Tue, Jul 16, 2013 at 2:52 PM
उस दिन मन्दिर के प्रांगण में मात्र 10-20 लोग ही नजर आ रहे थे
जून मास के मध्य उत्तराखंड में आयी प्राकृतिक आपदा के पश्चात 1 जुलाई को देहरादून से मैंने श्री बद्रीनाथ जाने का कठोर निर्णय लिया. येन-केन प्रकारेण मैं श्री बद्रीनाथ पहुँचने में कामयाब हो गया. तीन दिन और दो रात मै श्री बद्रीनाथ धाम में ही रहा. इस दौरान श्री बद्रीनाथ धाम के दर्शन के साथ-साथ वहाँ के स्थानीय लोगो सहित प्रशासन, सेना, व आई.टी.बी.पी के लोगों से भी मिलना हुआ और उस दैवीय-आपदा के बारे मे चर्चा हुई. एक दिन भगवान बद्री विशाल के धर्माधिकारी श्री भुवन उनियाल मुझे घुमाने ऋषिगंगा की तरफ ले गये. रास्ते में मैने देखा कि कुछ लोग ऋषिगंगा के किनारे ही घर बनाने में लगे हैं. पूछने पर पता चला कि उस दैवीय-आपदा के चलते ये घर बह गये थे. बिल्डिग बायलाज की धज्जियाँ उडाकर बिल्कुल नदी के किनारे उन्हे घर बनाता हुआ देखकर मैं आश्चर्यचकित हो गया. क्योंकि मुझे ऐसा लग रहा था कि 10 दिन पहले आयी प्राकृतिक आपदा से भी लोगों ने कोई सबक नही लिया. हलाँकि मैने उन लोगों से बात करने की कोशिश किया था पर सफल नही हो पाया. फिर मैं अपने मन में ही बुदबुदाते हुए आगे चला गया. सायंकाल को श्री बद्रीनाथ जी की आरति के नियत समय से कुछ पहले मैं मन्दिर के प्रांगण में पहुँच गया. भारत के करोडों लोग अपनी श्रद्धा के चलते भगवान बद्रीविशाल के दर्शन हेतु आते है. भगवान बद्रीविशाल के कपाट वर्ष में छ: महीने के लिये ही खुलते है. परिणामत: इन दिनों श्री बद्री विशाल के दर्शन हेतु बडी संख्या मे लोग आते है. परंतु उस दिन मुझे मन्दिर के प्रांगण में मात्र 10-20 लोग ही नजर आ रहे थे.
भगवान बद्री विशाल के दर्शन-पश्चात मै वहाँ उपस्थित सहायक-रावल के समीप बैठ गया और उनसे तीन दिन की दैवीय-आपदा पर चर्चा की. उन्होने बताया कि उस दिन मन्दिर के प्रांगण मे ही लोग आ गये थे और भगवान बद्री विशाल से प्रार्थना कर रहे थे. सभी लोग डरे और सहमे हुए थे. भगवान बद्री विशाल की कृपा से तो यहाँ जान-माल की क्षति अधिक नही हुई परंतु उस दैवीय-आपदा के चलते यात्रा बिल्कुल बन्द हो गयी है. भगवान बद्री विशाल की यात्रा पर ही यहाँ की अर्थव्यस्था टिकी हुई है. यात्रा बन्द है तो सब कुछ थम-सा गया है. यहाँ की दुकानों मे ताले लगे हुए है और जो दुकाने खुली भी हैं उन दुकानों पर ग्राहक कोई नही है. परिणामत: यहाँ के लोग बेरोजगार हो गये है. कभी चहल-पहल का केन्द्र रहने वाले पंच-शिला, तप्तकुंड, श्री आदिकेदारेश्वर मन्दिर सहित सब बिल्कुल वीरान पडे थे. बाज़ारों का सूनापन अपना अस्तित्व खोने की कगार पर था. बद्रीविशाल का बस व टैक्सी स्टैंड तो गाडियों से भरे थे पर उन जंग खाये वाहनों के देखकर लग रहा था कि वे सभी वाहन अपने वाहन चालकों की प्रतीक्षा कर रहे हैं. कैसेटो मे बजती हुई भजनों से गुंजायमान सडके बिल्कुल शांत थी. अलकनन्दा अपनी तेज वेग के चलते कल-कल की आवाज से बद्रीविशाल की प्रांगण मे पसरी शांति को भंग करने की प्रयास कर रही थी. बद्रीविशाल में चारों ओर पसरे सन्नाटे के चलते समय थम-सा गया था. एक तरफ काले-काले मेघ अपनी घनघोर गर्जना से वहाँ बचे हुए लोगों को भयभीत कर रहे थे तो दूसरी तरफ बादलों के मध्य चमकती हुई बिजली अपनी इठलाहट भरी चकाचौंध से हमारी बेबसी का हमें अहसास करा रही थी. बादलों और घनघोर कुहरे के गठबन्धन ने सूर्य को छिपा कर अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर रहे थे. प्रकृति के इस रौद्ररूप से डरकर मैं भगवान बद्रीविशाल के प्रांगण मे चला गया. वहाँ जाकर मैने वहाँ के सहायक पुजारी जी से भगवान आदिकेदारेश्वर के बारें में जानना चाहा. वहाँ के सहायक पुजारी जी ने मुझे भगवान आदिकेदारेश्वर के बारे एक कहानी सुनाई कि एक बार भगवान विष्णु के मन को भगवान शिव-पार्वती का यह स्थान भा गया. उस स्थान को हथियाने हेतु भगवान विष्णु ने एक छल किया. लीलाढूंगी के पास एक अबोध बच्चे का रूप बनाकर जोर – जोर से रोने लगे. भोले बाबा माँ पार्वती के संग कही जा रहे थे, रास्ते में माँ पार्वती ने भोले बाबा से उस रोते हुए बच्चे के बारे में कहा पर भोले बाबा ने उस रोते हुए बच्चे की तरफ ध्यान न देने की बात कही परंतु माँ का हृदय द्रवित हो उठा और वह भोले बाबा से ज़िदकर उस रोते हुए अबोध बच्चे की तरफ गयी और उस बच्चे को गोद में उठाकर अपने आवास (वर्तमान समय का श्री बद्रीनाथ धाम) मे ले जाकर सुला कर भोले बाबा के साथ घूमने के लिये चली गयी. वापस आकर देखा तो उस स्थान के कक्ष का कमरा अन्दर से बन्द मिला. भोले बाबा भगवान विष्णु के इस छल को समझ चुके थे. परिणामत: माँ पार्वती सहित उस स्थान को छोडकर वर्तमान समय के श्री केदारनाथ जाकर अपनी साधना का स्थान बना लिया. तत्पश्चात भगवान बद्रीविशाल की आरती शुरू हो गयी. आरती-पश्चात मैने अगले दिन भारत के अंतिम गाँव माणा जाने का निश्चय किया.
