी घोषणा पत्रों में दिखाई गई लुभावनी तस्वीर तब तक मात्र कपोल कल्पना है जब तक कि मानवीय चरित्र में आध्यात्मिक और दिव्य गुण गहराई तक समाँ न जायें, इसलिए इस घुन लगे खोखले और वास्तविक गुणों से विहीन समाज को बदलने के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति दिव्य गुणों का साकार रूप बने और दिव्य सत्ता की स्थापना हो परन्तु हम पाते हैं कि कोई भी राजनीतिक दल अपने घोषणापत्र में इन्सान को आध्यात्मिकता, दिव्यता और समाज को दिव्य आध्यात्मिक सत्ता के अनुरूप परिवर्तित करने की चर्चा नहीं करता। इसके विपरीत राजनीतिक दल अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए समाज में घृणा और हिंसा को फैलाते हैं, और जातिवाद और साम्प्रदायिकता के आधार पर मानव को मानव से अलग करते हैं।
धर्म, जिसका उद्देश्य इन्सान को इन्सान से जोड़ना था आज सही अर्थों में अपना आकर्षण खो चुका है। धर्म आज एक विघटनकारी ताकत के रूप में काम कर रहा है और समाज की एकता और शान्ति को भंग कर रहा है। धर्म के नाम पर हो रही सामूहिक हिंसा और हत्याओं के प्रति समाज की असंवेदनशीलता गंभीर चिन्ता का विषय है। वैसे तो सभी प्रकार का आतंकवाद घातक है परन्तु धार्मिक कट्टरता से भड़कने वाला आतंकवाद मानवता का सबसे बड़ा शत्रु है। साम्प्रदायिकता के आधार पर मानवता का विभाजन परमाणु बम के विभाजन से भी अधिक खतरनाक है। यह सब हमें सोचने पर मजबूर करता है कि क्या कभी समाज में प्यार और अपनेपन का एहसास पनप पाएगा?
इस अवस्था में सहज ही ध्यान इस ओर जाता है कि राजनीतिक दल जिस रामराज्य को स्थापित करने की बात करते हैं, वह तब तक स्थापित नहीं हो सकता जब तक कि इन्सान की प्रवृत्ति न बदली जाए। साथ ही यह भी एक तथ्य है कि इन्सानी प्रवृत्ति को बदलने के लिए राजनीतिक दल सक्षम नहीं हैं। इन दलों के पास वह जादू की छड़ी नहीं है जिससे मानवीय चरित्र और भावनाओं को मानवीय, आध्यात्मिक व दिव्य बनाया जा सके।
राजनीतिक दलों के पास ऐसी समझ, सूझ-बूझ और अनुभव नहीं है जिससे कि वे इस दिव्य कार्य को पूर्ण कर सकें। वास्तव में यह कार्य सद्गुरु (परमात्मा के साकार रूप) का है जो कि मानवता के लिए सक्षम दल-रहित घोषणापत्र लाता है, जिससे ब्रह्मज्ञान के आधार पर पवित्रता, शान्ति और समृद्धि लाई जा सकती है।
चरित्र निर्माण आधुनिक विश्व की सबसे बड़ी समस्या है। भौतिक दृष्टिकोण ने सामाजिक संरचना को इस सीमा तक कमजोर बना दिया है कि जीवन के सभी क्षेत्रों में स्वार्थ निहित हो गया है। इस समस्या का हल तभी सम्भव है जब आत्मज्ञान द्वारा प्राप्त मानवीय मूल्यों को एक बार फिर से अपनाया जाए। अहिंसक सामाजिक परिवर्तन के लिए आध्यात्मिक और नैतिक विकास अत्यन्त आवश्यक है।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय हम विदेशी शासकों की “फूट डालो और शासन करो” की नीति की आलोचना करते थे परन्तु स्वतन्त्रता प्राप्ति के कई दशकों के बाद आज भी यह नीति समाप्त नहीं हुई और लगातार काम कर रही है।
1947 में प्रथम स्वतन्त्रता दिवस के अवसर पर प्रसिद्ध शायर फैज़ अहमद फेज़ ने इसे “सुबहे-आजादी” कहा परन्तु उसके बाद भड़के साम्प्रदायिक दंगों को देखने के बाद इसी शायर ने कहा, “यह वो सहर तो नहीं”। वे यह कहने पर मजबूर हो गये कि यह वो ‘सुबह’ तो नहीं जिसकी प्रतीक्षा हम सबने की थी। यह कितने आश्चर्य की बात है कि आज भी कुछ धर्मान्ध और अवसरवादी लोग साम्प्रदायिक आग भड़काकर हमारी आशाओं को धराशायी कर रहे हैं और हम यह कहने पर विवश हो जाते हैं कि - “यह वो धर्म तो नहीं”। आज विभाजित और विवश लोग कट्टरपंथियों को दोष देते हुए यही कहते हैं -
