Sunday, July 26, 2015

पाखंडी जगेड़ा: नाम जपते जपते बन गया क्राईम किंग

आजकल फिर सरगर्म है अकाली नेताओं पर डोरे डालने के लिए  
लुधियाना:26 जुलाई 2015: (रेक्टर कथूरिया//पंजाब स्क्रीन):
कहते हैं कि ज़िंदगी जीने के दो ही तरीके हैं। या तो जो हासिल है उसे पसंद करना सीख लो और या जो पसंद है उसे हासिल करना सीख लो। धर्म मार्ग पर चलने वाले अक्सर भगवान की रज़ा में राज़ी रहना सीख लेते हैं और उनके चेहरे पर गहन शांति अ जाती है। धीरे धीरे उनके पास संसार के सारे सुख आ जाते हैं लेकिन वे इन सुखों से बहुत  ऊपर उठ चुके होते। हैं दूसरी तरह भगवान को न मानने वाले अति अति आत्मविश्वासी अपनी रज़ा के मुताबिक जीवन जीने लगते है। वे हर उस चीज़ को हासिल करना सीखते हैं जो उन्हें पसंद होती है। लोग दोनों क्षेत्रों में सफल देखे गए हैं और असफल भी। इन दोनो के इलावा एक तीसरी केटेगरी है बीच के लोगों की जो सारी उम्र चलते रहते हैं लेकिन पहुँचते कहीं नहीं। उनका एक कदम भगवान की तरफ और दूसरा कदम संसार की तरफ होता है। न वे धर्म के रहते हैं और न ही दुनिया के।  
कुछ ऐसा ही हुआ शमशेर सिंह जगेड़ा के साथ। अहमदगढ़ के साथ ही लगता है एक गाँव नानकपुर जगेड़ा। इसी गाँव का शमशेर सिंह अन्य युवकों की तरह बहुत कुछ बनना चाहता था, बहुत कुछ पाना चाहता था लेकिन उस सब कुछ के लिए जिस संघर्ष, प्रतिभा और  त्याग की ज़रूरत होती है वह सब उसमें नहीं आ पाया।  अख़बारों के लिए पत्रकारिता करने की थोड़ी बहुत कोशिश भी की लेकिन पत्रकार नहीं बन सका। नेता बनने की कोशिश की तो वहां भी नाकामी मिली। घर परिवार के लोग पहले से ही परेशान थे।  गाँव वाले भी निठल्ला समझने समझने लगे। आखिर खुली दाढ़ी सफेद पगड़ी और सफेद कुरता पायजामा  पहन कर जब "संत" शब्द साथ जुड़ा तो लोग आवभगत भी करने लगे। स्कूली शिक्षा में अनपढ़ लेकिन एक रिश्तेदार की मेहरबानी से पाठ करना भी सीख  गया।  पाठ की मर्यादा बनी रहती तो ठीक थी लेकिन निगाहें गुस्ताख़ होने लगीं और गाँव में बुरी नज़र किसी की भी बर्दाश्त नहीं होती सो इस तथाकथित धार्मिक को भी गाँव से निकलना पड़ा। 
गाँव से निकल कर भी सबक नहीं सीखा। अब दिमाग में नई  साज़िशें पनपने लगीं। ब्लयू स्टार आप्रेशन के बाद का ज़माना था। हर गली में आतंक का था। हर सांस सहमी हुयी थी। कभी इधर गोली चलती और कभी उधर बम फेंका जाता। उन दिनों लम्बी खुली दाढ़ी सफेद चोले वाले वाले "संतों" की अहमियत बहुत बढ़ गयी थी। सरकार को लगता था कि यह धार्मिक लोग "भटके हुए" युवकों को सही राह पर लाएंगे और बंदूक पकड़े युवक हर संत में से "भिंडरांवाले संत" को तलाश कर रहे थे। 
जो तथाकथित धार्मिक लोग सभी की अपेक्षा पर पूरा उतरने के प्रयासों में थे उनमें  शमशेर  जगेड़ा भी था। सरकार साथ भी और नौजवानों के साथ भी। वह बहुत ही संवेदनशील वक़्त था। उस नाज़ुक दौर में कुछ लोग सब कुछ गंवा कर हमेशां के लिए गुमनामी के अंधेरों में गुम  हो गए या मौत मुँह में चले गए और कुछ लोग मौके का फायदा उठाते उठाते जुर्म और "धर्म" दोनों क्षेत्रों में "किंग" बन गए। इन लोगों ने अपना हलवा मांडा बनाये रखने के लिए कितनों के घर उजाड़े,  किस किस को मौत के मूह में धकेला उन सब की कहानी बहुत लम्बी है लेकिन हम बताएंगे ज़रूर। इंतज़ार कीजिये हमारी अगली पोस्ट की। 

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