कहने को तो साँसें चलतीं हैं यात्रा-क्रम भी प्रतिपल बढ़ता जाता है।
मैंने तो देखा सौ बर्षों में मुश्किल से कोई एक दिवस जी पाता है।।
अचानक आज अपने जिन्दगी के दिनों का मोटे तौर पर हिसाब करने लगा। कहते हैं कि साहित्य वैयक्तिक अनुभूति की निर्वैयक्तिक प्रस्तुति है और आज उसी व्यक्तिगत अनुभव को आप सब के बीच बाँटने की कोशिश कर रहा हूँ।
एक इन्सान अमूमन लगभग सत्तर साल जीता है और साल के तीन सौ पैंसठ दिन के हिसाब से लगभग चौबीस हजार दिनों की आयु मानी जा सकती है। दिन रात मिलाकर चौबीस घण्टे होते हैं। अगर चौबीस घण्टे के समय का दैनिक हिसाब कर लिया जाय तो जीवन का हिसाब स्वतः लग जायगा यानि जितने घण्टे उतने हजार दिन।
एक इन्सान अमूमन लगभग सत्तर साल जीता है और साल के तीन सौ पैंसठ दिन के हिसाब से लगभग चौबीस हजार दिनों की आयु मानी जा सकती है। दिन रात मिलाकर चौबीस घण्टे होते हैं। अगर चौबीस घण्टे के समय का दैनिक हिसाब कर लिया जाय तो जीवन का हिसाब स्वतः लग जायगा यानि जितने घण्टे उतने हजार दिन।
हर चौबीस घण्टे में प्रायः हम सभी मोटे तौर पर आठ घण्टा सोते हैं और आठ घण्टा रोजी रोटी के लिये या तो काम करते हैं या भबिष्य में काम मिले, इसका प्रयास करते हैं अर्थात पढ़ाई, लिखाई, प्रशिक्षण इत्यादि। यह किसी भी आदमी के लिए अत्यावश्यक है। यानि चौबीस घण्टे में से सोलह घण्टे सिर्फ इन अनिवार्यताओं के लिए निकल गए जिस पर हमारा कोई वश नहीं होता। तो इस हिसाब से हमारे जीवन के लगभग सोलह हजार दिन सिर्फ इन दो बातों की भरपाई में ही बीत जाते हैं। अब बचे आठ हजार दिन। इस आठ हजार दिनों का भी मोटा मोटी हिसाब करने की जरूरत महसूस हुई।
यदि ध्यान से सोचा जाय तो उक्त दो महत्वपूर्ण कार्यों के अतिरिक्त कई काम ऐसे हैं जो हमें जीने के लिए करने ही पड़ते हैं। मसलन मुँह धोने से लेकर नहाने तक, कपड़ा बनबाने से लेकर साफ करने और पहनने तक, सामाजिक कार्य जैसे शादी-विवाह, श्राद्ध, आदि में शामिल होना, घर पर मित्रों का आना और मित्रों के घर जाना, बाजार के दैनिक कार्यों का निपटारा, और अन्य कई इसी तरह के दैनिक क्रियाकलापों का जब हम सूक्षमता से अध्ययन करते हैं तो पाते है कि बचे हुए आठ घण्टे में से चार घण्टे खर्च हो जाते हैं। यानि चार हजार दिन और खत्म। अब शेष चार हजार दिनों के बारे में यदि सोचें तो बचपन के कुछ दिनों निकालना होगा क्योंकि बचपन में न तो उतनी समझ होती हैऔर वह स्थिति परवशता की होती है।
सही अर्थों में यदि देखा जाय तो औसतन एक इन्सान के जीवन में मात्र ढ़ाई से तीन हजार दिन ही ऐसे होते हैं जिसे वह अपनी मर्जी से जी सकता है। जरा सोचें कि कितना कम समय है जीने के लिए और काम कितना करना है। हो सकता है कि कई लोगों को यह भी लगे कि यह एक नकारात्मक सोच है। लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू यह भी हैकि अगर ये बात किसी के हृदय में उतर जाय तो वह व्यक्ति कभी भी अपना समय खोटा नहीं करेगा और जिन्दगी में हर कदम सार्थकता की ओर उठेंगे। पता नहीं आप सब किस प्रकार से सोचते है? लेकिन कम से कम मेरे कदम तो उठे इस दिशा में, इसी कोशिश में हूँ।
जिन्दगी धड़कनों की है गिनती का नाम।
फिर जो बैठे निठल्ले है उनको प्रणाम।।
परिचयनाम : श्यामल किशोर झा
लेखकीय नाम : श्यामल सुमन
जन्म तिथि : 10.01.1960
जन्म स्थान : चैनपुर, जिला सहरसा, बिहार, भारतशिक्षा : एम० ए० - अर्थशास्त्र
तकनीकी शिक्षा : विद्युत अभियंत्रण में डिप्लोमा
वर्तमान पेशा : प्रशासनिक पदाधिकारी टाटा स्टील, जमशेदपुर, झारखण्ड, भारतसाहित्यिक कार्यक्षेत्र : छात्र जीवन से ही लिखने की ललक, स्थानीय समाचार पत्रों सहित देश के प्रायः सभी स्तरीय पत्रिकाओं में अनेक समसामयिक आलेख समेत कविताएँ, गीत, ग़ज़ल, हास्य-व्यंग्य आदि प्रकाशित
स्थानीय टी.वी. चैनल एवं रेडियो स्टेशन में गीत, ग़ज़ल का प्रसारण, कई राष्ट्रीय स्तर के कवि-सम्मेलनों में शिरकत और मंच संचालनअंतरजाल पत्रिका "अनुभूति,हिन्दी नेस्ट, साहित्य कुञ्ज, साहित्य शिल्पी, प्रवासी दुनिया, आखर कलश आदि मे अनेकानेक रचनाएँ प्रकाशितगीत ग़ज़ल संकलन "रेत में जगती नदी" - कला मंदिर प्रकाशन दिल्ली "संवेदना के स्वर" - राज-भाषा विभाग पटना में प्रकाशनार्थ
रुचि के विषय : नैतिक मानवीय मूल्य एवं सम्वेदना
सम्पर्क:श्यामल सुमन09955373288
4 comments:
आज 14 - 08 - 2011 को आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....
...आज के कुछ खास चिट्ठे ...आपकी नज़र .तेताला पर
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७० साल में भी कितना कम समय होता है इंसान के पास फिर भी वो नफरत में ही गुज़ार देता है .. अच्छा विश्लेषण ज़िंदगी के गणित का
कल 06/09/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
बेहतरीन ।
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