Wednesday, July 31, 2013

INDIA: लोकतंत्र को ढकेलते न्यायालय

Wed, Jul 31, 2013 at 12:33 PM
An Article by the Asian Human Rights Commission                        --प्रशान्त कुमार दूबे
पिछले साठ सालों में भारतीय लोकतंत्र मजबूत हुआ है। हमारा चुनाव आयोग दुनिया का सबसे बेहतर आयोग है। इस लोकतंत्र में जहां एक ओर तो दलित और वंचित वर्गों को प्रतिनिधित्व करने का मौका मिला है वहीं दूसरी ओर बड़ी संख्या में महिलाएं आगे आई हैं।'' अरविन्द मोहन
पिछला सप्ताह राजनीतिक दलों और राजनीतिज्ञों के लिए एक बड़े ही कठिन समय की दस्तक लेकर आया | माननीय उच्चतम न्यायालय का वह फैसला जिसमें कहा गया था कि यदि मौजूदा सांसदों और विधायकों को किसी आपराधिक मामले में दो साल से ज्यादा और भ्रष्टाचार निरोधक कानून के तहत कोई भी सजा दी जाती है, तो उनकी सदस्यता तत्काल प्रभाव से खत्म कर दी जाएगी।
दूसरे ही दिन सर्वोच्च अदालत ने एक अन्य निर्णय में कहा कि यदि कोई व्यक्ति जेल में है तो वह वहां से चुनाव भी नहीं लड़ सकता है। इस सम्बन्ध में इस बात का हवाला दिया गया कि जब उस व्यक्ति को जेल से मतदान करने का अधिकार नहीं है, तो फिर उसे चुनाव लड़ने का भी अधिकार नहीं है। इस आदेश की व्याख्या में अदालत ने पटना उच्च न्यायालय के वर्ष 2004 में दिए गए फैसले का हवाला भी दिया है। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति ए.के. पटनायक और एस.जे. उपाध्याय की दो सदस्यीय पीठ ने यह दोनों आदेश लिली थामस, चुनाव आयोग, लोकप्रहरी और बसंत कुमार चैधरी की जनहित याचिकाओं पर दिए।
तीसरा और अंतिम फैसला उत्तरप्रदेश उच्च न्यायालय ने दिया। अदालत ने कहा कि राजनैतिक दल जाति के आधार पर रैलियां आय¨जित नहीं कर सकते हैं। ज्ञात हो कि पिछले सालों में उत्तरप्रदेश में जातिगत रैलियों का बोलबाला रहा है। यहां तक कि वे दल (बसपा, सपा) जो कि स्वयं जाति के इस कुचक्र को तोड़ने आये थे, उन्होंने ही सबसे ज्यादा जातिगत रैलियां कीं। कभी ब्राहमण रैली तो कभी यादव और कभी दलित रैली ......।
इन तीनों फैसलों ने जहां एक ओर राजनैतिक दलों को तो सांसत में डाला ही है, वहीं दूसरी ओर जिन मंत्री-विधायकों पर आपराधिक मुकदमे की तलवार लटक रही है, उनकी जान भी आफत में डाल दी है। मध्यप्रदेश में सत्ताधारी तीन विधायकों पर यह तलवार लटक रही है, जिनमें से पूर्व मंत्री राघव जी भी शामिल हैं। एक के बाद एक आए इन तीन फैसलों ने प्राईम टाइम को नया मसाला दे दिया। यह खबर खबरी चैनलों पर गन्ने की चरखी के उस गन्ने की तरह चली, जिसे सूखा और रूखा होने तक निचोड़ा जाता है।
इस पूरे दौर में राजनैतिक दल मजबूरी के चलते फैसलों को लोकतंत्र की मजबूती के लिए बढि़या कदम बताते रहे। चैनलों और अखबारों का एक्सपर्ट पैनल इसका फौरी विश्लेषण करता रहा। लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि क्या इससे लोकतंत्र मजबूत होगा ? क्या राजनीति का अपराधीकरण या अपराध का राजनैतिकीकरण खत्म हो जाएगा? क्या राजनैतिक दल जिस तरह से इस फैसले का स्वागत कर रहे हैं क्या उसी तरह से ही इसे स्वीकार कर लेंगे? इसे राजनीति में सुधार की दिशा में कदम माना जाएगा? इन सभी सवालों का जवाब केवल न में ही है?
हम सभी जानते हैं कि आजकल अधिकांश पार्टियां अपराधियों से परहेज नहीं करतीं या अपराधी चुनाव जीतने लगे हैं। इस संदर्भ में किसी भी दल की तात्कालिक सरकारों के ग्राफ भी देख लें तो हम पाते हैं कि लगभग एक चैथाई नेता दागी हैं। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म (एडीआर) के आंकड़ों को देखें तो हम पाते हैं कि देश के 543 सांसदों में से 162 पर आपराधिक प्रकरण दर्ज हैं। इतना ही नहीं उनमें से भी 14 प्रतिशत सांसदों पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। इसी प्रकार देशभर के 4032 विधायकों में से 1258 विधायकों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं और उनमें से भी 15 प्रतिशत विधायकों पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। इनमें से यदि 10 प्रतिशत नेता ऐसे भी मान लिए जाएं जिन पर राजनैतिक द्वेष के चलते झूठे मुकदमे चल रहे हैं तो भी बची हुई संख्या भी काफी है।