माणा गाँव
माणा गाँव के पूर्व प्रधान लक्ष्मण सिँह राउत 16 जून को हुई तबाही के मंजर को आज भी याद करके सिहर उठते है. अलकनन्दा के उफान को देखकर एक बार तो उन्हे लगा कि शायद ही अब उनका गाँव बचे, गाँव के सभी लोग अपने-अपने घरों से निकल कर उपर की तरफ भाग कर अपनी-अपनी जान बचाई थी, व्यास गुफा और गणेश गुफा में सैंकडों लोग रात-दिन रूके रहे. तीन दिन बाद जब बारिश कम हुई थी तब कही वो लोग नीचे अपने-अपने घरों में उतरे. माणा गाँव के बच जाने की घटना को श्री सिँह ईश्वरीय चमत्कार ही मानते है. गाँव के सभी लोग तीन बाद अपने-अपने घर वापस तो लौट आये परंतु अब उनका संपर्क केशव प्रयाग के दूसरी तरफ से कट गया था. ध्यान देने योग्य है कि केशव प्रयाग के एक तरफ माणा गाँव है और दूसरी तरफ गाँव वालो के खेत और पालतू पशु रहते हैं. तीन दिनों की मूसलाधार बारिश के चलते नदी के बढे हुए जलस्तर से दोनों ओर को जोडने वाला पुल बह गया था. इसलिये उनका संपर्क कट गया था. यही हालत बद्रीनाथ से जोडने वाले पुल की भी थी. उन तीन दिनों मे इतनी अधिक बारिश हुई, जिससे भू-स्खलन की अधिकता से माणा गाँव को बद्रीनाथ से जोडने वाला पुल भी टूट गया था. स्थानीय लोगों की मदद से उन्होने येन-केन प्रकारेण पैदल आने-जाने हेतु संकरा रास्ता बना लिया था जिसके चलते उन गाँव वालों को तीन दिन बाद बद्रीनाथ के एक गैरसरकारी संस्था के स्थानीय लोगों द्वारा दिया गया खाना नसीब हुआ. उस गैर सरकारी संस्था के बारें में मेरे पूछने पर उन्होने बताया कि उस संस्था के एक आदमी श्री अशोक को मैं जानता हूँ. वो यही बद्रीनाथ धाम में रहते है और वो किसी संघ-परिवार से जुडे हैं, उन्होने यहाँ के सभी पुरोहितों को इकटठा कर वहाँ फसे लगभग 12,500 तीर्थयात्रियों को भोजन कराने की योजना की थी, उनका साथ श्री बद्रीनाथ धाम के सभी पुरोहितों ने भी दिया. श्री बद्रीनाथ धाम में धर्माधिकारी के पद पर नियुक्त श्री भुवन उनियाल ने वहाँ के स्थानीयों लोगो की मदद से वहाँ फँसे तीर्थयात्रियों को किसी प्रकार की असुविधा नही होने दी. आगे उन्होने हमे बताया कि आपदा के 16 दिन बाद प्रशासन द्वारा 200 परिवार वाले इस गाँव के मात्र 25 परिवारों को राशन दिया गया. जिसमें 5 किलो चावल, 5 किलो आटा और 2 लीटर केरोसिन तेल था. आपदा – उपरांत कई दिनों तक प्रशासन समेत इस क्षेत्र के कांग्रेस पार्टी के विधायक राजू भंडारी कभी नही आयें. बर्फ पडने के समय इस गाँव के लोग गोपेश्वर चले जाते हैं. साथ ही इन गाँव वालों का मुख्य व्यवसाय कृषि और पशुपालन है. ध्यान देने योग्य है कि उत्तराखंड - स्थित यह भारत का अंतिम गाँव हैं. इसमें लगभग 200 परिवार व लगभग 1000 लोग रहते हैं.
माणा गाँव से वापस आकर श्री बद्रीनाथ में तैनात पुलिस उप अधीक्षक सुजीत पवार से मिला और उस गाँव के बारें में चर्चा की. श्री पवार को मैंने बताया कि यदि शासन-प्रशासन समय पर नही सचेत हुआ तो भविष्य में माणा गाँव का अस्तित्व मिट सकता है क्योंकि सरस्वती नदी ने अपना रास्ता बदलना शूरू कर दिया है. पहले वह खेतों के तरफ से बहती थी पर अब नदी में इतना अधिक गाद इकट्ठा हो गया है कि उसने अपना रास्ता बदल कर माणा गाँव की तरफ से बहने लगी है. चूँकि नदी का बहाव बहुत तेज है इसलिये वह गाँव के नीचे की मिट्टी को काटना शूरू कर दिया हैं. उन्हे एक सुझाव देते हुए मैने उनसे निवेदन किया कि यदि सरस्वती नदी के गाद को निकालकर उस गाद से ही गाँव की तरफ एक नदी-तटबंध बना दिया जाय तो शायद माणा गाँव बच जायेगा. सरकार द्वारा आपदा-उपरांत राहत-बचाव के लिये खर्च की जाने वाली राशि को अगर आपदा-पूर्व ही उस राशि को खर्चकर अगर नदी-तटबंध बना दिया जाय तो वहाँ के स्थानीय लोगों को रोजगार भी मिल जायेगा और उस गाँव के सुरक्षा भी हो सकेगी. मेरे इस सुझाव का समर्थन कर नीतिगत फैसला होने की बात कहते हुए उन्होने प्रशासन से चर्चा करने बात कही. साथ ही हमें बताया कि नदी से गाद निकालने हेतु परम्परागत तरीके पर नीतियाँ बहुत कठिन है, इसलिये स्थानीय लोग नदी से गाद नही निकाल पाते है. परिणामत: कई वर्षों में नदी में गाद की अधिकता से नदी अपना रास्ता बदल लेती हैं.
सेना-प्रशासन
उत्तराखंड में आयी प्राकृतिक आपदा से हुई तबाही के चलते राहत-बचाव के कार्य में आई.टी.बी.पी के जवानों की जितनी अधिक तारीफ की जाय वह कम है. आई.टी.बी.पी के एक अफसर श्री राजेश नैंनवाल ने मुझे बताया कि उनके नेतृत्व में आई.टी.बी.पी के दल ने गौरीकुंड जाने का तय किया परंतु उनके दल को वहाँ ले जाने हेतु कोई भी हेलीकाप्टर का पायलट तैयार नही हो रहा था. बहुत प्रयास करने पर वायुसेना के एक पायलट ने उनके दल को सशर्त गौरीकुंड ले जाने के लिये तैयार हुआ. श्री नैनवाल ने वायुसेना के उस पायलट के बात को मान लिया. वह भीड डरी-सहमी और भूख से बौखला चुकी थी इसलिये वायुसेना के उस पायलट को डर था कि कहीं उस भीड के कुछ लोग हेलीकाप्टर को नीचे से पकडकर लटक न जाय. परंतु उस पायलट की सूझबूझ और उसके दिशा- निर्देशानुसार गौरीकुंड में रस्सी के सहारे आई.टी.बी.पी के जवान नीचे उतरकर वहाँ मौज़ूद भीड को काबू में करने हेतु प्रयास शुरू किया. वायुसेना का वह हेलीकाप्टर आई.टी.बी.पी के जवानो को गौरीकुंड मे उतारकर चला गया. श्री नैनवाल ने बताया कि वह मंजर रूह कँपा देने वाला बडा भयावह था. चारों तरफ लाशें ही लाशें बिखरी हुई थी. लोग अपनो के लिये बिलखते हुए खुद अपने जीने की आस छोड चुके थे. परंतु ज्योहि उन लोगों ने आई.टी.बी.पी के जवानों को अपने मध्य पाया उन्हे कुछ जीने का हौसला मिला. आई.टी.बी.पी के जवानों के समझाने-बुझाने पर वहाँ उपस्थित लोगों ने आई.टी.बी.पी की के टीम के साथ मिलकर उस स्थान पर एक हेलीपैड बनाने का काम शुरू किया और एक टीम पैदल-रास्ता बनाने में जुट गयी. उस भीड के अथक सहयोग से आई.टी.बी.पी के जवानों को हेलीपैड और पैदल रास्ता बनाने में सफलता मिल गयी. तत्पश्चात उस भीड से संपर्क स्थापित हो पाया और उस भीड को गौरीकुंड से निकालने का काम शुरू हुआ. सेना-प्रशासन का आपस में समन्वय की कमी के चलते राहत-बचाव कार्य मे बहुत दिक्कत आ रही थी परंतु वहाँ फँसे हुए लोगो के आत्मबल और संयम ने श्री नैनवाल की टीम को महत्वपूर्ण योगदान दिया. नम आँखों से श्री नैनवाल ने मुझे बताया कि इस प्राकृतिक-आपदा से राह्त-बचाव हेतु जुटे वायुसेना के एक हेलीकाप्टर के दुर्घटनाग्रस्त में आई.टी.बी.पी के कुछ जवान भी शहीद हो गये जो उनके साथ गौरीकुंड जाने वाले दल में शामिल थे.
