Sun, Jan 26, 2014 at 7:14 PM
पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है? -प्रमोद रंजन
इमां मुझे रोके हैं, जो है खींचे मुझे कुफ्र
काबा मेरे पीछे है, कलीसा मेरे आगे!
- मिर्जा गालिब
‘पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?’ हिंदी के महान कवि मुक्तिबोध 1960 के दशक में अपने मित्रों से यह सवाल उनकी विचारधारा के संबंध में पूछते थे। आज हम यही सवाल आम आदमी पार्टी (आप) से पूछना चाहते हैं।
लगभग एक साल पहले बनी इस पार्टी को गत दिसंबर में हुए दिल्ली विधानसभा चुनाव में अप्रत्याशित सफलता मिली। इसकी झोली में कुल 30 फीसदी वोट गए तथा इसने दिल्ली की कुल 70 विधानसभा सीटों में से 28 पर जीत हासिल की। वर्ष 2008 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) को 14.5 फीसदी वोट मिले थे और उसके दो उम्मीदवार जीते थे। बसपा को इस बार बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद थी लेकिन उसे महज5 फीसदी वोट मिले और अपनी 2 सीटों से भी हाथ धोना पड़ा। इसके विपरीत, ‘आप’ ने दिल्ली में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित 12 में से 9 सीटों पर जीत हासिल की। दिल्ली में दलित और अन्य पिछडा वर्ग ने आम आदमी पार्टी का बड़े पैमाने पर साथ दिया। ‘आप’ इसे न सिर्फ स्वीकार कर रही है बल्कि घोषित रूप से इससे उत्साहित है और इसी बूते लोकसभा चुनावों में उतरने की तैयारी कर रही है।
दिल्ली में सरकार बनाने में आम आदमी पार्टी ने सामाजिक समीकरणों का भी ख्याल रखा है। 28 दिसंबर, 2013को मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के साथ छःह मंत्रियों ने शपथ ली, जिनमें से दो राखी बिरलान व गिरीश सोनीदलित समुदाय के हैं। सोमनाथ भारती बिहार के ओबीसी हैं। अल्पसंख्यक समुदाय के सत्येंद्र जैन को भी इनके साथ मंत्री बनाया गया। पार्टी का कोई भी मुसलमान उम्मीदवार नहीं जीता इसलिए वह मंत्रिमंडल में किसी मुसलमान को जगह नहीं दे सकती थी।
इस प्रकार ‘आप’ की सरकार ने भारतीय राजनीति में जाति, संप्रदाय के आधार पर मंत्रिमंडल गठित करने की रूढ़ि का पालन किया तथा अपने दलित-बहुजन कार्यकर्ताओं के माध्यम से इन तबकों के बीच इसका प्रचार भी किया।
लेकिन वास्तविकता क्या है? ‘आप’ के दलित-ओबीसी मंत्री ‘जाति’ को किसी विमर्श के काबिल नहीं मानते। वे फुले-आम्बेडकर-लोहियावाद से न सिर्फ अपरिचित हैं बल्कि इस तरह के विमर्श को देश और कथित ‘आम’आदमी की बेहतरी में बाधा मानते हैं।
26 वर्षीय मंत्री राखी बिरला खुद को दलित नेता मानने से इंकार करती हैं। वे जाति से संबंधित हर सवाल पर असहज हो जाती हैं तथा उससे बचने की हरसंभव कोशिश करती हैं। जाति विमर्श पर उनकी समझ का एक नमूना मंत्री बनने के बाद एनडीटीवी द्वारा लिए गए उनके एक इंटरव्यू में दिखा। इसमें जाति के सवाल पर राखी ने कहा कि ‘मुझे गर्व है कि मैं वाल्मीकि समाज की बेटी हूं, जिस समाज के लोग सुबह छःह बजे उठकर अपना घर नहीं साफ करते लेकिन दूसरों के घरों की सफाई करते हैं...आप लोग इस जाति-धर्म की राजनीति से ऊपर उठिए!’
