Thursday, January 31, 2019

क़ानूनी लफड़ों के डर से किसी घायल को सड़क पर न छोड़ें

लुधियाना लीगल सर्विसिस अथॉरिटी ने चलाया इस आश्य का अभियान 
लुधियाना: 31 जनवरी 2019: (कार्तिका सिंह//पंजाब स्क्रीन)::
सड़क हादसों ने जितनी मानवीय जानें ली हैं उतनी शायद न किसी हिंसा ने ली हैं और न ही किसी बिमारी ने। हर रोज़ कहीं न कहीं कोई न कोई सड़क हादसा किसी न किसी की जान लील जाता है। इनमें से कई लोग बच भी सकते थे लेकिन वे नहीं बच पाते क्यूंकि कोई भी उन्हें वक़्त रहते अस्पताल में नहीं पहुंचाता। ज़रा अनुमान लगाइये क्या अनुभव किया होगा उन घायल लोगों ने जिन को लोग देखते हैं, वीडियो बनाते हैं और हँसते हुए पास से निकल जाते हैं। कोई उन्हें अस्पताल नहीं पहुंचाता। सड़क पर तड़प रहे इन घायल लोगों में से कोई आपका अपना भी हो सकता है। कोई रिश्तेदार या कोई बहुत ही प्यारा सा मित्र। उसकी मौत केवल इस लिए हो जाये क्यूंकि उन्हें समय रहते डाक्टरी सहायता नहीं मिल सकी। पता लगने पर आपके दिल पर क्या गुज़रेगी? रहमदिल लोग तो पशु पंक्षियों को भी डाक्टरी सहायता दे कर उनकी जान बचा लेते हैं क्या आप और हम मानव हो कर किसी मानव को भी नहीं बचाएंगे?
मानवीय जीवन के अनमोल होने का अहसास करते हुए खुद आगे बढ़ कर आई हैं डाक्टर गुरप्रीत कौर जो कि यहाँ लुधियाना लीगल सर्विसिस अथॉरिटी में सी जे एम कम सचिव के पद पर नियुक्त हैं। उनकी इच्छा है कि जो संवेदना उनके दिल में जाएगी है वही संवेदना अन्य सभी के दिल में भी उठे। हर रोज़ सड़क हादसों में उजड़ रहे घरों को बचाने के लिए हमें खुद ही आगे आना होगा।  इस मानवीय भावना को एक मिशन बना कर डाक्टर गुरप्रीत कौर कभी जगराओं में मार्च आयोजित करवाती हैं और कभी शहर के डाक्टरों से बात करती हैं। 
हाल ही में हुए एक सेमिनार में मैडम गुरप्रीत कौर ने कहा कि डाक्टरों को भी इस  कर्तव्य पहचान कर अपना योगदान देना होगा। 
इस मुद्दे पर नीतिगत जानकारी देते हुए सीजेएम मैडम ने सेमिनार में बताया कि यदि कोई व्यक्ति किसी घायल को लेकर अस्पताल  तो उसे कसी भी मुद्दे पर ज़रा सा भी परेशान न किया जाये। न तो उससे कोई खर्चा माँगा जाये और न ही उसे इस सड़क हादसे का गवाह बनने के लिए दबाव डाला जाए। अस्पताल सरकारी हो या प्राईवेट।  घायल की जान बचाना ही प्रथम कार्य होना चाहिए। जो व्यक्ति उस घाल का सहायक बन कर उसे ले कर अस्पताल आया उसका धन्यवाद भी किया जाना चाहिए। डाक्टर गुरप्रीत कौर ने स्पष्ट किया कि इस मामले में माननीय सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की पालना सुनिश्चित करना आवश्यक बनाया जाये। इस सेमिनार में सरकारी डाक्टरों के साथ साथ प्राइवेट डाक्टर भी थे।  
सेमिनार में एक एक पहलु पर विस्तृत चर्चा हुई। इस संबंध में एक एक मुद्दे पर विचार किया गया। घायलों को अस्पताल पहुँचाया तो कोई क़ानूनी लफड़ा खड़ा हो जायेगा-इस धारणा को समाप्त करने के लिए गंभीरता से विचार हुआ। डाक्टर गुरप्रीत कौर ने शवसन दिया कि ऐसा कुछ नहीं होगा। हाँ अगर आप किसी घायल को अस्पताल पहुंचाते हैं तो आपको महसूस होगा कि आज आप ने सच्ची पूजा की है। 