उसके बाद श्री सुजीत पवार जी ने मुझे बताया कि पहाडी क्षेत्र होने के बावजूद वर्तमान समय में भी प्रशासन के पास मात्र एक-दो हेलीकाप्टर ही है. जिसके चलते राहत-बचाव का कार्य समय पर पुरजोर तरीके से करने में बहुत दिक्कत आयी. आये दिन लूट्पाट की जो खबरे मिल रही है उसका प्रमुख कारण यह है कि सेना ने पुलिस-प्रशासन को उस क्षेत्र में जाने ही नही दे रही जिसके चलते लूट्पाट की ये खबरे आ रही है. लूट्पाट को रोकना तो पुलिस-प्रशासन का काम है पर सेना ने उन्हे वहाँ जाने नही दिया इसलिये पुलिस-प्रशासन असहाय है और मौन साधे हुए है. परंतु पुलिस-प्रशासन अपने तरीके से इस संकट की घडी में देशवासियों के साथ खडा रहेगा.
बी.आर.ओ.
सडक-रास्ते से बद्रीनाथ जाते हुए रूद्रप्रयाग से ही मुझे भू-स्खलन दिखने लगे थे. परिणामत: सडके पूर्णत: क्षतिग्रस्त हो चुकी थी और दोनो तरफ का यातायात ठप था. बी.आर.ओ के जवान अपनी जान ज़ोखिम में डालकर सडक-मार्ग को त्वरित खोलने का प्रयास कर रहे थे. येन-केन-प्रकारेण भू-स्खलन से ध्वस्त हुई सडकों को पारकर मैं जोशीमठ और फिर बद्रीनाथ पहुँच गया था. बद्रीनाथ धाम से 44 किमी. नीचे जोशीमठ तक वापस मैंने सडक-मार्ग से आने का तय किया. हनुमान चट्टी तक तो भू-स्खलनों से अवरुद्ध सडकों को पारकर मैं पहुँच गया परंतु उसके आगे जाने हेतु अब सडक ही नही थी. आगे का रास्ता पहाडों पर चढकर पार करना था. रास्ते में मिलते लोगो को रास्ता पार करवाते, गिरते-पडते, फिसलते हुए मै लामबगढ के समीप पहुँच गया. सामने अलकनन्दा का रौद्ररूप देखकर मैं भयभीत हो गया था. अलकनन्दा पर लोहे का पुल बना था पर अलकनन्दा के हिलोरों के चलते मै उस पुल पर से भी अलकनन्दा को पार नही कर पा रहा था. उस तरफ खडे बी.आर.ओ के जवान मेरा हौसला बढाने की नाकाम कोशिश कर रहे थे. अंतत: बी.आर.ओ का एक जवान मुझे लेने इस तरफ आया तब जाकर मैने चैन की साँस ली. उस जवान का हाथ पकडे मैने अलकनन्दा पर बने पुल से जाने लगा. ज्योहि मैं पुल के बीचोबीच पहुँचा सहसा मेरी नजर उफनती हुई अलकनन्दा पर पडी और मैं बेसुध – सा हो गया. उस जवान ने मुझे अपनी गोद में उठाकर अलकनन्दा को पार करवा दिया और अपने एक अधिकारी श्री वेल राज टी के पास मुझे ले गया. श्री राज टी ने मुझे पानी पिलाया तब जाकर मेरी जान में जान आयी. थोडी देर पश्चात मैने श्री राज टी सी बात करना आरंभ किया. उन्होने अलकनन्दा पर बने लोहे के उस पुल के बारें बताया कि चंडीगढ से इस पुल को मंगाकर गोविन्दघाट तक पहुँचा दिया गया था. उसके बाद मात्र दो दिनों के भीतर बी.आर.ओ के जवानो ने अपने कंधे पार लादकर इस भारीभरकम लोहे के कल-पुर्जों को जोडकर बना दिया गया. उन्होने मुझे बताया कि इस पुल के बनने से पहले सेना अलकनन्दा के दूसरी तरफ फँसे हुए लोगों को रस्सी के सहारे एक-एक लोगों को खीचकर निकाल रही थी. परंतु इस पुल के निर्मित हो जाने से लगभग 5000 से अधिक लोगों को अलकनन्दा पार करवाया गया. उन सबसे विदा लेकर उसके बाद मैं आगे की तरफ बढने लगा. रास्ते में मैने देखा कि जे.पी का एक पन-बिजली सयंत्र पूरा तबाह हो गया था, जिससे उस कंपनी के करोडों रूपये का नुकसान हो गया था. तत्पश्चात मैं लामबगढ गाँव, जो कि पूरी तरह तबाह हो गया था, पहुँचा. घंटो पैदल चलते हुए पीपलकोटि पहुँचा पर अब गोविन्द घाट जाने के लिये फिर से पहाडी चढना पडा. थकान के मारे मेरी टांग़े अब नही उठ रही थी कि सहसा मैने कुछ दूर पर देखा कि कुछ महिलायें रस्सी से बाँधे पीठ पर एक – एक बोरा लादे आ रही थी. उनकी हिम्मत को देखकर मेरे अन्दर एक ऊर्जा का संचार हुआ और मैने तेज गति से अपने कदम आगे की तरफ बढा दिये. कुछ देर बाद गोविन्द घाट का सडक पर गडा हुआ एक साईन बोर्ड देखकर मैने राहत की साँस ली. थोडी दूर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का बैनर लगे एक ट्रक को देखा. कुछ लोग उस ट्रक से कुछ समान उतार रहे थे. मुझे समझते हुए देर न लगी कि बोरा लादे जिन महिलाओं को मैने रास्ते में देखा था वे इस ट्रक से राहत-सामग्री ले जा रही थी. जब राहत-सामग्री उस ट्रक से उतर गया और गाँव वालों में बँट गया तो उस ट्रक-ड्राईवर से मैने जोशीमठ तक ले जाने के लिये निवेदन किया. उस भले मानुष ने मेरा निवेदन स्वीकार कर लिया और आगे की तरफ जगह न होने के कारण मुझे ट्रक के पिछले हिस्से पर बैठने के लिये कहा. मरता क्या न करता, और मै उस ट्रक से जोशीमठ तक ठिठुरते हुए पहुँच गया.