‘आप’ के दूसरे दलित मंत्री गिरीश सोनी की राजनीतिक पृष्ठभूमि ‘भारत की जनवादी नौजवान सभा’(डीवाईएफआइ) नामक कम्युनिस्ट संगठन की रही है। यह संगठन ‘उच्च जातियों के आर्थिक रूप से कमजोर तबकों के लिए’ आरक्षण की मांग करता रहा है। खुद गिरीश का राजनीतिक सफर भी ‘बिजली-पानी’ आंदोलन तक सीमित रहा है। उनके सरोकारों में ‘दलित’ कहीं से भी शामिल नहीं हैं।
नई सरकार के ओबीसी मंत्री सोमनाथ भारती वैश्य समुदाय की ‘बरनवाल’ जाति से आते हैं। यह जाति उनके गृह राज्य बिहार में ‘ओबीसी’ सूची में है, जबकि दिल्ली समेत अधिकांश राज्यों में ‘सामान्य सूची’ में है। भारती का सामाजिक न्याय की किसी भी वैचारिक धारा से दूर-दूर तक का वास्ता नहीं रहा है। वे पेशे से वकील हैं लेकिन भारत के संविधान और न्यायपालिका पर वे भरोसा नहीं जतलाते। वे समस्याओं के समाधान के लिए ‘डायरेक्ट एक्शन’ के हिमायती हैं। मंत्री बनने के बाद गत 16 जनवरी की आधी रात को उन्होंने अपने कार्यकर्ताओं के साथ दिल्ली में अफ़्रीकी महिलाओं-पुरुषों को कथित रूप से ड्रग्स का उपयोग करने और वेश्यावृत्ति के आरोप में कई घंटों तक बंधक बनाए रखा तथा इनमें एक को सार्वजनिक रूप से मूत्र का नमूना देने के लिए विवश किया। दिल्ली के पटियाला हाउस कोर्ट ने उन्हें वकील के रूप में एक मुकदमे के दौरान सबूतों से छेडछाड का भी आरोपी पाया है। वास्तव में, अन्य आप विधायकों-मंत्रियों की ही तरह वे भारतीय मध्यमवर्ग की विचारहीन और लंपट तत्वों की रॉबिन हुड नुमा छवि की चाहत को संतुष्ट करते हैं ।
‘आप’ के संविधान में प्रावधान है कि पार्टी संगठन के जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तर तक की सर्भी इकाइयों में‘वंचित सामाजिक समूहों, जैसे कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़े वर्गों और अल्पसंख्यक’ के कम से कम 5 सदस्य अनिवार्य रूप से होंगे। यदि ‘इन समूहों में से किसी का प्रतिनिधित्व कम हो तो उन्हें उचित प्रतिनिधित्व देने के लिए संबंधित कार्यकारिणी अधिकतम 5 सदस्यें तक सहयोजित (को-ऑप्ट) करेगी। यदि सहयोजित सदस्य पहले से ही पार्टी के सक्रिय सदस्य नहीं हैं, तो उन्हें पार्टी का सक्रिय सदस्य समझा जाएगा। सहयोजन के बादए, उनके अधिकार कार्यकारिणी के निर्वाचित सदस्यों के समान होंगे।’
दलित-बहुजन कोण से देखें तो आम आदमी पार्टी की ‘लिखत-पढत’ में सकारात्मक पक्ष और भी हैं। दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान जारी ‘संकल्प पत्र’ में ‘सामाजिक न्याय’ नाम से एक लंबा खंड रखा गया है। इस खंड में सामाजिक न्याय की सैद्धांतिक अवधारणाओं पर खरे उतरने वाले अनेक लोकलुभावन वादे हैं। इनमें एक प्रमुख वादा यह है कि पार्टी की सरकार बनने पर ‘दिल्ली सरकार के तहत आने वाली नौकरियों व षिक्षण संस्थाओं में अनुसूचित जाति, जनजाति एवं अन्य पिछड़ी जातियों के आरक्षण को कायदे से लागू किया जाएगा।’
हम सब यह जानते हैं कि ‘आम आदमी पार्टी’ का जन्म अप्रैल, 2011 में शुरू हुए अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के दौरान एक एनजीओ के गर्भ से हुआ। उस आंदोलन का रूख स्पष्ट रूप से आरक्षण विरोधी था तथा उसके नेता और समर्थक इस मत के थे कि ‘आरक्षण सबसे बड़ा भ्रष्टाचार है’। उस दौरान आंदोलन के मुख्य नेता अन्ना हजारे, शांतिभूषण, रामजेठमलानी, संतोश हेगड़े, किरण बेदी और अरविंद केजरीवाल थे। इनमें से दोए सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश संतोष हेगड़े और अरविंद केजरीवाल सीधे तौर पर आरक्षण विरोधी विद्यार्थियों के संगठन ‘यूथ फॉर इक्वलिटी’ के समर्थक थे। न्यायाधीश हेगडे तो अपने कार्यकाल के दौरान आरक्षण विरोधी फैसले देने और उस पर अनावश्यक टिप्पणियां करने के लिए कुख्यात रहे हैं।