Wednesday, January 23, 2019

ज़िंदगी का इंद्रधनुष नज़र आया रवि की फोटो प्रदर्शनी में

पंजाब कला परिषद ने आयोजित की आर्य कालेज में यह प्रदर्शनी 
लुधियाना: 23  जनवरी 2019 (रेक्टर कथूरिया//पंजाब स्क्रीन)::
बरसों पहले सन 1955 में एक फिल्म आई थी--बारांदरी। इस फिल्म का एक गीत था:  
तस्वीर बनाता हूं; तस्वीर नहीं बनती!
इक ख्वाब सा देखा है; ताबीर नहीं बनती!
दशकों तक यह गीत लोगों के दिलों हुए दिमागों पर छाया रहा। बरसों तक उन लोगों की मनोस्थिति को व्यक्त करता रहा जिनसे न तो अपने ख्यालों की तस्वीर बन  पा रही थी और न ही देखे हुए ख्वाबों को ताबीर समझ आ रही थी। इसी बीच बहुत सी अच्छी तस्वीरें भी सामने आईं और पेंटिंग्स भी जिन्हें देख कर लगा था कि शायद तस्वीर बन सकती है। शायद अपने किसी ख़्वाब की ताबीर भी समझ में आ सकती है। कैमरे और चित्रकारी के बहुत से फनकार भी सामने आते रहे। फिर शुरू हुआ शोर-शराबे और भागदौड़ का व्यवसायिक युग। पैसे का वह युग जिसमें एक पुरानी कहावत ज़ोरशोर से सत्य होने लगी कि बाप बड़ा न भईया-सबसे बड़ा रुपईया!
इस युग में जज़्बात भी लुप्त होने लगे और संवेदना भी। न किसी ख़्वाब का कोई मूल्य रहा न ही किसी ताबीर की ज़रूरत। तस्वीर तो बस ड्राईंग रूम में लटकाने की ही ज़रूरत रह गयी। महज़ एक डेकोरेशन पीस। इसके बावजूद कुछ संवेदनशील लोग हमारे दरम्यान मौजूद रहे। बहुत से कलाकार भी मुनाफे की अंधी चाहत से बचे रहे। यही वे कलाकार थे जो लोगों के ख्यालों की तस्वीर बनाते रहे वह भी बिना किसी मुनाफे की अपेक्षा के। यही वे लोग थे जो लोगों को उनके देखे ख्वाबों की ताबीर भी समझाते रहे।
इसका अहसास हुआ आर्य कालेज में लगी तस्वीरों की एक यादगारी प्रदर्शनी को देख कर। इस आयोजन में लोगों को लगा कि यह तो हमारी ही तस्वीर है।  हमारे घर की तस्वीर। हमारे गाँव की तस्वीर। हमारे बचपन की तस्वीर।  हमारे सपनों की तस्वीर।  हमारे ख्वाबों की ताबीर।
आम, साधारण, गरीब और गुमनाम से लोगों को इन यादगारी तस्वीरों में उतारा हमारे आज के युग के सक्रिय फोटोग्राफर रविन्द्र रवि ने। वही रवि जिसे आप पंजाबी भवन में पंक्षियों के पीछे भाग भाग कर तस्वीरें उतारते देख सकते हैं। फूलों की खूबसूरती को कैमरे में कैद करते हुए देख सकते हैं। फूलों के साथ तितलियों और भंवरों की वार्तालाप को कैमरे के ज़रिये सुनने का प्रयास करते हुए देख सकते हैं। 
उस समय रवि के चेहरे पर जो रंग होता है वह रंग किसी साधना में बैठे साधक के रंग की याद दिलाता है। किसी अलौकिक शक्ति से जुड़े समाधि में लीन किसी असली संत के चेहरे पर नज़र आते नूर की याद दिलाता है। काम में डूबना क्या होता   है इसे रवि का काम देख समझा जा सकता है। सभी अपनी बातों में या खाने पीने में मग्न होते हैं उस समय रवि अपने कैमरे से या तो प्राकृति से बात कर रहा होते है या फिर किसी  ख्वाबों की ताबीर को किसी कैमरे में उतार रहा होता है। 
इस प्रदर्शनी में रवि की फोटोग्राफी के सभी रंग थे। इन रंगों में जो रंग सब से अधिक उभर कर सामने आया वह रंग था बन्जारों की ज़िंदगी का रंग। गांव की ज़िंदगी का रंग। ममता का रंग। जागती आंखों से देखे जाने वाले रंग। उन सपनों के टूटने से पैदा होते दर्द का रंग। कुल मिला कर यह ज़िंदगी का इंद्र धनुष था। जिसमें दर्द का रंग भी नज़र ा रहा था और ख़ुशी का रंग भी। किस किस को किस किस तस्वीर का रंग अच्छ लगा इसकी चर्चा हम अलग पोस्ट में  कर रहे हैं।