विकास की अंधी दौड
उत्तराखंड घूमने के पश्चात मुझे लगा कि पिछले दिनों उत्तराखंड में जो प्राकृतिक आपदा आयी उसके लिये मनुष्य और उसकी अति मह्त्वकांक्षा ही जिम्मेदार है. कारण बहुत साफ है कि हमने अपनी निजी सुख-सुविधा और विलासिता के चलते प्रकृति का बडे पैमाने पर दोहन शूरू कर दिया है. जोशीमठ के एक उदाहरण से हम समझने का प्रयास करते है. जोशीमठ के ऊपर औली नामक एक जगह है. वहाँ पर एनटीपीसी लगभग 520 मेगावाट का एक पन-बिजली संयंत्र लगा रही है. परिणामत: औली से लेकर जोशीमठ तक के नीचे से होते हुए विष्णुगाड-धौली परियोजना के तहत एक सुरंग का निर्माण हो रहा है. इसके फलस्वरूप घनी आबादी वाले जोशीमठ का अस्तित्व ही खतरे मे पडने जा रहा है. लोगो के घरों मे दरारें पड चुकी है जिसके चलते जब भी तेज बारिश होती है लोग डरकर सहम जाते है. वहाँ के लोगों ने कई बार विष्णुगाड-धौली परियोजना के विरोध में असफल धरना-प्रदर्शन भी किया परंतु उनकी आवाज़ शासन-प्रशासन के कानों तक नही पहुँची. इसी प्रकार पूरे उत्तराखंड में ही नदियों के पानी को सुरंग में डालकर व पहाडों को खोदकर पन-बिजली – उत्पादन हेतु बिजली के अनेक संयंत्र लगाये जा रहें है. जिससे उत्तराखंड में पारिस्थितिकीय संकट खडा हो गया है. देवप्रयाग में भगीरथी और अलकनन्दा के संगम से गंगा बनती है. परंतु गंगा का हरिद्वार तक नैसर्गिक प्रवाह अब देखना बहुत मुश्किल-सा हो गया है. गंगोत्री से निकल रही भागीरथी नदी के प्रवाह को धरासू तक एक सुरंग में डालने से धरती पर अब वह लुप्त-सी हो गयी है. इस क्षेत्र में लगभग 16 पन-बिजली परियोजनायें बन रही है. कमोबेश यही हालत अलकनन्दा का भी है. परिणामत: हरिद्वार तक गंगा एक नाले की शक्ल में हमे दिखायी पडती है. सरकार की कुमाऊँ के बागेश्वर जिले में भी सरयू नदी को सुरंग में डालने की योजना लगभग पूरी हो चुकी है. एक आँकडे के अनुसार उत्तराखंड जैसे छोटे से राज्य में छोटी-बडी मिलाकर लगभग 558 पन-बिजली परियोजनायें प्रस्तावित हैं. अगर इन सभी परियोजनाओं पर काम शुरू हो गया तो वहाँ के लोगों का बडे पैमाने पर विस्थापन होना तय है, पर वे लोग विस्थापित होकर कहाँ जायेंगे, इसका उत्तर किसी के पास नही है. हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि उत्तराखंड में इतने अधिक बिजली संयंत्र बनने के बाद भी बिजली और पानी का संकट जस का तस ही बना हुआ है. विश्व के कई पर्यावरणविद सरकार को कई बार सचेत कर चुके है कि हिमालय का पर्यावरण बहुत अधिक दबाव नही झेल सकता परंतु सरकार के कानों पर जूँ तक नही रेंगती. पन-बिजली परियोजनाओं के साथ-साथ अल्मोडा और पिथौरागढ में मैग्नेसाईट व खडिया मिट्टी का भी खनन अवैज्ञानिक तरीके से बखूबी हो रहा है. जिसके चलते हिमालय खोखला होता जा रहा है परिणामत: भू-स्खलन में लगातार वृद्धि हो रही है. नैनीताल में पेडों की अंधाधुंध कटाई के चलते मिट्टी का कटाव बढता ही जा रहा है. ऐसी विषम परिस्थिति में सरकार को विकास हेतु एक वैकल्पिक ठोस नीति चाहिये जो पारिस्थिति-अनकूल हो. ग्लोबलवार्मिंग के चलते भी हिमालय के तापमान मे तेजी से परिवर्तन हो रहा है, जिसे भारत को विश्व समुदाय के समक्ष रखना चाहिये. ग्लोबलवार्मिंग के चलते हिमालय के ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे है. राजेन्द्र पचौरी-रिपोर्ट और पर्यावरण को अब आपस में उलझने की बजाय अब कुछ ठोस कदम उठाने चाहिये. मनुष्यों के स्वार्थों के चलते कहीं ऐसा न हो कि उत्तराखंड की प्राकृतिक संपदा ही उसके लिये एक अभिशाप बन जाय.
करोडों भारतीयों की आस्था को ध्यान में रखते हुए सरकार को केदारनाथ और बद्रीनाथ में आयी आपदा से सबक लेना चाहिये. देश की एकता और अखंडता के प्रतीक चार धामों (बद्रीनाथ, रामेश्वरम, द्वारका और जगन्नाथ पुरी) की रक्षा हेतु सरकार को उनकी जलवायु और पर्यावरण को ध्यान मे रखते हुए ठोस कदम उठाने चाहिये. देश को चारों धामों को सुरक्षा और व्यवस्था की लिहाज़ से केन्द्र-स्तर पर एक समिति बनाकर चारों धामो के लिये एक-एक उपसमिति का गठन करना चाहिये. इन उपसमितियों को मन्दिर के चाढावों का खर्च करने की स्वतंत्रता होनी चाहिये. साथ ही उन उपसमितियों का गठन सत्ता-प्रभाव से मुक्त होना चाहिये. इन उपसमितियों के सदस्यों का चुनाव देश के संत-समाज से हो जिसमें कि कुछ उस क्षेत्र के जानकार हों, कुछ स्थानीय हो, कुछ धर्माचार्य हो, कुछ पर्यावरण विशेषज्ञ हो, कुछ उद्योगपति हो, कुछ शिक्षाविद व सबसे कम प्रतिशत में प्रशासन समेत देश की सज्जन शक्ति को शामिल किया जाना चाहिये.
संघ-परिवार
विश्व हिन्दू परिषद, इन्द्रप्रस्थ मीडिया की तरफ से दिल्ली से मैं देहरादून पहुँचा था. देश के वरिष्ठ पत्रकार श्री रामबहादुर राय, उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री श्री रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ व विश्व हिन्दू परिषद के श्री चम्पत राय के सह्योग से मैने एक ज्ञापन तैयार कर उत्तराखंड के महामहिम राज्यपाल, मुख्यमंत्री, नेता प्रतिपक्ष समेत केदारनाथ-बद्रीनाथ मन्दिर कमेटी को दिया. उस ज्ञापन में कुल पाँच मांगे रखी गई थी : श्री बद्रीनाथ धाम तथा पवित्र ज्योतिर्लिंग श्री केदारनाथ की मन्दिर-समिति “बद्रीनाथ-केदारनाथ मन्दिर समिति” से उत्तराखंड के महामहिम राज्यपाल निवेदन करें कि उत्तराखंड की प्राकृतिक आपदा के चलते तबाह हुए केदारनाथ के आस-पास के गाँवों को गोद लेकर उनके पुनर्वास की समुचित व्यवस्था में अपना अमूल्य यथायोग्य सहयोग करे, उत्तराखंड में आई प्राकृतिक आपदा से प्रभावित गाँवों को पूरे वर्ष भर उनकी बुनियादी सुविधाओं (रोटी,कपडा,मकान,शिक्षा और स्वास्थ्य) की चिंता सरकार करें, उत्तराखंड में आई प्राकृतिक आपदा से प्रभावित गाँवों के निवासियों को यथाशीघ्र रोजगार देने की व्यवस्था सरकार सुनिश्चित करें, इस त्रासदी से सबक लेते हुए सरकार यह सुनिश्चित करें कि विकास के नाम पर प्रकृति से छेडछाड कम से कम हो. साथ ही तीर्थाटन को पर्यटन बनाने से रोका जाय, “श्री बद्रीनाथ-केदारनाथ मन्दिर समिति” के वर्तमान के 11 सदस्यीय की समिति की संख्या को बढाकर संत-समाज़ के प्रतिनिधियों को इस समिति में सम्मिलित कर इस संख्या को कम से कम 21 सदस्यीय कर दिया जाय. इससे संत-समाज़ व देश में एक सकारात्मक सन्देश जायेगा और इस मन्दिर-कमेटी में सरकार के साथ-साथ संत-समाज का भी सहयोग हो जायेगा जिससे मन्दिर-कमेटी की सक्रियता और प्रतिष्ठा सर्वमान्य हो जायेगी. विश्व हिन्दू परिषद, उत्तराखंड के इन सभी मांगो को उत्तराखंड के महामहिम राज्यपाल ने सहज ही स्वीकार कर लिया व नेता प्रतिपक्ष मन्दिर कमेटी संबंधी विषय़ को विधान सभा में उठाने के लिये हामी भर दी और बद्रीनाथ-केदारनाथ मन्दिर समिति ने प्राकृतिक-आपदा की भेँट चढे गाँवों की पुनर्स्थपना हेतु 2 करोड रूपये की राशि स्वीकार की. अंत में मैं देहरादून के संघ – कार्यालय गया. वहाँ मै देहरादून के प्रांत प्रचारक व वहाँ के प्रांतकार्यवाह से देहरादून में आयी प्राकृतिक-आपदा के बारें जानकारी लेते हुए संघ-परिवार की तरफ से चल रहे राहत-बचाव के बारें में जाना. उन्होने मुझे बताया कि केदारनाथ में सेना के जवानों के साथ हेलीपैड बनाने वाले तीन स्वयंसेवक सर्वश्री योगेन्द्र राणा, भूपेन्द्र सिँह और बृजमोहन सिँह बिष्ट थे. आगे उन्होने मुझे बताया कि अबतक लगभग 200 से अधिक ट्रक राहत – सामग्री पहुँचाई जा चुकी है व लगभग 5000 से अधिक संघ के स्वयंसेवक राहत-बचाव हेतु दिन-रात जुटे हुए है. माँ भारती की सेवा में लगे हुए संघ के स्वयंसेवकों बारें मे जानकर मन को बहुत संतुष्टि मिली. -राजीव गुप्ता, 09811558925
उस दिन मन्दिर के प्रांगण में मात्र 10-20 लोग ही नजर आ रहे थे
जून मास के मध्य उत्तराखंड में आयी प्राकृतिक आपदा के पश्चात 1 जुलाई को देहरादून से मैंने श्री बद्रीनाथ जाने का कठोर निर्णय लिया. येन-केन प्रकारेण मैं श्री बद्रीनाथ पहुँचने में कामयाब हो गया. तीन दिन और दो रात मै श्री बद्रीनाथ धाम में ही रहा. इस दौरान श्री बद्रीनाथ धाम के दर्शन के साथ-साथ वहाँ के स्थानीय लोगो सहित प्रशासन, सेना, व आई.टी.बी.पी के लोगों से भी मिलना हुआ और उस दैवीय-आपदा के बारे मे चर्चा हुई. एक दिन भगवान बद्री विशाल के धर्माधिकारी श्री भुवन उनियाल मुझे घुमाने ऋषिगंगा की तरफ ले गये. रास्ते में मैने देखा कि कुछ लोग ऋषिगंगा के किनारे ही घर बनाने में लगे हैं. पूछने पर पता चला कि उस दैवीय-आपदा के चलते ये घर बह गये थे. बिल्डिग बायलाज की धज्जियाँ उडाकर बिल्कुल नदी के किनारे उन्हे घर बनाता हुआ देखकर मैं आश्चर्यचकित हो गया. क्योंकि मुझे ऐसा लग रहा था कि 10 दिन पहले आयी प्राकृतिक आपदा से भी लोगों ने कोई सबक नही लिया. हलाँकि मैने उन लोगों से बात करने की कोशिश किया था पर सफल नही हो पाया. फिर मैं अपने मन में ही बुदबुदाते हुए आगे चला गया. सायंकाल को श्री बद्रीनाथ जी की आरति के नियत समय से कुछ पहले मैं मन्दिर के प्रांगण में पहुँच गया. भारत के करोडों लोग अपनी श्रद्धा के चलते भगवान बद्रीविशाल के दर्शन हेतु आते है. भगवान बद्रीविशाल के कपाट वर्ष में छ: महीने के लिये ही खुलते है. परिणामत: इन दिनों श्री बद्री विशाल के दर्शन हेतु बडी संख्या मे लोग आते है. परंतु उस दिन मुझे मन्दिर के प्रांगण में मात्र 10-20 लोग ही नजर आ रहे थे.