‘आप’ की जन्मकथा
ऐसे पुख्ता संकेत हैं कि गोविंदाचार्य और योगगुरु रामदेव द्वारा प्रस्तावित ‘काला धन वापस लाओ आंदोलन’और केंद्र सरकार के तत्कालीन मंत्रियों के बडे घोटालों से ध्यान हटाने के लिए कांग्रेस ने एक रणनीति के तहत उस आंदोलन को प्रायोजित किया था तथा उसे ‘मीडिया हाइप’ देने की कोशिश की थी। इसमें वह सफल भी हुई (देखें, ‘अन्ना से अरविंद तक’ संपादक: संदीप मील, अनन्य प्रकाशन, दिल्ली, २०१३ में संकलित ‘मीडिया और अन्ना का आंदोलन’ शीर्षक से मेरा लेख)। बाद में, आंदोलन के गर्भ से निकली पार्टी कांग्रेस के लिए ही भस्मासुर साबित हुई । यह अनायास नहीं है कि अन्ना ने इस नयी पार्टी से खुद को अलग कर लिया।
बहरहाल, भारत के संविधान, संसद और उससे उपजे सामाजिक न्याय के हिमायती लोकतंत्र को चुनौती देने वाला शहरी मध्यमवर्गीय अन्ना आंदोलन अब पृष्ठभूमि में जा चुका है और ‘आम आदमी पार्टी’ के रूप में एक नया राजनीतिक दल हमारे सामने है, जिसने भारतीय राजनीति में धमाके के साथ प्रवेश किया है और इसी संविधान और संसद के भीतर अपनी जगह तलाशने की कोशिश कर रहा है। इसे भारतीय लोकतंत्र की सर्वस्वीकार्यता की दृष्टि से एक शुभ संकेत माना जा सकता है। लेकिन इस पार्टी के मूल सामाजिक आधार और मंशा को देखते हुए इसके कार्यकलापों पर पैनी नजर रखने की जरूरत है। क्या इन्होंने सचमुच भारतीय लोकतंत्र और इसकी सामाजिक न्याय की अवधारणा को स्वीकार कर लिया है ? या कहीं बाहर से वार कर हार चुका दुष्मन सिर्फ वेश बदलकर तो भीतर नहीं आ गया है?
ऊपर हमने ‘आप’ द्वारा उनके विभिन्न दस्तावेजों में किए सामाजिक न्याय के संबंध में किए गए दावों, नीतियों को देखा। ‘आप’ के वे दावे और नीतियां सिर्फ नयनाभिराम और कर्णप्रिय हैं। पार्टी ने अपने इन दावों को हाशिए पर रखा है तथा अपने राजनीतिक एजेंडे में सिर्फ नौकरीपेशा मध्यम वर्ग की नागरिक सुविधाओं और देशी व्यापारियों के हितों को जगह दी है। कम से कम अभी तक तो यही लगता है। दिल्ली में सरकार बनाने की कशमकश के दौरान आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस और भाजपा से 18 सवाल पूछे थे और कहा था अगर इन सवालों पर दोनों पार्टियां उसे समर्थन का भरोसा दें तभी वे सरकार बनाएंगे। ये सवाल ‘वीआईपी कल्चर बंद करने, जन लोकपाल विधेयक पारित करने, बिजली कंपनियों का ऑडिट करवाने, अनाधिकृत कॉलोनियों को नियमित करने, औद्योगिक क्षेत्र को मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध करवाने, खुदरा बाजार में विदेशी निवेश का विरोध करने, शिक्षा व्यवस्था ठीक करने’ आदि के संबंध में थे। इन सवालों में ‘सामाजिक न्याय’ का सवाल कहीं नहीं था। अगर‘आप’ सामाजिक न्याय, आरक्षण नियमों का पालन करने व सभी बैकलॉग नियुक्तियों को भरने सम्बन्धी अपने वायदों को पूरा करने के प्रति संकल्पबद्ध होती तो जाहिर है वह कांग्रेस और भाजपा से यह सवाल भी पूछती कि ‘दिल्ली में सरकारी नौकरियों में आरक्षित तबकों का इतना बैकलॉग है कि अगर सिर्फ बैकलॉग पद भी भरे जाएं तो कई सालों तक ‘सामान्य’ तबकों के लिए कोई पद विज्ञापित नहीं होगा। क्या आपलोग इस मुद्दे पर हमारा साथ देंगें?’
मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने विधानसभा में अपने पहले भाषण के दौरान भावपूर्ण वक्तव्य दिया तथा अपनी पार्टी के सभी राजनीतिक एजेंडे एक बार फिर गिनवाए, लेकिन ‘सामाजिक न्याय’ का एजेंडा उनके इस वक्तव्य में कहीं नहीं था।
आरक्षण के मुद्दे पर कहाँ खड़ी है 'आप'
आरक्षण के मुद्दे पर ‘आम आदमी पार्टी’ एक साथ दो विपरीत मुखौटों के साथ दिखती है। अन्ना आंदोलन के दौरान अरविंद केजरीवाल इस आशय की बात कहते नजर आते थे कि आरक्षण मिलना चाहिए लेकिन संपन्न दलितों को नहीं। इसके अलावा जिसको एक बार आरक्षण का लाभ मिल जाए, उसे दुबारा न मिले (वे आर्थिक आधार पर आरक्षण के पक्षधर रहे हैं)। आम आदमी पार्टी बनाने के बाद आरक्षण जैसे संवेदनषील मुद्दे पर उन्होंने चुप्पी साधे रखी है। इस प्रकार जहां कथित ऊंची जाति के लोगों को यह संदेश देने की कोशिश की कि उनकी पार्टी आरक्षण की व्यवस्था को चुपचाप जड़-मूल से खत्म कर देगी, वहीं आरक्षित तबकों को यह बताया कि उनकी भी मुख्य समस्या भ्रष्टाचार, पानी, बिजली और अन्य नागरिक सुविधाएं है, जिन्हें दूर करने के लिए वे कटिबद्ध हैं।
लेकिन जब उत्तर प्रदेश में प्रोन्नति में आरक्षण के मामले ने तूल पकड़ा तो पार्टी के लिए कोई स्टैंड लेना अनिवार्य हो गया तो पार्टी ने अपनी चुप्पी तोड़ते हुए 15 दिसंबर, 2012 को अपने राजपूत नेता मनीष सिसोदियाको आगे किया। आरक्षण पर अब तक ‘आप’ की वेबसाईट पर जारी इस एकमात्र आधिकारिक बयान में सिसोदिया ने प्रमोशन में आरक्षण का पुरजोर विरोध किया। उन्होंने कहा कि ‘सरकारी नौकरी में प्रमोशन में रिजर्वेशन का शगूफा समाज को बांटने की कोशिश है...किसी सीनियर को नज़रंदाज़ कर जूनियर को रिजर्वेशन के आधार पर प्रमोट किया जानो तार्किक नहीं है। इससे माहौल खराब होगा।’
इसके विपरीत, सामजिक न्याय के पक्षधर माने जाने वाले ‘आप’ नेता योगेंद्र यादव ने गत 6 जनवरी, 2014 को‘इकोनॉमिक टाइम्स’ से कहा है कि ‘हाल तक हमारी (आप) इस मामले में कोई स्पष्ट राय नहीं थी। परन्तु अब हमारी राय स्पष्ट है। हम वंचित समूहों को और अधिक आरक्षण दिलाने के लिए काम करेंगें।’ योगेंद्र यादव के इस बयान के संबंध में दो-तीन बातें गौर करने लायक हैं। पहली तो यह कि प्रमोशन में आरक्षण का विरोध करने के लिए ‘आप’ ने राजपूत सिसोदिया को आगे किया और चूंकि लोकसभा चुनाव में जाने के लिए आरक्षण जैसे विषय पर अपना स्टैंड साफ करना आवश्यक हो गया तो इसका पक्ष लेने के लिए ‘यादव’ योगेंद्र सामने आए। दूसरी बात, योगेंद्र यादव का यह बयान पार्टी का आधिकारिक वक्तव्य नहीं है। इसे पार्टी ने अपनी वेबसाइट पर जगह नहीं दी है। यह एक अखबार से की गई बातचीत के क्रम में कही गई ‘बात’ है। तीसरे, जब‘इकोनॉमिक टाइम्स’ ने इस संबंध में पार्टी के अन्य लोगों से बातचीत की तो उन्होंने इस पर कोई भी टिप्पणी करने से इंकार कर दिया। टिप्पणी करने से इंकार करने वाले वे लोग हैं जो बड़ी-बड़ी नौकरियां छोडकर, देशसेवा का जज्बा लिए ‘आप’ में शामिल हुए हैं और भारत में मेरिटोक्रेसी स्थापित करना चाहते हैं।
