Sunday, September 15, 2019

मेला छपार: यहां कोई गद्दी नशीन नहीं-कहा धर्मेंद्र शर्मा ने

"हम सभी यहां पर सेवादार हैं"
छपार (लुधियाना): 13 सितम्बर 2019: (पंजाब स्क्रीन टीम):: 
आस्था-प्रेम और दोस्ती की कहानी को हर साल याद दिलाने वाला मेला छपार इस बार भी धूमधाम और उत्साह से मनाया गया। इस बार भी बहुत से लोग आये लेकिन पहले जैसी बात नज़र नहीं आ रही थी। मेले में आने वाले लोगों की कमी का ज़िक्र करते हुए सक्रिय सेवादार धर्मेंद्र शर्मा कहते हैं कि वास्तव में पिछली बार बारिशों ने रेकार्ड तोड़ दिया था। राजनैतिक दलों ने भी अपने पंडाल छोड़ कर अपने सम्मेलन कैंसल कर दिए थे जबकि इस बार गर्मी ने बस करा रखी है।  
इसके साथ ही धर्मेंद्र शर्मा कहते हैं कि सब बाबा के रंग हैं। बाबा जब चाहेंगे मेला इतना भरेगा कि सब पिछले रेकार्ड भी तोड़ देगा। इस तरह के उतराव चढ़ाव तो कई बार आये हैं। उन्होंने बहुत ही विश्वास से कहा कि यहाँ जल्द ही वे दिन फिर से आएंगे जब लाखों लाखों लोग यहाँ आएंगे मेला छपार में अपनी आस्था व्यक्त करने। उन्होंने एक सवाल का जवाब देते हुए स्पष्ट कहा कि यह गद्दी पीर बाबा सुलक्खन गुग्गा पीर जी की ही है कोई उनकी जगह नहीं ले सकता। कोई उनकी जगह गद्दी नशीन नहीं हो सकता। हम सभी यहाँ सेवादार हैं। यहाँ के पुजारी कह लो लेकिन यहाँ भगवान तो वही हैं। उनमें आस्था होने के कारण लाखों लोग हर बरस यहाँ माथा टेकने आते हैं वे हमारी वजह से नहीं आते। जो लोग खुद की गद्दी नशीन समझते हैं बाबा ही उन्हें सद्धबुद्धि देंगें।  उन्होंने कहा कि गद्दी नशीनी की यहाँ कोई परम्परा ही नहीं है। यहाँ केवल सेवा की परम्परा है। सेवा का फल बाबा सभी को बिना मांगे दे देते हैं। 

दरअसल मेला छपार की कहानी है आस्था की कहानी। सांप और इन्सान की दोस्ती की कहानी। एक ऐसी मोहब्बत की कहानी जिस पर जल्दी किये विशवास नहीं होता। एक वायदे की कहानी--जो आज तक निभाया जा रहा है। मन्दिर के प्रबन्धक कहते हैं यह कहानी 150 वर्ष से मित्रता का संदेश दे रही है। धर्मेंद्र  यह संख्या 300 वर्ष बताई। लोग अपने अपने हिसाब और यादाशत के  मुताबिक इस के इतिहास की चर्चा करते हैं। 

बात कर रहे थे हम आस्था, दोस्ती और मोहब्बत की। वायदों कीयह कहानी अविश्वनीय लग सकती है लेकिन इसका संदेश आज के युग में भी बहुत बड़ी हकीकत है। आज जब मानव ही मानव का दुश्मन हो गया है। भाई ही भाई की हत्या कर रहा है उस समय सांप और मानव की दोस्ती बहुत बड़ी उम्मीदें जगाती है कि देखो कभी ऐसा स्वर्णिम युग भी था। 