आग को होती नहीं, अपने-पराये की खबर, बात ये भूल गये, आग लगाने वाले।
परन्तु इस समस्या का हल धर्म को सच्चे अर्थों में अपनाकर ही सम्भव है। धर्म रूपी श्वेत प्रकाश जब मनुष्य रूपी प्रिज़्म से टकराता है तो विविध रंगों की किरणों में परिवर्तित हो जाता है। जैसे कि वेद और उपनिषद् कहते हैं - “वसुधैव कुटुम्बकम्” (सारा विश्व एक परिवार है) पैग़म्बर मोहम्मद साहिब भी इसी बात पर बल देते हैं “अल-खलगु अयालुल्लाह” (अर्थात् सारी खलकत अल्लाह का परिवार है) सभी प्रमाणित धार्मिक ग्रन्थों में भी इसी पवित्र संदेश की गवाही दी गई है। वास्तव में यदि हम अपने झूठे अभिमान और शक्तियों की मृगतृष्णा को तज कर सोचें तो पाते हैं कि सभी धर्म एकता की भावना पर बल देते हैं और उनमें आपस में कोई मतभेद नहीं हैं।
सभी धर्मों का आधार एक परमात्मा है। निरंकारी बाबा जी के शब्दों में- “एक परमपिता परमात्मा की जानकारी ही सभी मतभेदों को मिटा सकती है।” बाबा जी का कथन है- “सारा संसार एक परिवार”। वह कहते हैं कि धरती पर स्थित सभी स्थानों की दूरियों को आप यातायात के किसी न किसी साधन से तय करते हो परन्तु इन्सानों के दिलों की दूरी को आप केवल ब्रह्मज्ञान रूपी सेतु द्वारा ही समाप्त कर सकते हो और इससे ही आपसी भाईचारा स्थापित होगा।
बाबा जी फरमाते हैं- “परमात्मा की जानकारी से ही होती है शान्ति की प्राप्ति” क्यों कि जब आत्मा में प्रकाश होगा तो इन्सानों में सुन्दरता होगी, जब इन्सानों में सुन्दरता होगी तो घरों में एकता होगी, जब घरों में एकता होगी तो देश में सुव्यवस्था होगी, जब देश में सुव्यवस्था होगी तो विश्व में शान्ति होगी।
इसी दल-रहित घोषणापत्र को ध्यान में रखते हुए विलियम बर्क ने कहा कि सच्चा धर्म ही समाज की नींव होता है जिस पर सभ्य सरकारों की इमारतें टिकी होती हैं, जहाँ से सत्ता अपना अधिकार, कानून, अपनी योग्यता और ये दोनों अपनी शक्ति प्राप्त करते हैं। यदि परस्पर घृणा से यह ढाँचा हिल जाए तो समाज व देश कभी भी स्थिर और टिकाऊ नहीं हो सकते।
संयुक्त राष्ट्र की यह मान्यता है कि मानव सभ्यता और प्रकृति में टकराव निरन्तर बढ़ता जा रहा है। विश्व के ख्याति प्राप्त वैज्ञानिकों का भी अभिमत है कि समाज में बदलाव आवश्यक है अभी जो भी कुछ हम कर रहे हैं वह समाज को भारी गिरावट की ओर ले जा रहा है। इससे बचाव हेतु मानव के पास बहुत कम समय शेष है। अध्यात्म ही है जो इस भयावह परिदृश्य को बदलने की क्षमता रखता है। अतः इस मानवीय समस्या को आध्यात्मिक समस्या के रूप में स्वीकार करना होगा, अपने स्वभाव और जागरूकता में परिवर्तन लाना होगा तभी धरती पर विश्व समाज का स्वरूप सुन्दर बन सकेगा।
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*सी. एल. गुलाटी सन्त निरंकारी मण्डल दिल्ली के सचिव हैं।
गरीबी, बीमारी और अस्थिरता के चलते कभी भी पूरी तरह शान्ति नहीं हो सकती
विश्व के सभी देशों में लगभग एक समान स्थिति है कि आम चुनावों की घोषणा होते ही सभी राजनीतिक दल हरकत में आ जाते हैं और सत्ता हथियाने के लिए जोड़-तोड़, गठबंधन और समीकरण बनाने में जुट जाते हैं। सभी दल लुभावने वादे करते हैं, जनता को सुनहरे ख़्वाब दिखाते हैं और घोषणा करते हैं कि यदि वे सत्ता में आये तो उनकी क्या-क्या नीतियाँ और कार्यक्रम होंगें। सभी राजनीतिक दल अपने घोषणा पत्रों में बयान देते हैं कि वे सत्ता में आने पर पवित्रता, पारदर्शिता, शान्ति और प्रगति लायेंगे और सभी लोगों के लिए धन-धान्य, समृद्धि