भगवान बद्री विशाल के दर्शन-पश्चात मै वहाँ उपस्थित सहायक-रावल के समीप बैठ गया और उनसे तीन दिन की दैवीय-आपदा पर चर्चा की. उन्होने बताया कि उस दिन मन्दिर के प्रांगण मे ही लोग आ गये थे और भगवान बद्री विशाल से प्रार्थना कर रहे थे. सभी लोग डरे और सहमे हुए थे. भगवान बद्री विशाल की कृपा से तो यहाँ जान-माल की क्षति अधिक नही हुई परंतु उस दैवीय-आपदा के चलते यात्रा बिल्कुल बन्द हो गयी है. भगवान बद्री विशाल की यात्रा पर ही यहाँ की अर्थव्यस्था टिकी हुई है. यात्रा बन्द है तो सब कुछ थम-सा गया है. यहाँ की दुकानों मे ताले लगे हुए है और जो दुकाने खुली भी हैं उन दुकानों पर ग्राहक कोई नही है. परिणामत: यहाँ के लोग बेरोजगार हो गये है. कभी चहल-पहल का केन्द्र रहने वाले पंच-शिला, तप्तकुंड, श्री आदिकेदारेश्वर मन्दिर सहित सब बिल्कुल वीरान पडे थे. बाज़ारों का सूनापन अपना अस्तित्व खोने की कगार पर था. बद्रीविशाल का बस व टैक्सी स्टैंड तो गाडियों से भरे थे पर उन जंग खाये वाहनों के देखकर लग रहा था कि वे सभी वाहन अपने वाहन चालकों की प्रतीक्षा कर रहे हैं. कैसेटो मे बजती हुई भजनों से गुंजायमान सडके बिल्कुल शांत थी. अलकनन्दा अपनी तेज वेग के चलते कल-कल की आवाज से बद्रीविशाल की प्रांगण मे पसरी शांति को भंग करने की प्रयास कर रही थी. बद्रीविशाल में चारों ओर पसरे सन्नाटे के चलते समय थम-सा गया था. एक तरफ काले-काले मेघ अपनी घनघोर गर्जना से वहाँ बचे हुए लोगों को भयभीत कर रहे थे तो दूसरी तरफ बादलों के मध्य चमकती हुई बिजली अपनी इठलाहट भरी चकाचौंध से हमारी बेबसी का हमें अहसास करा रही थी. बादलों और घनघोर कुहरे के गठबन्धन ने सूर्य को छिपा कर अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर रहे थे. प्रकृति के इस रौद्ररूप से डरकर मैं भगवान बद्रीविशाल के प्रांगण मे चला गया. वहाँ जाकर मैने वहाँ के सहायक पुजारी जी से भगवान आदिकेदारेश्वर के बारें में जानना चाहा. वहाँ के सहायक पुजारी जी ने मुझे भगवान आदिकेदारेश्वर के बारे एक कहानी सुनाई कि एक बार भगवान विष्णु के मन को भगवान शिव-पार्वती का यह स्थान भा गया. उस स्थान को हथियाने हेतु भगवान विष्णु ने एक छल किया. लीलाढूंगी के पास एक अबोध बच्चे का रूप बनाकर जोर – जोर से रोने लगे. भोले बाबा माँ पार्वती के संग कही जा रहे थे, रास्ते में माँ पार्वती ने भोले बाबा से उस रोते हुए बच्चे के बारे में कहा पर भोले बाबा ने उस रोते हुए बच्चे की तरफ ध्यान न देने की बात कही परंतु माँ का हृदय द्रवित हो उठा और वह भोले बाबा से ज़िदकर उस रोते हुए अबोध बच्चे की तरफ गयी और उस बच्चे को गोद में उठाकर अपने आवास (वर्तमान समय का श्री बद्रीनाथ धाम) मे ले जाकर सुला कर भोले बाबा के साथ घूमने के लिये चली गयी. वापस आकर देखा तो उस स्थान के कक्ष का कमरा अन्दर से बन्द मिला. भोले बाबा भगवान विष्णु के इस छल को समझ चुके थे. परिणामत: माँ पार्वती सहित उस स्थान को छोडकर वर्तमान समय के श्री केदारनाथ जाकर अपनी साधना का स्थान बना लिया. तत्पश्चात भगवान बद्रीविशाल की आरती शुरू हो गयी. आरती-पश्चात मैने अगले दिन भारत के अंतिम गाँव माणा जाने का निश्चय किया.
