Sunday, July 10, 2011

यादे // गीतिका बब्बर



यादे ......
गुज़र  चुके  मकामो  की  यादे ....
बीत  चुके  लम्हात  की  यादे 
वो  रंगीन  महफ़िलो  की  यादे ....
वो  उमस  भरी  तन्हाइओ  की  यादे  ....
यादे  दादी  माँ  की  अंतहीन  कहानी  की  और  
यादे  कॉलेज  के  पहले  दिन  मिली उस निशानी की ....  
यादे  उस  बेहद  अपने  के  पहले  स्पर्श   की ....
यादे महोब्बत के उस सतरंगी अर्श की....
यादे  फ़राज़ की शायरी की......
यादे मां से छिपा के राखी उस डायरी की...
 यादे... यादे... यादे ....
धुंधली   सी  यादे ...कुछ  शीशे  की  तरह  पारदर्शी  यादे ...
इन  यादो  को  याद  करने  की  मोहलत  आज  की  मसरूफ  जिंदगी  में  मुयस्सर  हो  जाए  तो  शायद  जिंदगी  भी  हैरतज़दा  होगी ...मगर  हिजाब  में  पल  रही  एक  हकीकत  ये  भी  है  कि बशर  
रेशमी  ख़ामोशी  में  लिपटी  अपने  अंतर्मन  की  तन्हाइओ  से  गुफ्तगू  करते  इन  यादो  की  खुराक  के  दम  पर  ही हयात  में  अपने वजूद  को  कायम  रखने  में  सफल  हुआ  है ...इन  यादो  के  तिलस्मी  जामे  को  ओड़  इंसान  कभी  हौंसले  बटोरता  है  तो  कभी  खुद  ही  इस  जामे  को  तार  तार  कर  खुद भी तार तार हो जाता है ...कभी  जा चुके लम्हों को  जी  भर  के  जी  लेने  की  मुस्सर्रत  से  मसरूर  हो  जाता  है  तो कभी  गुज़र  चुके  वक्त  के  कभी  न  लौटने  पर  मजबूर  हो  जाता  है ...मगर  ज़ेहन  के  संदूक  में बंद  इन  यादो पर  ज़िम्मेदारी  का  जंग  लगा  ताला  केवल  तन्हाई  की  चाबी  से  ही  खुल  पाता  है  और  फिर  फिजा  में  बिखरती  इन  यादो  की  खुशबु  से  महकती  साँसे  कुछ  पल  के  लिए  रूह  को  करार  और  उम्मीद  के  तोहफे  दे  फिर  वापिस  उसी  कफस  में  जा  कायाम  करती  है ...  
इन  यादो  में  दफ़न  कुछ राज़ ...कुछ  वादों  के  अध्मिटे  हर्फ़  तो  कुछ  कसमो  के  धुंधले   निशाँ ...
कुछ  आधी  अधूरी  वफाये ... तो  कुछ जलजले से उपजी  जफाये ...

वो  राहगुज़र  जो   कब  के  गुज़र  गए ...
वो  बेईमान  ख्वाब  जो  कब  के  सुधर  गए ...
सच में इन  यादो  में  एक  अरसे  बाद  भी  उस  कशमकश  की  लज्ज़त  महफूज़  है  और  मचलती  हुई  हसरते  मौजूद  है ...और  उन  हसरतो  की  कातिल  समझदारी  भी  यादो  में  आज  तक  बरकरार  है ...जो आज  भी  जिंदगी  की  अदा......

-                            ---गीतिका बब्बर 

गीतिका बब्बर हिंदी पंजाबी दोनों में ही  लिखती हैं....और दोनों में ही असर होता है....शायद ..इस लिए कि ये सब कुछ दिल से निकलता है. ग़ालिब साहिब ने कभी कहा था कि दिल से जो बात निकलती है असर रखती है, पर नहीं ताकत-ए-परवाज़ मगर रखई है...!   आपको ये रचना कैसी लगी अवश्त्य बताएं. आपके विचारों की इंतजार हमेशां की तरह इस बार भी बनी रहेगी.---रेक्टर कथूरिया 

1 comment:

Unknown said...

सबसे पहले तो कथूरिया आपका धन्यवाद आपने रचना से रूबरू कराया दरअसल पहली बार हमने ये रचना पढ़ी सच में भावो से परिपूरित एवम् मर्मस्पर्शी है ।