Monday, January 21, 2019

नाटक “राजगति” 23 जनवरी,2019,बुधवार रात 8 बजे मुंबई में

शिवाजी नाट्य मंदिर में मंचित होगा मंजुल भारद्वाज का लिखा नाटक 
लुधियाना//मुम्बई: 21 जनवरी 2019: (कार्तिका सिंह//पंजाब स्क्रीन)::
पहले सिनेमा--फिर फ़िल्में और उसके बाद केबल का प्रचलन। तकनीकी विकास के इस दौर ने सबसे बुरा असर डाला मंच की कला पर। नाटकों का का मंचन कम से कम होता चला गया। नाटक को आंदोलन का रूप देने वाले "इप्टा" जैसे संगठन गुमनामी के दायरे में सिमटते चले गए। उनका अस्तित्व केवल उनके राष्ट्रिय आयोजनों या उन पर होने वाले हमलों की खबरों से ही महसूस होता। तकरीबन तकरीबन यही हाल "जन नाटय मंच" का भी हुआ। सुबह से लेकर रात केवल दाल रोटी  उलझा दिए गए समाज में सबसे अधिक शिकार बने नाटकों की दुनिया के कलाकार, लेखक, निदेशक और अन्य तकनीकी स्टाफ के सदस्य। राजनैतिक दलों के शिकंजे ने भी नाटकों के अभियान को लुप्त जैसा ही कर दिया।  इक्का दुक्का कलाकारों ने नाटकों केमाभियाँ को जीवंत रखने की कोशिश भी की लेकिन उन्हें दर्शक नहीं मिले। ऐसे में उभर कर सामने आए मंजुल भारद्धाज। कुछ बातों का संकल्प- की तीखी आलोचना भी लेकिन साथ ही साथ रंगमंच को फिर से हर दिल तक ले जाने का प्रयास भी।  इसी प्रयास के अंतर्गत हो रहा है "राजगति" का मंचन।   
“थिएटर ऑफ़ रेलेवंस” अभ्यासक एवम् शुभचिन्तक आयोजित नाटक “राजगति” 23 जनवरी,2019,बुधवार  रात 8 बजे “शिवाजी नाट्य मंदिर” दादर(पश्चिम), मुंबई में मंचित होगा! सुप्रसिद्ध रंग चिन्तक मंजुल भारद्धाज लिखित और निर्देशित नाटक “राजगति” समता,न्याय,मानवता और संवैधानिक व्यवस्था के निर्माण के लिए ‘राजनैतिक परिदृश्य’ को बदलने की चेतना जगाता है,जिससे आत्महीनता के भाव को ध्वस्त कर ‘आत्मबल’ से प्रेरित ‘राजनैतिक नेतृत्व’ का निर्माण हो।“
मंचन का विवरण इस प्रकार है:
कब : 23 जनवरी,2019,बुधवार  रात 8 बजे
कहाँ : “शिवाजी नाट्य मंदिर”, दादर(पश्चिम), मुंबई
कलाकार:अश्विनी नांदेडकर, योगिनी चौक, सायली पावसकर, कोमल खामकर, तुषार म्हस्के,स्वाति वाघ,हृषिकेश पाटिल,प्रियंका काम्बले,प्रसाद खामकर और सचिन गाडेकर।
अवधि :120 मिनट
नाटक 'राजगति', : “नाटक राजगति ‘सत्ता, व्यवस्था, राजनैतिक चरित्र और राजनीति’ की गति है. राजनीति को पवित्र नीति मानता है.राजनीति गंदी नहीं है के भ्रम को तोड़कर राजनीति में जन सहभागिता की अपील करता है. ‘मेरा राजनीति से क्या लेना देना’ आम जन की इस अवधारणा को दिशा देता. आम जन लोकतन्त्र का प्रहरी है. प्रहरी है तो आम जन का सीधे सीधे राजनीति से सम्बन्ध है.समता,न्याय,मानवता और संवैधानिक व्यवस्था के निर्माण के लिए ‘राजनैतिक परिदृश्य’ को बदलने की चेतना जगाता है,जिससे आत्महीनता के भाव को ध्वस्त कर ‘आत्मबल’ से प्रेरित ‘राजनैतिक नेतृत्व’ का निर्माण हो।“
नाटक “राजगति” क्यों ?
