Monday, July 25, 2016

रंग तो दो ही हैं--काला और सफ़ेद: कलाकार हैदर रज़ा

Sun, Jul 24, 2016 at 3:21 PM
नन्दी के पास जाकर बैठना साम्प्रदायिक सौहार्द का सन्देश फैलाता रहेगा
दमोह: (मध्यप्रदेश): 24 जुलाई 2016: (नूतन पटेरिया//पंजाब स्क्रीन):

सारी दुनिया को रंग और कूची से चित्रकला के कैनवास पर भारतीय अवधारणाओं को शोहरत और बुलंदियों पर पहुंचाने वाले महान चित्रकार डा. सय्यद हैदर रजा अपने शहर दमोह में आकर बिलकुल बच्चे जेसे हो जाते थे। जैसे ही उनकी म्रत्यु की खबर आई तो कई आखों में वो स्वयं चित्र बनकर उभर आये। किसी को उनके साथ बिताये पल याद आये किसी को उनके शब्द किसी को आत्मियता और किसी को उनके दमोह से दूर रहने का दर्द छल्क पड़ा। वर्ष 2008 में रजा साहब दमोह में 3 दिन रुके सर्किट हाउस,किसान तलैया,और राजनगर पहुचे। वहा पहुचकर बच्चों की भांति नाच उठे 2006 में जब वो दमोह आये तो वरिष्ट पत्रकार नरेन्द्र दुबे ने जब उनसे रंगों पर प्रश्न किया तो वो हंसकर बोले रंग तो दो ही हैं। काला और सफ़ेद। यह रंगों के बेताज बादशह दमोह की माटी से असीम प्यार करता था। रजा साहब का जन्म तो मंडला जिले के बबरिया गाँव में 22 फरवरी 1922 को हुआ था। लेकिन कक्षा पांचवी से लेकर दसवी तक की शिक्षा दमोह के लाल बहादुर स्कूल में हुई थी उनका मानना था कि उनकी चित्रकारी दमोह की उर्बरा माटी की देंन है जो बाद में बट ब्रक्ष के रूप में बिकसित हुई। रजा साहब के दमोह में प्रिये स्थान उनका पुराना निवास स्थान, उनका स्कूल, हनुमान मंदिर स्कूल के पास का शिव मंदिर थे। पुराने घर जाकर तो उन्होंने सीढ़ी और दीवारे चूम ली। शिव मंदिर में नंदी के पास तो ऐसे बैठ जाते जेसे भोला बच्चा नंदी के कान में कुछ अपनी मासूमियत से कह रहा हो। स्कूल के साथ साथ अपने गुरुओं से भी लगाव रखते थे। उनके गुरु नन्दलाल झारिया, बेनीप्रसाद स्थापक, दरयाब सिंह और गौरी शंकर लहरी। इनसे मिलने सदेव जाते थे। भारत सरकार से पदम श्री, पदम भूषण और पदम विभूषण का सम्मान पाने वाले और फ्रांस से अपना जीवन साथी और सबसे बड़ा सम्मान लीज़न ऑफ़ ओनर पाने वाले पेरिस जेसे आधुनिक शहर में रहने वाले रजा साहब दमोह में सदेव साधारण ही बनकर रहे। जिस कलाकार की 6 साल पहले सौराष्ट्र पेंटिंग 16 करोड़ रुपये में नीलाम हुई हो वही कलाकार कभी दमोह की कच्ची दीवार चूमता, कभी बच्चे जेसा फुदकता, कभी जाति और धर्म की दीवारे पार कर शिव मंदिर के नंदी के पास बैठ जाता। 
लेखिका नूतन पटेरिया 

बॉम्बे के जेजे स्कूल ऑफ़ आर्टस में पढने वाला लाल बहादुर स्कूल की सीढ़ी चूमता। कभी अपना अंतिम समय दमोह में गुज़ारने की इच्छा रखता। भारत के बंटवारे के समय  गाँधी जी के प्रति निष्ठां दिखा हिंदुस्तान में ही रहता। ऐसा महान कलाकार जिसने भारतीय चित्रकला को अर्थपूर्ण भाषा दी वह चित्रकार 23 जुलाई 2016 को इस संसार के रंगमंच पर अपने रंगों को छोड़ सदेव के लिए चला गया। दमोह के डरो दीवार अक्सर उस महान कलाकार की याद दिलाते रहेंगे जिसे पत्थरों में भी दिल की धड़कन सुनाई देती थी। नन्दी के पास जाकर बैठना साम्प्रदायिक सौहार्द का सन्देश फैलाता रहेगा। देख लेना हैदर साहिब की मौजूदगी उनके जाने के बाद अब और भी ज़्यादा शिद्दत से अपना अहसास कराएगी।--नूतन पटेरिया

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