उत्तर भारत के विभिन्न हिस्सों से मिल रही सूचनाएं बताती हैं कि ‘आप’ का प्रभाव तेजी से बढ रहा है। बडी संख्या में उसके कार्यकर्ता व समर्थक बन रहे हैं। विभिन्न राज्यों में अनेक ईमानदार बहुजन नेता भी उसकी ओर आकर्षित हो रहे हैं। ये वे लोग हैं, जो ‘अपने’ राजनतेओं और राजनीतिक पार्टियों के पाखंड और भाई-भतीजावाद से त्रस्त होकर राजनीतिक हाशिये पर पडे थे। ‘आप’ को अगर भारतीय राजनीति में जगह बनानी है तो यह बिना बहुजन तबकों के सहयोग के न हो सकेगा। दिल्ली में उनकी जीत की वजह भी इसी तबके से मिला व्यापक समर्थन रहा है। आरक्षण का समर्थन करने पर जब योगेंद्र यादव को मीडिया ने घेरने की कोशिश की तो उन्होने ‘हेडलाइंस टुडे’ पर कुछ रोचक दावे किए और कई अनूठी जानकारियां दीं, जिन पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है। एक तो उन्होंने साक्षात्कारकर्ता के इस दावे का पुरजोर खंडन किया कि ‘आप’ मध्यमवर्ग की पार्टी है। साक्षात्कारकर्ता ने जब उनसे पूछा कि क्या आरक्षण जैसी व्यवस्था का समर्थन करने से ‘आप’ के परंपरागत समर्थक नाराज नहीं होंगे, तो योगेंद्र ने बताया कि पार्टी को स्लम कॉलोनियों, अनाधिकृत कॉलोनियों तथा दिल्ली के ग्रामीण क्षेत्रों से सबसे अधिक वोट मिले हैं, जबकि ‘पॉश’ इलाकों से बहुत कम वोट मिले हैं।
योगेंद्र का यह बयान पार्टी के भीतर और बाहर चल रही रस्साकशी को बयान करता है। वास्तव में, इन दिनों उत्तर भारत के राजनीतिक आकाश में कई किस्म की रस्साकशी चल रही है। एक ओर बहुजन तबकों के बौद्धिक और सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता ‘आप’ और ‘अपनी’ विभिन्न राजनीतिक पार्टियों, बसपा, सपा, राजद, जदयू,लोजपा आदि के नेतृत्व की तुलना करते हुए खुद को असमंजस में पा रहे हैं। दूसरी ओर, खुद आम आदमी पार्टीभी यह तय नहीं कर पाई है कि वह किस ओर जाए। एक तरफ आरंभिक तौर पर उसे पार्टी के रूप में स्थापित करने वाले मेंटर और उच्चवर्णीय कार्यकर्ता हैं, जो मौजूदा धूल-धुसरित लोकतंत्र की जगह, सरकारी बाबुओं के भ्रष्टाचार से मुक्त साफ-सुथरी मेरिटोक्रेसी चाहते हैं, तो दूसरी तरफ, उनके लिए सत्ता की सीढी बन सकने वाले बहुजन वोटर हैं, जो सदियों से उनके साथ हुए अन्याय के मुआवजे के तौर पर अफिरर्मेटिव एक्शन पर आधारित समान अवसर वाली व्यवस्था के हिमायती हैं।
महान उर्दू शायर गालिब के शब्दों में कहें तो देखना यह है कि वे इमां और कुफ्र में किसे चुनते हैं? वास्तव में देखना तो यह भी है कि अंततः वे किस धारा को अपना इमां मानते हैं और किसे कुफ्र? सब इंतजार में हैं कि ऊंट किस करवट बैठेगा? किसी करवट बैठेगा भी या खुद पर लाद ली गयी असंख्य उम्मीदों की भार से दिल्ली से बाहर निकलते ही दम तोड़ देगा?
(फारवर्ड प्रेस के फरवरी, 2014 अंक में प्रकाशित)
प्रमोद रंजन फारवर्ड प्रेस के सलाहकार संपादक हैं।