माणा गाँव
माणा गाँव के पूर्व प्रधान लक्ष्मण सिँह राउत 16 जून को हुई तबाही के मंजर को आज भी याद करके सिहर उठते है. अलकनन्दा के उफान को देखकर एक बार तो उन्हे लगा कि शायद ही अब उनका गाँव बचे, गाँव के सभी लोग अपने-अपने घरों से निकल कर उपर की तरफ भाग कर अपनी-अपनी जान बचाई थी, व्यास गुफा और गणेश गुफा में सैंकडों लोग रात-दिन रूके रहे. तीन दिन बाद जब बारिश कम हुई थी तब कही वो लोग नीचे अपने-अपने घरों में उतरे. माणा गाँव के बच जाने की घटना को श्री सिँह ईश्वरीय चमत्कार ही मानते है. गाँव के सभी लोग तीन बाद अपने-अपने घर वापस तो लौट आये परंतु अब उनका संपर्क केशव प्रयाग के दूसरी तरफ से कट गया था. ध्यान देने योग्य है कि केशव प्रयाग के एक तरफ माणा गाँव है और दूसरी तरफ गाँव वालो के खेत और पालतू पशु रहते हैं. तीन दिनों की मूसलाधार बारिश के चलते नदी के बढे हुए जलस्तर से दोनों ओर को जोडने वाला पुल बह गया था. इसलिये उनका संपर्क कट गया था. यही हालत बद्रीनाथ से जोडने वाले पुल की भी थी. उन तीन दिनों मे इतनी अधिक बारिश हुई, जिससे भू-स्खलन की अधिकता से माणा गाँव को बद्रीनाथ से जोडने वाला पुल भी टूट गया था. स्थानीय लोगों की मदद से उन्होने येन-केन प्रकारेण पैदल आने-जाने हेतु संकरा रास्ता बना लिया था जिसके चलते उन गाँव वालों को तीन दिन बाद बद्रीनाथ के एक गैरसरकारी संस्था के स्थानीय लोगों द्वारा दिया गया खाना नसीब हुआ. उस गैर सरकारी संस्था के बारें में मेरे पूछने पर उन्होने बताया कि उस संस्था के एक आदमी श्री अशोक को मैं जानता हूँ. वो यही बद्रीनाथ धाम में रहते है और वो किसी संघ-परिवार से जुडे हैं, उन्होने यहाँ के सभी पुरोहितों को इकटठा कर वहाँ फसे लगभग 12,500 तीर्थयात्रियों को भोजन कराने की योजना की थी, उनका साथ श्री बद्रीनाथ धाम के सभी पुरोहितों ने भी दिया. श्री बद्रीनाथ धाम में धर्माधिकारी के पद पर नियुक्त श्री भुवन उनियाल ने वहाँ के स्थानीयों लोगो की मदद से वहाँ फँसे तीर्थयात्रियों को किसी प्रकार की असुविधा नही होने दी. आगे उन्होने हमे बताया कि आपदा के 16 दिन बाद प्रशासन द्वारा 200 परिवार वाले इस गाँव के मात्र 25 परिवारों को राशन दिया गया. जिसमें 5 किलो चावल, 5 किलो आटा और 2 लीटर केरोसिन तेल था. आपदा – उपरांत कई दिनों तक प्रशासन समेत इस क्षेत्र के कांग्रेस पार्टी के विधायक राजू भंडारी कभी नही आयें. बर्फ पडने के समय इस गाँव के लोग गोपेश्वर चले जाते हैं. साथ ही इन गाँव वालों का मुख्य व्यवसाय कृषि और पशुपालन है. ध्यान देने योग्य है कि उत्तराखंड - स्थित यह भारत का अंतिम गाँव हैं. इसमें लगभग 200 परिवार व लगभग 1000 लोग रहते हैं.
माणा गाँव से वापस आकर श्री बद्रीनाथ में तैनात पुलिस उप अधीक्षक सुजीत पवार से मिला और उस गाँव के बारें में चर्चा की. श्री पवार को मैंने बताया कि यदि शासन-प्रशासन समय पर नही सचेत हुआ तो भविष्य में माणा गाँव का अस्तित्व मिट सकता है क्योंकि सरस्वती नदी ने अपना रास्ता बदलना शूरू कर दिया है. पहले वह खेतों के तरफ से बहती थी पर अब नदी में इतना अधिक गाद इकट्ठा हो गया है कि उसने अपना रास्ता बदल कर माणा गाँव की तरफ से बहने लगी है. चूँकि नदी का बहाव बहुत तेज है इसलिये वह गाँव के नीचे की मिट्टी को काटना शूरू कर दिया हैं. उन्हे एक सुझाव देते हुए मैने उनसे निवेदन किया कि यदि सरस्वती नदी के गाद को निकालकर उस गाद से ही गाँव की तरफ एक नदी-तटबंध बना दिया जाय तो शायद माणा गाँव बच जायेगा. सरकार द्वारा आपदा-उपरांत राहत-बचाव के लिये खर्च की जाने वाली राशि को अगर आपदा-पूर्व ही उस राशि को खर्चकर अगर नदी-तटबंध बना दिया जाय तो वहाँ के स्थानीय लोगों को रोजगार भी मिल जायेगा और उस गाँव के सुरक्षा भी हो सकेगी. मेरे इस सुझाव का समर्थन कर नीतिगत फैसला होने की बात कहते हुए उन्होने प्रशासन से चर्चा करने बात कही. साथ ही हमें बताया कि नदी से गाद निकालने हेतु परम्परागत तरीके पर नीतियाँ बहुत कठिन है, इसलिये स्थानीय लोग नदी से गाद नही निकाल पाते है. परिणामत: कई वर्षों में नदी में गाद की अधिकता से नदी अपना रास्ता बदल लेती हैं.
सेना-प्रशासन
उत्तराखंड में आयी प्राकृतिक आपदा से हुई तबाही के चलते राहत-बचाव के कार्य में आई.टी.बी.पी के जवानों की जितनी अधिक तारीफ की जाय वह कम है. आई.टी.बी.पी के एक अफसर श्री राजेश नैंनवाल ने मुझे बताया कि उनके नेतृत्व में आई.टी.बी.पी के दल ने गौरीकुंड जाने का तय किया परंतु उनके दल को वहाँ ले जाने हेतु कोई भी हेलीकाप्टर का पायलट तैयार नही हो रहा था. बहुत प्रयास करने पर वायुसेना के एक पायलट ने उनके दल को सशर्त गौरीकुंड ले जाने के लिये तैयार हुआ. श्री नैनवाल ने वायुसेना के उस पायलट के बात को मान लिया. वह भीड डरी-सहमी और भूख से बौखला चुकी थी इसलिये वायुसेना के उस पायलट को डर था कि कहीं उस भीड के कुछ लोग हेलीकाप्टर को नीचे से पकडकर लटक न जाय. परंतु उस पायलट की सूझबूझ और उसके दिशा- निर्देशानुसार गौरीकुंड में रस्सी के सहारे आई.टी.बी.पी के जवान नीचे उतरकर वहाँ मौज़ूद भीड को काबू में करने हेतु प्रयास शुरू किया. वायुसेना का वह हेलीकाप्टर आई.टी.बी.पी के जवानो को गौरीकुंड मे उतारकर चला गया. श्री नैनवाल ने बताया कि वह मंजर रूह कँपा देने वाला बडा भयावह था. चारों तरफ लाशें ही लाशें बिखरी हुई थी. लोग अपनो के लिये बिलखते हुए खुद अपने जीने की आस छोड चुके थे. परंतु ज्योहि उन लोगों ने आई.टी.बी.पी के जवानों को अपने मध्य पाया उन्हे कुछ जीने का हौसला मिला. आई.टी.बी.पी के जवानों के समझाने-बुझाने पर वहाँ उपस्थित लोगों ने आई.टी.बी.पी की के टीम के साथ मिलकर उस स्थान पर एक हेलीपैड बनाने का काम शुरू किया और एक टीम पैदल-रास्ता बनाने में जुट गयी. उस भीड के अथक सहयोग से आई.टी.बी.पी के जवानों को हेलीपैड और पैदल रास्ता बनाने में सफलता मिल गयी. तत्पश्चात उस भीड से संपर्क स्थापित हो पाया और उस भीड को गौरीकुंड से निकालने का काम शुरू हुआ. सेना-प्रशासन का आपस में समन्वय की कमी के चलते राहत-बचाव कार्य मे बहुत दिक्कत आ रही थी परंतु वहाँ फँसे हुए लोगो के आत्मबल और संयम ने श्री नैनवाल की टीम को महत्वपूर्ण योगदान दिया. नम आँखों से श्री नैनवाल ने मुझे बताया कि इस प्राकृतिक-आपदा से राह्त-बचाव हेतु जुटे वायुसेना के एक हेलीकाप्टर के दुर्घटनाग्रस्त में आई.टी.बी.पी के कुछ जवान भी शहीद हो गये जो उनके साथ गौरीकुंड जाने वाले दल में शामिल थे.