और खुशी सुनिश्चित करेंगे। अब अगर हम उनकी इस घोषणा पर विचार करें तो पायेंगे कि धन, समृद्धि और प्रसन्नता सभी आपस में जुड़े विषय हैं और सही अर्थों में इनका आनन्द तब तक नहीं लिया जा सकता जब तक कि ये सभी मनुष्यों के पास बहुतायत में न हों। यदि कुछ मनुष्यों के पास धन, समृद्धि और प्रसन्नता है और कुछ के पास नहीं, तो जीवन का वास्तविक आनन्द कभी भी प्राप्त नहीं किया जा सकता। यदि देश के किसी भी भाग में गरीबी, बीमारी और अस्थिरता है तो पूरे देश में कभी भी पूरी तरह शान्ति नहीं रह सकती।
राजनीतिक दलों द्वारा चुनावी घोषणा पत्रों में दिखाई गई लुभावनी तस्वीर तब तक मात्र कपोल कल्पना है जब तक कि मानवीय चरित्र में आध्यात्मिक और दिव्य गुण गहराई तक समाँ न जायें, इसलिए इस घुन लगे खोखले और वास्तविक गुणों से विहीन समाज को बदलने के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति दिव्य गुणों का साकार रूप बने और दिव्य सत्ता की स्थापना हो परन्तु हम पाते हैं कि कोई भी राजनीतिक दल अपने घोषणापत्र में इन्सान को आध्यात्मिकता, दिव्यता और समाज को दिव्य आध्यात्मिक सत्ता के अनुरूप परिवर्तित करने की चर्चा नहीं करता। इसके विपरीत राजनीतिक दल अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए समाज में घृणा और हिंसा को फैलाते हैं, और जातिवाद और साम्प्रदायिकता के आधार पर मानव को मानव से अलग करते हैं।
धर्म, जिसका उद्देश्य इन्सान को इन्सान से जोड़ना था आज सही अर्थों में अपना आकर्षण खो चुका है। धर्म आज एक विघटनकारी ताकत के रूप में काम कर रहा है और समाज की एकता और शान्ति को भंग कर रहा है। धर्म के नाम पर हो रही सामूहिक हिंसा और हत्याओं के प्रति समाज की असंवेदनशीलता गंभीर चिन्ता का विषय है। वैसे तो सभी प्रकार का आतंकवाद घातक है परन्तु धार्मिक कट्टरता से भड़कने वाला आतंकवाद मानवता का सबसे बड़ा शत्रु है। साम्प्रदायिकता के आधार पर मानवता का विभाजन परमाणु बम के विभाजन से भी अधिक खतरनाक है। यह सब हमें सोचने पर मजबूर करता है कि क्या कभी समाज में प्यार और अपनेपन का एहसास पनप पाएगा?
इस अवस्था में सहज ही ध्यान इस ओर जाता है कि राजनीतिक दल जिस रामराज्य को स्थापित करने की बात करते हैं, वह तब तक स्थापित नहीं हो सकता जब तक कि इन्सान की प्रवृत्ति न बदली जाए। साथ ही यह भी एक तथ्य है कि इन्सानी प्रवृत्ति को बदलने के लिए राजनीतिक दल सक्षम नहीं हैं। इन दलों के पास वह जादू की छड़ी नहीं है जिससे मानवीय चरित्र और भावनाओं को मानवीय, आध्यात्मिक व दिव्य बनाया जा सके।
राजनीतिक दलों के पास ऐसी समझ, सूझ-बूझ और अनुभव नहीं है जिससे कि वे इस दिव्य कार्य को पूर्ण कर सकें। वास्तव में यह कार्य सद्गुरु (परमात्मा के साकार रूप) का है जो कि मानवता के लिए सक्षम दल-रहित घोषणापत्र लाता है, जिससे ब्रह्मज्ञान के आधार पर पवित्रता, शान्ति और समृद्धि लाई जा सकती है।
चरित्र निर्माण आधुनिक विश्व की सबसे बड़ी समस्या है। भौतिक दृष्टिकोण ने सामाजिक संरचना को इस सीमा तक कमजोर बना दिया है कि जीवन के सभी क्षेत्रों में स्वार्थ निहित हो गया है। इस समस्या का हल तभी सम्भव है जब आत्मज्ञान द्वारा प्राप्त मानवीय मूल्यों को एक बार फिर से अपनाया जाए। अहिंसक सामाजिक परिवर्तन के लिए आध्यात्मिक और नैतिक विकास अत्यन्त आवश्यक है।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय हम विदेशी शासकों की “फूट डालो और शासन करो” की नीति की आलोचना करते थे परन्तु स्वतन्त्रता प्राप्ति के कई दशकों के बाद आज भी यह नीति समाप्त नहीं हुई और लगातार काम कर रही है।