बताया जाता है कि एक किसानी परिवार में एक सांप और एक  लडके का जन्म एक साथ हुआ।  दोनों का प्रेम भी बहुत था। एक दिन जब लडके की मां उसे बीमारी की हालत में लिटा कर कहीं बाहर गयी तो उसके चेहरे पर धुप पड़ने लगी। उसके दोस्त सांप ने उसे धुप से बचाने के लिए ज्यों ही अपना फन फैलाया तो किसी राहगीर ने समझा की सांप उस लड़के को काटने लगा है। उसने तुरंत उस सांप को मार दिया। सांप के मरते ही वो लड़का भी मर गया। परिवार के साथ पूरे गाँव में मातम छा गया। वह सांप ही यहाँ गुग्गा पीर कहलाता है। 
बजुर्गों की सलाह पर इन दोनों के स्मृति स्थल के लिए एक जगह तलाश की गयी। आज इसे गुग्गा माड़ी या मैडी के नाम से जाना जाता है। हर वर्ष मेला लगता है और खूब भरता है। लाखों लोग आते हैं यहाँ मन्नतें मानने। और फिर उस मन्नत के पूरा होने पर शुकराना करने भी आते हैं। गौर हो कि यह मेला गुग्गा जाहिर पीर गुग्गा माड़ी मंदिर गांव छपार में लग रहा है। मालवे के इस प्रसिद्ध मेले में कई बड़ी सर्किस, दर्जन से अधिक झूले, जादूगर शो आदि यहां जाने वाले श्रद्धालुओं को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। मालवा क्षेत्र के इस प्रसिद्ध छपार मेले में दस से 12 लाख लोग पंजाब, हिमाचल, हरियाणा व चंडीगढ़ आदि क्षेत्रों से आते हैं और हिंदू, सिख, मुस्लिम सभी वर्ग के लोग एकत्रित होकर गुग्गा माड़ी मंदिर में अपनी मुराद मांगते हैं।
छपार मेले की प्रचलित कथा के अनुसार गुग्गा अपनी मां से क्रोधित होकर बांगड़ा अपने दोस्त खुल्लरियन के पास गांव छपार आ गया। यहां आकर उन्होंने अपने दोस्त से आलोप होने और प्रकट होने की सिद्धि प्राप्त की और दोनों दोस्तों ने यहीं समाधि ली। जब श्रद्धालू यहाँ मिटटी निकालते हैं तो उनके चेहरों पर उम्मीद की चमक देखने वाली होती है। मिटटी निकालते वक्त उनके हाथ कितना अदब से उठते हैं यह खुद वहां जा कर ही देखा जा सकता है।    
उसी समय से इस स्थान की मान्यता है। गुग्गा सर्पो का राजा माना जाता है। इसलिए कहा जाता है कि सर्पदंश का इलाज यहां अपने आप हो जाता है, ऐसी मान्यता है। मान्यता के अनुसार गुग्गा माड़ी मंदिर में माथा टेकने व मिंट्टी निकालने से सांप पूरे वर्ष नजर नहीं आएगा। धर्मेंद्र शर्मा बताते हैं कि वास्तविक शब्द माड़ी नहीं मैड़ी है। 
छपार जैसे मेले से ही निकले हैं आज के पूंजीपतियों और कारपोरेट घरानों के बड़े बड़े फेस्टिवल और मेले जो दिल्ली, मुंबई और कोलकाता जैसे शहरों में लगते हैं। उन मेलों में बड़ी बड़ी मशीनों के सौदे होते हैं और यहाँ छपार में अब भी ज़िंदगी चलाने के साधन मिलते हैं। यहाँ आने वाले सभी लोग यहाँ से कुछ न कुछ ले कर ही जाते हैं। किसी को साल भर की रोशन का अनाज मिल जाता है तो किसी को साल भर के खर्चे जितना कैश धन। ढोल बजाने वाले से ले कर खजला बेचने वाले तक हर कोई इस मेले से कमाई करता है। अनगिनत लोगों का रोज़गार है यह मेला। ज़रा ध्यान से देखो तो आपको नज़र आएंगे छोटे छोटे परिवार, साधारण से गरीब लोग, कोई नगार बजा रहा है, कोई मोर के पंख ले कर बैठा है, कोई नाच रहा है तो कोई कुल्फी बेच कोई रहा है, कोई गा रहा है, कोई ज़मीन पर सांप की तरह लेटा लेटा घूम रहा है।  

झूले वाले, बीन वाले, मिठाई वाले, ढोल वाले इत्यादि बहुत से लोग हैं जिन्हें यहाँ आ कर रोज़गार मिलता है। करीब कई महीनों की रोटी इन लोगों को यह मेला दे जाता है। इस मकसद के लिए यहाँ बहुत से लोग पंजाब ही नहीं अन्य राज्यों से भी आते हैं। 
मेला कमेटी यहाँ आने वालों के लिए पूरी आवभगत और मूलभूत सुविधाओं का प्रबंध  की तरह करती है। लंगर के साथ साथ कई तरह के पकवान परोसे जाते हैं। पुलिस भी इस अवसर पर लोगों की सुरक्षा के लिए मुकम्मल बन्दोबस्त करती है। तकरीबन हर धर्म के लोग यहाँ आते हैं। हर उम्र के लोग यहाँ आते हैं। ये लोग कितनी आस्था से सात बार मिटटी निकालते हैं इस आस्था को उनके चेहरे और भावों से महसूस किया जा सकता है।

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