उसके बाद श्री सुजीत पवार जी ने मुझे बताया कि पहाडी क्षेत्र होने के बावजूद वर्तमान समय में भी प्रशासन के पास मात्र एक-दो हेलीकाप्टर ही है. जिसके चलते राहत-बचाव का कार्य समय पर पुरजोर तरीके से करने में बहुत दिक्कत आयी. आये दिन लूट्पाट की जो खबरे मिल रही है उसका प्रमुख कारण यह है कि सेना ने पुलिस-प्रशासन को उस क्षेत्र में जाने ही नही दे रही जिसके चलते लूट्पाट की ये खबरे आ रही है. लूट्पाट को रोकना तो पुलिस-प्रशासन का काम है पर सेना ने उन्हे वहाँ जाने नही दिया इसलिये पुलिस-प्रशासन असहाय है और मौन साधे हुए है. परंतु पुलिस-प्रशासन अपने तरीके से इस संकट की घडी में देशवासियों के साथ खडा रहेगा.
बी.आर.ओ.
सडक-रास्ते से बद्रीनाथ जाते हुए रूद्रप्रयाग से ही मुझे भू-स्खलन दिखने लगे थे. परिणामत: सडके पूर्णत: क्षतिग्रस्त हो चुकी थी और दोनो तरफ का यातायात ठप था. बी.आर.ओ के जवान अपनी जान ज़ोखिम में डालकर सडक-मार्ग को त्वरित खोलने का प्रयास कर रहे थे. येन-केन-प्रकारेण भू-स्खलन से ध्वस्त हुई सडकों को पारकर मैं जोशीमठ और फिर बद्रीनाथ पहुँच गया था. बद्रीनाथ धाम से 44 किमी. नीचे जोशीमठ तक वापस मैंने सडक-मार्ग से आने का तय किया. हनुमान चट्टी तक तो भू-स्खलनों से अवरुद्ध सडकों को पारकर मैं पहुँच गया परंतु उसके आगे जाने हेतु अब सडक ही नही थी. आगे का रास्ता पहाडों पर चढकर पार करना था. रास्ते में मिलते लोगो को रास्ता पार करवाते, गिरते-पडते, फिसलते हुए मै लामबगढ के समीप पहुँच गया. सामने अलकनन्दा का रौद्ररूप देखकर मैं भयभीत हो गया था. अलकनन्दा पर लोहे का पुल बना था पर अलकनन्दा के हिलोरों के चलते मै उस पुल पर से भी अलकनन्दा को पार नही कर पा रहा था. उस तरफ खडे बी.आर.ओ के जवान मेरा हौसला बढाने की नाकाम कोशिश कर रहे थे. अंतत: बी.आर.ओ का एक जवान मुझे लेने इस तरफ आया तब जाकर मैने चैन की साँस ली. उस जवान का हाथ पकडे मैने अलकनन्दा पर बने पुल से जाने लगा. ज्योहि मैं पुल के बीचोबीच पहुँचा सहसा मेरी नजर उफनती हुई अलकनन्दा पर पडी और मैं बेसुध – सा हो गया. उस जवान ने मुझे अपनी गोद में उठाकर अलकनन्दा को पार करवा दिया और अपने एक अधिकारी श्री वेल राज टी के पास मुझे ले गया. श्री राज टी ने मुझे पानी पिलाया तब जाकर मेरी जान में जान आयी. थोडी देर पश्चात मैने श्री राज टी सी बात करना आरंभ किया. उन्होने अलकनन्दा पर बने लोहे के उस पुल के बारें बताया कि चंडीगढ से इस पुल को मंगाकर गोविन्दघाट तक पहुँचा दिया गया था. उसके बाद मात्र दो दिनों के भीतर बी.आर.ओ के जवानो ने अपने कंधे पार लादकर इस भारीभरकम लोहे के कल-पुर्जों को जोडकर बना दिया गया. उन्होने मुझे बताया कि इस पुल के बनने से पहले सेना अलकनन्दा के दूसरी तरफ फँसे हुए लोगों को रस्सी के सहारे एक-एक लोगों को खीचकर निकाल रही थी. परंतु इस पुल के निर्मित हो जाने से लगभग 5000 से अधिक लोगों को अलकनन्दा पार करवाया गया. उन सबसे विदा लेकर उसके बाद मैं आगे की तरफ बढने लगा. रास्ते में मैने देखा कि जे.पी का एक पन-बिजली सयंत्र पूरा तबाह हो गया था, जिससे उस कंपनी के करोडों रूपये का नुकसान हो गया था. तत्पश्चात मैं लामबगढ गाँव, जो कि पूरी तरह तबाह हो गया था, पहुँचा. घंटो पैदल चलते हुए पीपलकोटि पहुँचा पर अब गोविन्द घाट जाने के लिये फिर से पहाडी चढना पडा. थकान के मारे मेरी टांग़े अब नही उठ रही थी कि सहसा मैने कुछ दूर पर देखा कि कुछ महिलायें रस्सी से बाँधे पीठ पर एक – एक बोरा लादे आ रही थी. उनकी हिम्मत को देखकर मेरे अन्दर एक ऊर्जा का संचार हुआ और मैने तेज गति से अपने कदम आगे की तरफ बढा दिये. कुछ देर बाद गोविन्द घाट का सडक पर गडा हुआ एक साईन बोर्ड देखकर मैने राहत की साँस ली. थोडी दूर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का बैनर लगे एक ट्रक को देखा. कुछ लोग उस ट्रक से कुछ समान उतार रहे थे. मुझे समझते हुए देर न लगी कि बोरा लादे जिन महिलाओं को मैने रास्ते में देखा था वे इस ट्रक से राहत-सामग्री ले जा रही थी. जब राहत-सामग्री उस ट्रक से उतर गया और गाँव वालों में बँट गया तो उस ट्रक-ड्राईवर से मैने जोशीमठ तक ले जाने के लिये निवेदन किया. उस भले मानुष ने मेरा निवेदन स्वीकार कर लिया और आगे की तरफ जगह न होने के कारण मुझे ट्रक के पिछले हिस्से पर बैठने के लिये कहा. मरता क्या न करता, और मै उस ट्रक से जोशीमठ तक ठिठुरते हुए पहुँच गया.