हमारा जीवन हर पल ‘राजनीति’ से प्रभावित और संचालित होता है पर एक ‘सभ्य’ नागरिक होने के नाते हम केवल अपने ‘मत का दान’ कर अपनी राजनैतिक भूमिका से मुक्त हो जाते हैं और हर पल ‘राजनीति’ को कोसते हैं ...और अपना ‘मानस’ बना बैठे हैं की राजनीति ‘गंदी’ है ..कीचड़ है ...हम सभ्य हैं ‘राजनीति हमारा कार्य नहीं है ... जब जनता ईमानदार हो तो उस देश की लोकतान्त्रिक ‘राजनैतिक’ व्यवस्था कैसे भ्रष्ट हो सकती है ? .... आओ अब ज़रा सोचें की क्या बिना ‘राजनैतिक’ प्रकिया के विश्व का सबसे बड़ा ‘लोकतंत्र’ चल सकता है ... नहीं चल सकता ... और जब ‘सभ्य’ नागरिक उसे नहीं चलायेंगें तो ... बूरे लोग सत्ता पर काबिज़ हो जायेगें ...और वही हो रहा है ... आओ ‘एक पल विचार करें ... की क्या वाकई राजनीति ‘गंदी’ है ..या हम उसमें सहभाग नहीं लेकर उसे ‘गंदा’ बना रहे हैं हम सब अपेक्षा करते हैं की ‘गांधी , भगत सिंह , सावित्री और लक्ष्मी बाई’ इस देश में पैदा तो हों पर मेरे घर में नहीं ... आओ इस पर मनन करें और ‘राजनैतिक व्यवस्था’ को शुद्ध और सार्थक बनाएं ! समता,न्याय,मानवता और संवैधानिक व्यवस्था के निर्माण के लिए ‘राजनैतिक परिदृश्य’ को बदलने की चेतना को जगाएं ,ताकि आत्महीनता का भाव ध्वस्त हो और ‘आत्मबल’ से प्रेरित ‘राजनैतिक नेतृत्व’ का निर्माण हो।
पंजाब में नाटय को समर्पित कुछ विशेष लोग 
“थिएटर ऑफ़ रेलेवंस” नाट्य दर्शन विगत 26 वर्षों से फाशीवादी शक्तियों से जूझ रहा है। भूमंडलीकरण और फाशीवादी ताकतें ‘स्वराज और समता’ के विचार को ध्वस्त कर समाज में विकार पैदा करती हैं जिससे पूरा समाज ‘आत्महीनता’ से ग्रसित होकर हिंसा से लैस हो जाता है. हिंसा मानवता को नष्ट करती है और मनुष्य में ‘इंसानियत’ का भाव जगाती है कला. कला जो मनुष्य को मनुष्यता का बोध कराए...कला जो मनुष्य को इंसान बनाए! “थिएटर ऑफ़ रेलेवंस”... एक चौथाई सदी यानी 26 वर्षों से सतत सरकारी, गैर सरकारी, कॉर्पोरेटफंडिंग या किसी भी देशी विदेशी अनुदान से परे. सरकार के 300 से 1000 करोड़ के अनुमानित संस्कृति संवर्धन बजट के बरक्स ‘दर्शक’ सहभागिता पर खड़ा है हमारा रंग आन्दोलन.. मुंबई से मणिपुर तक!
लेखक –निर्देशक : रंग चिन्तक मंजुल भारद्वाज रंग दर्शन थिएटर ऑफ रेलेवेंस' के सर्जक व प्रयोगकर्त्ता हैं, जो राष्ट्रीय चुनौतियों को न सिर्फ स्वीकार करते हैं, बल्कि अपने नाट्य सिद्धांत "थिएटर आफ रेलेवेंस" के माध्यम से वह राष्ट्रीय एजेंडा भी तय करते हैं।  अब तक 28 से अधिक नाटकों का लेखन—निर्देशन तथा अभिनेता के रूप में 16000 से ज्यादा बार राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय मंचों पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं!
दर्शक सहयोग और सहभागिता से आयोजित इस मंचन में आपके सक्रिय सहयोग और सहभागिता की अपेक्षा !
अच्छा हो यदि इस नाटक का मंचन देश के सभी भागों में हो सके। इस मकसद के लिए स्थानीय नाटय मंडलियों को एक प्रोफेशनल सोच सामने रखते हुए आगे आना हगा तांकि नाटय  मंडलियों के कलाकारों का आवश्यक खर्चा भी निकल सके। 
लुधियाना में डाक्टर अरुण मित्रा, पत्रकार एम एस भाटिया, मैडम सपनदीप कौर, त्रिलोचन सिंह और इप्टा से जुड़े पुराने कलाकार प्रदीप शर्मा भी सक्रिय  हैं।  चंडीगढ़-मोहाली में प्रगतिशील लेखक कंवर, अमन भोगल, संजीवन सिंह, रेल कोच फैक्ट्री कपूरथला में इंद्रजीत रूपोवालिया, मोगा में विक्की माहेश्वरी सहित बहुत से लोग सक्रिय हैं। अच्छा हो एक ज़ोरदार हल्ला जन विरोधी साज़िशों पर बोला जा सके। शायद सआदत हसन मंटो और सफदर हाशमी की अंतरात्मा को इससे शांति मिल सके।