Thursday, November 09, 2017

चंडीगढ़ में अखिल भारतीय कवयित्री सम्मेलन शुरू

गांव गांव में ज़रूरत है ऐसे आयोजनों की तांकि भाषा का सौहार्द बना रहे
चंडीगढ़//लुधियाना: 9 नवंबर 2017: (कार्तिका//पंजाब स्क्रीन)::
मेरा जन्म एक पंजाबी परिवार में हुआ। एक ऐसा परिवार जहां हर भाषा का सम्मान करना सिखाया जाता है। इसके बावजूद मेरे बोलचाल की मुख्य भाषा काफी देर तक पंजाबी ही रही।  धीरे धीरे कब यह हिंदी और पंजाबी का मिक्स अंदाज़ आ गया खुद भी याद नहीं आता। जब सितंबर-2017 में पीएयू ने एक प्रतियोगिता का आयोजन कराया तो उस समय भी मेरी पंजाबी काव्य रचना को ही प्रथम पुरुस्कार मिला। इस सब के बावजूद मेरा हिंदी प्रेम कभी कम नहीं हुआ। हिंदी में लिखना, हिंदी में पढ़ना मेरे स्वभाव में उसी तरह शामिल रहा जिस तरह मैं गांवों की ठेठ पंजाबी के शब्द समझने की कोशिश करती। मैंने मैक्सिम गोर्की की महान रचना-"मां" हिंदी में ही पढ़ी। ओशो की बहुचर्चित रचना "एक ओंकार सतनाम" भी हिंदी में ही पढ़ी। दुष्यंत कुमार के शेयर मुझे बिना प्रयासों के ज़ुबानी याद होने लगे। शायद यह सिलसला यूं ही चलता पर पत्रकारिता की पढ़ाई के कारण अख़बारों और टीवी की खबरों में भी दिलचस्पी बढ़ने लगी। कभी कभी हालात में कुछ गर्माहट आती तो अख़बारों की सुर्खियां भी भयभीत करने लगती। मैंने न तो 1947 का बटवारा देखा, न ही जून-1984 का ब्ल्यू स्टार आपरेशन और न ही नवंबर-1984 का अमानवीय नरसंहार। जब रूस के अक्टूबर इंकलाब की चर्चा सुनती तो बहुत अजीब  सा लगता कि इस अक्टूबर इन्कलाब का दिन नवंबर में क्यों आता है? इस तरह के कई सवालों का जवाब तलाश करने की इच्छा मुझे अक्सर इतिहास की किताबों के नज़दीक ले जाती। इसी बीच ज़ोर पकड़ा पंजाबी भाषा के सम्मान के अभियान ने। सैद्धांतिक तौर पर बात सही थी कि पंजाब में पंजाबी को प्रथम स्थान आखिर क्यों नहीं दिया जाता। दक्षिण भारत में जहाँ के लोग हिंदी के नाम से भी दूर भागते हैं वहां हिंदी को तीसरे स्थान पर लिखा जाता है।  यहां तक कि रेलवे स्टेशनों पर भी।  अन्य स्थानों पर तो हिंदी नज़र भी नहीं आती। इन सभी तथ्यों के बावजूद मुझे यह बहुत ही दुखद लगता कि पंजाब में जहां जहां हिंदी लिखी है वहां वहां कालख पोत दी जाये। पंजाबी का सम्मान बहाल हो यह तो मैं भी चाहती थी लेकिन इसके लिए हिंदी पर कालख पोतनी पड़े यह सही न लगता।  दुःख था। बेबसी थी। कुछ कुछ शर्मिंदगी का अहसास भी।  कुछ गुस्सा भी। सियासत की जंग में मुझे अपनी और आम लोगों की हालत बहुत ही कमज़ोर लगती।
खुद से सवाल करती कि क्या सचमुच सिख धर्म के संस्थापक गुरु साहिबान संस्कृत और फारसी का भी सम्मान करते थे? अगर यह सच है तो उन्हें मानने वाले हिंदी पर कालख क्यों पोतना कहते हैं? बहुत गुस्सा आता उन लोगों पर भी जिनको हिंदी नहीं आती थी लेकिन पंजाबी सूबा के समय  समय जिन्होंने पंजाबी में बोल बोल कर  कि लिखो हमारी मातृ भाषा हिंदी है। हिंदी पंजाबी और अन्य भाषाओं के दरम्यान जिस पुल की बात मैं सोच रही थी वह मुझे अपनी कल्पना ही लगता।  महसूस होता यह कभी साकार नहीं होगी। मुझे लगता कि बस शायद यहां सियासत ही जीत सकती है और न कोई सिद्धांत-न कोई धर्म और और न कोई विचार। 
इसी निराशा में एक दिन पता चला कि चंडीगढ़ में अखिल भारतीय महिला कवि सम्मेलन हो रहा है। जाने की इच्छा भी थी लेकिन कालेज के टेस्ट और कुछ अन्य समस्याएं आड़े आ रही हैं। जब विस्तार से जानकारी ली तो पता चला कि हर पंजाबी शायरा को अपनी पंजाबी रचना के साथ साथ हिंदी अनुवाद भी बोलना है। यह जान कर न जा पाने का दुःख भी हुआ। पता चला कि इस आयोजन में भाग लेने के लिए तकरीबन 300 महिला शायर भाग लेंगीं। यह जानकारी चंडीगढ़ में आल इंडिया पोइटिस कांफ्रेस के संस्थापक डा. लारी आज़ाद ने एक पत्रकार सम्मेलन में दी। डा. लारी आज़ाद ने वास्तव में दुनिया देखी है। सियासत की भी और साहित्य की भी। मोहमद अकरम लारी ने सत्तर के दशक में भरतीय धर्मों और सियासत पर बहुत सी पुस्तकें भी लिखीं हैं। वह बहुत सी वशिष्ठ पत्रिकाओं का सम्पादन भी करते हैं।  इसलिए भारत में धर्म-सियासत और भाषा की वास्तविक स्थिति को भी बहुत अच्छी तरह से समझते हैं। इस संगठन के पास आठ हज़ार प्रमुख महिलाएं पंजीकृत है जिनमें से कोई शायरा है, कोई लेखिका, कोई कलाकार, कोई टीवी पर, कोई रेडियो  पर और कोई किसी अन्य में। इनमें कई प्रमुख लोगों से भेंट होती, उनसे मिलने का अवसर मिलता। अब भी कोशिश रहेगी। 
कुल मिला कर प्रसन्नता की बात है कि यह एक ऐसा मंच है जिसे आधार  बना कर पंजाबी के पुल हिंदी और अन्य भारतीय भाषायों से जोड़े जा सकते हैं। सलाम है ऐसे आयोजन को।  सलाम है इसके आयोजकों को। इस तरह के आयोजन होते रहें और विभिन्न भाषाओं के लेखक और कलाकार अलग अलग प्रदेशों और संस्कृतियों को आपस में जोड़ने के सफल प्रयास करते रहें। समाज जुड़ा रहे इसकी उम्मीद अब कलमकारों से ही बची है। इस तरह के आयोजनों की आज सबसे अधिक ज़रूरत हैं। केवल राज्यों की राजधानियों में ही नहीं बल्कि गांव गांव में इनकी ज़रुरत है। आखिर में एक बार फिर सलाम। कवरेज के लिए एक बार अवश्य जाना होगा इस आयोजन में, बाकी की बातें फिर कभी सही। किसी अगली पोस्ट में।  -कार्तिका (लुधियाना)