विकास की अंधी दौड
उत्तराखंड घूमने के पश्चात मुझे लगा कि पिछले दिनों उत्तराखंड में जो प्राकृतिक आपदा आयी उसके लिये मनुष्य और उसकी अति मह्त्वकांक्षा ही जिम्मेदार है. कारण बहुत साफ है कि हमने अपनी निजी सुख-सुविधा और विलासिता के चलते प्रकृति का बडे पैमाने पर दोहन शूरू कर दिया है. जोशीमठ के एक उदाहरण से हम समझने का प्रयास करते है. जोशीमठ के ऊपर औली नामक एक जगह है. वहाँ पर एनटीपीसी लगभग 520 मेगावाट का एक पन-बिजली संयंत्र लगा रही है. परिणामत: औली से लेकर जोशीमठ तक के नीचे से होते हुए विष्णुगाड-धौली परियोजना के तहत एक सुरंग का निर्माण हो रहा है. इसके फलस्वरूप घनी आबादी वाले जोशीमठ का अस्तित्व ही खतरे मे पडने जा रहा है. लोगो के घरों मे दरारें पड चुकी है जिसके चलते जब भी तेज बारिश होती है लोग डरकर सहम जाते है. वहाँ के लोगों ने कई बार विष्णुगाड-धौली परियोजना के विरोध में असफल धरना-प्रदर्शन भी किया परंतु उनकी आवाज़ शासन-प्रशासन के कानों तक नही पहुँची. इसी प्रकार पूरे उत्तराखंड में ही नदियों के पानी को सुरंग में डालकर व पहाडों को खोदकर पन-बिजली – उत्पादन हेतु बिजली के अनेक संयंत्र लगाये जा रहें है. जिससे उत्तराखंड में पारिस्थितिकीय संकट खडा हो गया है. देवप्रयाग में भगीरथी और अलकनन्दा के संगम से गंगा बनती है. परंतु गंगा का हरिद्वार तक नैसर्गिक प्रवाह अब देखना बहुत मुश्किल-सा हो गया है. गंगोत्री से निकल रही भागीरथी नदी के प्रवाह को धरासू तक एक सुरंग में डालने से धरती पर अब वह लुप्त-सी हो गयी है. इस क्षेत्र में लगभग 16 पन-बिजली परियोजनायें बन रही है. कमोबेश यही हालत अलकनन्दा का भी है. परिणामत: हरिद्वार तक गंगा एक नाले की शक्ल में हमे दिखायी पडती है. सरकार की कुमाऊँ के बागेश्वर जिले में भी सरयू नदी को सुरंग में डालने की योजना लगभग पूरी हो चुकी है. एक आँकडे के अनुसार उत्तराखंड जैसे छोटे से राज्य में छोटी-बडी मिलाकर लगभग 558 पन-बिजली परियोजनायें प्रस्तावित हैं. अगर इन सभी परियोजनाओं पर काम शुरू हो गया तो वहाँ के लोगों का बडे पैमाने पर विस्थापन होना तय है, पर वे लोग विस्थापित होकर कहाँ जायेंगे, इसका उत्तर किसी के पास नही है. हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि उत्तराखंड में इतने अधिक बिजली संयंत्र बनने के बाद भी बिजली और पानी का संकट जस का तस ही बना हुआ है. विश्व के कई पर्यावरणविद सरकार को कई बार सचेत कर चुके है कि हिमालय का पर्यावरण बहुत अधिक दबाव नही झेल सकता परंतु सरकार के कानों पर जूँ तक नही रेंगती. पन-बिजली परियोजनाओं के साथ-साथ अल्मोडा और पिथौरागढ में मैग्नेसाईट व खडिया मिट्टी का भी खनन अवैज्ञानिक तरीके से बखूबी हो रहा है. जिसके चलते हिमालय खोखला होता जा रहा है परिणामत: भू-स्खलन में लगातार वृद्धि हो रही है. नैनीताल में पेडों की अंधाधुंध कटाई के चलते मिट्टी का कटाव बढता ही जा रहा है. ऐसी विषम परिस्थिति में सरकार को विकास हेतु एक वैकल्पिक ठोस नीति चाहिये जो पारिस्थिति-अनकूल हो. ग्लोबलवार्मिंग के चलते भी हिमालय के तापमान मे तेजी से परिवर्तन हो रहा है, जिसे भारत को विश्व समुदाय के समक्ष रखना चाहिये. ग्लोबलवार्मिंग के चलते हिमालय के ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे है. राजेन्द्र पचौरी-रिपोर्ट और पर्यावरण को अब आपस में उलझने की बजाय अब कुछ ठोस कदम उठाने चाहिये. मनुष्यों के स्वार्थों के चलते कहीं ऐसा न हो कि उत्तराखंड की प्राकृतिक संपदा ही उसके लिये एक अभिशाप बन जाय.
करोडों भारतीयों की आस्था को ध्यान में रखते हुए सरकार को केदारनाथ और बद्रीनाथ में आयी आपदा से सबक लेना चाहिये. देश की एकता और अखंडता के प्रतीक चार धामों (बद्रीनाथ, रामेश्वरम, द्वारका और जगन्नाथ पुरी) की रक्षा हेतु सरकार को उनकी जलवायु और पर्यावरण को ध्यान मे रखते हुए ठोस कदम उठाने चाहिये. देश को चारों धामों को सुरक्षा और व्यवस्था की लिहाज़ से केन्द्र-स्तर पर एक समिति बनाकर चारों धामो के लिये एक-एक उपसमिति का गठन करना चाहिये. इन उपसमितियों को मन्दिर के चाढावों का खर्च करने की स्वतंत्रता होनी चाहिये. साथ ही उन उपसमितियों का गठन सत्ता-प्रभाव से मुक्त होना चाहिये. इन उपसमितियों के सदस्यों का चुनाव देश के संत-समाज से हो जिसमें कि कुछ उस क्षेत्र के जानकार हों, कुछ स्थानीय हो, कुछ धर्माचार्य हो, कुछ पर्यावरण विशेषज्ञ हो, कुछ उद्योगपति हो, कुछ शिक्षाविद व सबसे कम प्रतिशत में प्रशासन समेत देश की सज्जन शक्ति को शामिल किया जाना चाहिये.
संघ-परिवार
विश्व हिन्दू परिषद, इन्द्रप्रस्थ मीडिया की तरफ से दिल्ली से मैं देहरादून पहुँचा था. देश के वरिष्ठ पत्रकार श्री रामबहादुर राय, उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री श्री रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ व विश्व हिन्दू परिषद के श्री चम्पत राय के सह्योग से मैने एक ज्ञापन तैयार कर उत्तराखंड के महामहिम राज्यपाल, मुख्यमंत्री, नेता प्रतिपक्ष समेत केदारनाथ-बद्रीनाथ मन्दिर कमेटी को दिया. उस ज्ञापन में कुल पाँच मांगे रखी गई थी : श्री बद्रीनाथ धाम तथा पवित्र ज्योतिर्लिंग श्री केदारनाथ की मन्दिर-समिति “बद्रीनाथ-केदारनाथ मन्दिर समिति” से उत्तराखंड के महामहिम राज्यपाल निवेदन करें कि उत्तराखंड की प्राकृतिक आपदा के चलते तबाह हुए केदारनाथ के आस-पास के गाँवों को गोद लेकर उनके पुनर्वास की समुचित व्यवस्था में अपना अमूल्य यथायोग्य सहयोग करे, उत्तराखंड में आई प्राकृतिक आपदा से प्रभावित गाँवों को पूरे वर्ष भर उनकी बुनियादी सुविधाओं (रोटी,कपडा,मकान,शिक्षा और स्वास्थ्य) की चिंता सरकार करें, उत्तराखंड में आई प्राकृतिक आपदा से प्रभावित गाँवों के निवासियों को यथाशीघ्र रोजगार देने की व्यवस्था सरकार सुनिश्चित करें, इस त्रासदी से सबक लेते हुए सरकार यह सुनिश्चित करें कि विकास के नाम पर प्रकृति से छेडछाड कम से कम हो. साथ ही तीर्थाटन को पर्यटन बनाने से रोका जाय, “श्री बद्रीनाथ-केदारनाथ मन्दिर समिति” के वर्तमान के 11 सदस्यीय की समिति की संख्या को बढाकर संत-समाज़ के प्रतिनिधियों को इस समिति में सम्मिलित कर इस संख्या को कम से कम 21 सदस्यीय कर दिया जाय. इससे संत-समाज़ व देश में एक सकारात्मक सन्देश जायेगा और इस मन्दिर-कमेटी में सरकार के साथ-साथ संत-समाज का भी सहयोग हो जायेगा जिससे मन्दिर-कमेटी की सक्रियता और प्रतिष्ठा सर्वमान्य हो जायेगी. विश्व हिन्दू परिषद, उत्तराखंड के इन सभी मांगो को उत्तराखंड के महामहिम राज्यपाल ने सहज ही स्वीकार कर लिया व नेता प्रतिपक्ष मन्दिर कमेटी संबंधी विषय़ को विधान सभा में उठाने के लिये हामी भर दी और बद्रीनाथ-केदारनाथ मन्दिर समिति ने प्राकृतिक-आपदा की भेँट चढे गाँवों की पुनर्स्थपना हेतु 2 करोड रूपये की राशि स्वीकार की. अंत में मैं देहरादून के संघ – कार्यालय गया. वहाँ मै देहरादून के प्रांत प्रचारक व वहाँ के प्रांतकार्यवाह से देहरादून में आयी प्राकृतिक-आपदा के बारें जानकारी लेते हुए संघ-परिवार की तरफ से चल रहे राहत-बचाव के बारें में जाना. उन्होने मुझे बताया कि केदारनाथ में सेना के जवानों के साथ हेलीपैड बनाने वाले तीन स्वयंसेवक सर्वश्री योगेन्द्र राणा, भूपेन्द्र सिँह और बृजमोहन सिँह बिष्ट थे. आगे उन्होने मुझे बताया कि अबतक लगभग 200 से अधिक ट्रक राहत – सामग्री पहुँचाई जा चुकी है व लगभग 5000 से अधिक संघ के स्वयंसेवक राहत-बचाव हेतु दिन-रात जुटे हुए है. माँ भारती की सेवा में लगे हुए संघ के स्वयंसेवकों बारें मे जानकर मन को बहुत संतुष्टि मिली. -राजीव गुप्ता, 09811558925
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