1947 में प्रथम स्वतन्त्रता दिवस के अवसर पर प्रसिद्ध शायर फैज़ अहमद फेज़ ने इसे “सुबहे-आजादी” कहा परन्तु उसके बाद भड़के साम्प्रदायिक दंगों को देखने के बाद इसी शायर ने कहा, “यह वो सहर तो नहीं”। वे यह कहने पर मजबूर हो गये कि यह वो ‘सुबह’ तो नहीं जिसकी प्रतीक्षा हम सबने की थी। यह कितने आश्चर्य की बात है कि आज भी कुछ धर्मान्ध और अवसरवादी लोग साम्प्रदायिक आग भड़काकर हमारी आशाओं को धराशायी कर रहे हैं और हम यह कहने पर विवश हो जाते हैं कि - “यह वो धर्म तो नहीं”। आज विभाजित और विवश लोग कट्टरपंथियों को दोष देते हुए यही कहते हैं -
आग को होती नहीं, अपने-पराये की खबर, बात ये भूल गये, आग लगाने वाले।
परन्तु इस समस्या का हल धर्म को सच्चे अर्थों में अपनाकर ही सम्भव है। धर्म रूपी श्वेत प्रकाश जब मनुष्य रूपी प्रिज़्म से टकराता है तो विविध रंगों की किरणों में परिवर्तित हो जाता है। जैसे कि वेद और उपनिषद् कहते हैं - “वसुधैव कुटुम्बकम्” (सारा विश्व एक परिवार है) पैग़म्बर मोहम्मद साहिब भी इसी बात पर बल देते हैं “अल-खलगु अयालुल्लाह” (अर्थात् सारी खलकत अल्लाह का परिवार है) सभी प्रमाणित धार्मिक ग्रन्थों में भी इसी पवित्र संदेश की गवाही दी गई है। वास्तव में यदि हम अपने झूठे अभिमान और शक्तियों की मृगतृष्णा को तज कर सोचें तो पाते हैं कि सभी धर्म एकता की भावना पर बल देते हैं और उनमें आपस में कोई मतभेद नहीं हैं।
सभी धर्मों का आधार एक परमात्मा है। निरंकारी बाबा जी के शब्दों में- “एक परमपिता परमात्मा की जानकारी ही सभी मतभेदों को मिटा सकती है।” बाबा जी का कथन है- “सारा संसार एक परिवार”। वह कहते हैं कि धरती पर स्थित सभी स्थानों की दूरियों को आप यातायात के किसी न किसी साधन से तय करते हो परन्तु इन्सानों के दिलों की दूरी को आप केवल ब्रह्मज्ञान रूपी सेतु द्वारा ही समाप्त कर सकते हो और इससे ही आपसी भाईचारा स्थापित होगा।
बाबा जी फरमाते हैं- “परमात्मा की जानकारी से ही होती है शान्ति की प्राप्ति” क्यों कि जब आत्मा में प्रकाश होगा तो इन्सानों में सुन्दरता होगी, जब इन्सानों में सुन्दरता होगी तो घरों में एकता होगी, जब घरों में एकता होगी तो देश में सुव्यवस्था होगी, जब देश में सुव्यवस्था होगी तो विश्व में शान्ति होगी।
इसी दल-रहित घोषणापत्र को ध्यान में रखते हुए विलियम बर्क ने कहा कि सच्चा धर्म ही समाज की नींव होता है जिस पर सभ्य सरकारों की इमारतें टिकी होती हैं, जहाँ से सत्ता अपना अधिकार, कानून, अपनी योग्यता और ये दोनों अपनी शक्ति प्राप्त करते हैं। यदि परस्पर घृणा से यह ढाँचा हिल जाए तो समाज व देश कभी भी स्थिर और टिकाऊ नहीं हो सकते।
संयुक्त राष्ट्र की यह मान्यता है कि मानव सभ्यता और प्रकृति में टकराव निरन्तर बढ़ता जा रहा है। विश्व के ख्याति प्राप्त वैज्ञानिकों का भी अभिमत है कि समाज में बदलाव आवश्यक है अभी जो भी कुछ हम कर रहे हैं वह समाज को भारी गिरावट की ओर ले जा रहा है। इससे बचाव हेतु मानव के पास बहुत कम समय शेष है। अध्यात्म ही है जो इस भयावह परिदृश्य को बदलने की क्षमता रखता है। अतः इस मानवीय समस्या को आध्यात्मिक समस्या के रूप में स्वीकार करना होगा, अपने स्वभाव और जागरूकता में परिवर्तन लाना होगा तभी धरती पर विश्व समाज का स्वरूप सुन्दर बन सकेगा।
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*सी. एल. गुलाटी सन्त निरंकारी मण्डल दिल्ली के सचिव हैं।
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