मध्यप्रदेश में भी 217 विधायकों में से 55 विधायकों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं व इनमें से 25 विधायकों पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। गौरतलब है कि इनमें से अधिकांश या तो मंत्री हैं या मंत्री रह चुके हैं। हद तो यह है कि झारखंड में तो 74 प्रतिशत विधायकों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं।
जो राजनैतिक दल इन निर्णयों का अभी स्वागत कर रहे हैं यदि उन्हें राजनीति में सुधार इतने ही वांछित लगते हैं तो फिर उन्होंने अभी तक अपने-अपने दलों में यह प्रक्रिया क्यूं नहीं अपनाई? जबकि चुनाव आयोग ने तो वर्ष 2004 में ही इन सुधारों को लेकर सिफारिशें की थीं। तबसे लेकर आज तक न तो इन दलों ने जाति जैसे प्रश्न पर कुछ बात की और ना ही इन्होंने अपराध पर लगाम लगाने के लिए कोई पहल की। पिछले दिनों इन दलों के पास स्वयं के लोकतांत्रिक होने और लोकतंत्र का सम्मान करने वाले दल के रूप में प्रस्तुत करने का बेहतर अवसर मिला था तब ये दल अपने आंतरिक तंत्र को सूचना के अधिकार के दायरे में ला सकते थे। यहां भी इन दलों ने ऐसा नहीं किया, बल्कि तमाम परस्पर विरोधी दल आपस में एक साथ आकर राष्ट्रीय सूचना आयोग के निर्णय के विरुद्ध अध्यादेश लाने पर सहमत हो गए हैं। यही लोकतंत्र में आस्था रखने का स्वांग रचने वाले इन दलों का असली चेहरा है।
विचारणीय है कि राजनीतिक दलों को लोकतंत्र में इतनी ही गहरी आस्था होती तो फिर ये गैर संवैधानिक तरीके से जनप्रतिनिधित्व कानून को संशोधित करके धारा-8 (4) क्यों बनाते? जब एक आम नागरिक के लिए इस कृत्य की सजा तय है तो फिर राजनेता इससे कैसे बच सकते हैं? अमेरिका के मशहूर न्यायाधीश फेलिक्स फ्रेंकफर्टर का कहना है कि दुनिया का कोई भी पद नागरिक से बड़ा नहीं होता है। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म (एडीआर) के राष्ट्रीय समन्वयक अनिल बैरवाल कहते हैं दरअसल में यह फैसले राजनीतिक दलों के मुंह पर तमाचा है। वे कहते हैं कि लोकतंत्र की खूबसूरती तो यही है कि सभी घटक अपने-अपने हिस्से का काम बखूबी करें, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। राजनीतिक दलों ने अपनी ओर से कोई भी ठोस कदम नहीं उठाये हैं और जिसके चलते ही न्यायालय को इस भूमिका में आना पड़ा।
मध्यप्रदेश इलेक्शन वॉच की समन्वयक रोली शिवहरे कहती हैं कि अधिक न्यायालयीन हस्तक्षेप से लोकतंत्र कमजोर होता है। यह न्यायालय की मजबूरी है कि वह हस्तक्षेप करे। बेहतर तो तब होता जब कि वे (राजनीतिज्ञ) खुद इस प्रकार की पहल करते और लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करते।''
सवाल उठता है कि क्या हम एक ऐसे लोकतंत्र की ओर बढ़ रहे हैं जहां कि हर राजनैतिक या किसी और प्रकार के सुधार के लिए हमें अदालती डंडे का सहारा लेना पड़ेगा। यानी हर वो समूह जिसके पास पैसा है, ताकत है, वह तो इसे हासिल कर लेगा, लेकिन उनका क्या जो कि दो जून की रोटी के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं। और रही बात न्याय में देरी की व न्यायालयों के गड़बड़ निर्णयों की तो उनकी तो बात करना ही बेमानी है। शायद यही कारण है कि दक्षिण भारत के अनेक आदिवासी समुदायों ने तो न्यायालय जाना बंद ही कर दिया है।
अंत में सिर्फ इतना ही कि क्या केवल न्यायालय के निर्णयों एवं जनहित याचिकाओं के जरिये ही लोकतंत्र पटरी पर दौड़ेगा या फिर इस लोकतंत्र को सही मायने में बचाने के लिए राजनैतिक दल कुछ ईमानदार कोशिश करेंगे? आज राजनीति सुधार की नहीं बल्कि दवाब की राजनीति बनकर रह गई है। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि प्रत्येक राज्य सरकार को अभी तक यह अधिकार प्राप्त है कि वह किसी भी अपराधी के खिलाफ प्रकरणों को निरस्त कर सकती है।
About the Author: Mr. Prashant Kumar Dubey is a Rights Activist working with Vikas Samvad, AHRC's partner organisation in Bophal, Madhya Pradesh. He can be contacted at prashantd1977@gmail.com
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About AHRC: The Asian Human Rights Commission is a regional non-governmental organisation that monitors human rights in Asia, documents violations and advocates for justice and institutional reform to ensure the protection and promotion of these rights. The Hong Kong-based group was founded in 1984.

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