Thursday, October 02, 2014

थैलेसीमिया: मानव रक्त की बजाए अब बकरे का खून

गुजरात में सफलता के बाद अब पंजाब में भी तजर्बे की तैयारी 
डा. अतुल को गले मिल कर सुस्वागतम कहते हुए लवली जैन 
लुधियाना: थैलेसीमिया पीड़ित बच्चों के लिए एक नया इलाज एक नया चमत्कार बन कर सामने आ रहा है। गुजरात में मान्यता मिल जाने के बाद इसे अब देश के दुसरे राज्यों में ले जाने प्रयास भी जारी हैं। हालांकि इसका विरोध अभी भी हो रहा है लेकिन हर नए तरीके का विरोध होना एक पुराना सिलसिला है। यूँ भी एलोपैथी और आयुर्वेदिक  छत्तीस का आंकड़ा कोई नयी बात नहीं है। जब गेंहूँ के पौदे का जूस  पिलाने की बात चली थी तो उस समय भी इसका विरोध हुआ और इसे तभी स्वीकार किया गया जब  विदेश में इसके सफल परीक्षण सामने आये। इसलिए अब यह भी कहा जा सकता है कि थैलेसीमिया में इंसान को मानव रक्त चढ़ाने की एलोपैथी पद्धति पुरानी हुई, अब तो बकरे का खून चढ़ा कर बच्चों को भला चंगा किया जा रहा है। भारत विश्व का पहला ऐसा देश है,जहां इस पद्धति का  सफल प्रयोग हो रहा है और इसकी शुरुआत गुजरात से हुई। इस प्रक्रिया में एनिमा के जरिए बकरे के खून को बड़ी आंत तक पहुंचाया जाता है, जहां रक्तकणों को अवशोषित कर लिया जाता है। बकरे के खून में ब्लड ग्रुप, एड्स या अन्य किसी प्रकार के संक्रमण की चिंता नहीं रहती। हीमोग्लोबिन घटने की भी फिक्र नहीं रहती। अब तक सेंक्डों रोगी इस प्रक्रिया का लाभ उठा चुके हैं। अब इस पद्धति ने पंजाब में भी दस्तक दे दी है। यहाँ निस्वार्थ सेवा सोसायटी चला रहे एक हिम्मतवर इंसान लवली जैन ने पंजाब स्क्रीन को इसकी जानकारी दी। उन्होंने बताया कि वह इस सबंध में एक सेमिनार भी करवा चुके हैं जिसका लुधियाना में ही हुआ। 
निस्वार्थ सेवा सोसाइटी की ओर से गुरु नानक पब्लिक स्कूल में अयोयित थेलेसीमिया अवेयरनेस सेमिनार के दौरान गुजरात से आए डॉ.अतुल भावसर ने कहा कि थेलेसीमिया के मरीजों के लिए इंसान की वजाए बकरे का खून ज्यदा फयेदेमंद हैI गुजरात के शहर अहमदाबाद स्थित अखंडानंद आयुर्वेद अस्पताल के पंचकर्मा डिपार्टमेंट के हेड डॉ. भावसर ने कहा के थेलेसीमिया से पीड़ित बच्चों को हर 15-20 दिन बाद ब्लड चढ़ाना पड़ता है क्योंकि इस बीमारी की वजह से ब्लड के आरबीसी (रेड ब्लड सेल) तेजी से टूटते है। जिस कारण मरीज में हिमोग्लोबिन की कमी हो जाती है। थेलेसीमिया के मरीजों के लिए उन्होंने एक नई खोज की है। जिसके तहत बकरे का खून चढ़ाने पर मरीज को 15 -20 दिन की बजाय दो महीने बाद ही ब्लड चढ़ाने की जरुरत पड़ती है। कई मरीजों को 5 महीने बाद ही खून चढ़ाने की जरुरत पडती है। इसका कारण यह है कि बकरे के खून के आरबीसी जल्दी नहीं टूटते। जिससे मरीज में ज्यादा समय तक हीमोग्लोबिन की मात्रा सही बनी रहती है। डॉ. भावसर ने दावा किया कि इस भयंकर बीमारी से निपटने की कैपेसिटी एलोपैथी के मुकाबले आयुर्वेद में ज्यादा है। थेलेसीमिया में बकरे के खून के इस्तेमाल की पद्धति को गुजरात सरकार ने मान्यता दे दी है। इस पद्धति में मरीज को खून वेन की बजाय एनिमिया के  जरिए बड़ी आंत तक पहुंचाया जाता हैं। यह आंत जरुरत के मुताबिक खून को लेने के बाद बाकी बाहर निकाल देती है।  सोसायटी के प्रधान लवली जैन ने आए हुए अतिथियों का स्वागत किया। इस अवसर पर रमेश कपूर, वनीत जैन, मनीष जैन, अम्पिल जैन, अरिहंत जैन, हैप्पी भाटिया, गगन जैन, दर्शित जैन भी मौजूद रहे। 
खुद की अक्षम शरीरक अवस्था के बावजूद इतना बड़ा प्रोजैक्ट और इतने बड़े दान पुण्य और वह भी  स्वार्थ के किसी विशेष मनोबल के सहारे ही हो सकते हैं। हट्टेकट्टे होने के बावजूद  निराश और नाकाम लोगों के  लिए एक नयी मिसाल बन चुके लवली जैन विशेषज्ञों का हवाला देते हुए बताते हैं कि गुजरात सरकार के अहमदाबाद स्थित अखंडानंद आयुर्वेद अस्पताल का यह प्रयोग लाखों रोग ग्रस्त बच्चों और उनके परिजनों के लिए राहत की एक बड़ी खबर है। दरअसल, पीड़ित बच्चों को हर दो हफ्ते में दो-तीन बोतल मानव रक्त चढ़ाना पड़ता है। इसके बिना शायद उनका जीवित रहना  सम्भव न हो। बेहद महंगी और दर्द भरी होने के साथ ही इस प्रक्रिया में कई दिक्कतें भी आती हैं। वहीं, बकरे का खून दो से तीन माह में चढ़ाना पड़ता है। अस्पताल के प्रबंध निदेशक डॉ अतुल भावसार के इस इलाज का संक्षिप्त विवरण बताते हुए लवली जैन बताते हैं- थैलेसीमिया पीड़ित के रक्त में रेड सेल या रुधिर कणिकाएं टूटने लगती हैं जिससे हीमोगलोबीन घटने लगता है। परिणाम घातक होते हैं। इस हालत में किडनी, लीवर व हृदय में जहर फैल जाता है और पीड़ित की मौत हो जाती है। चूंकि बकरे के खून में लाल रक्त कणों की मात्रा अधिक होती है। इसकी संरचना जटिल होने से रक्त कण आसानी से नहीं टूटते हैं और ब्लड ट्रांस फ्यूज़न का समय और बढ़ जाता है जाता है। इससे खर्च और दर्द दोनों में कमी आती है। उन्होंने कहा, अस्पताल के थैलेसीमिया वार्ड में भर्ती गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के बच्चों पर किया गया प्रयोग सफल रहा है। 2010-11 से मार्च 2013 तक 130 बच्चे इस पद्धति का लाभ उठा चुके हैं। उन्होंने कहा,अहमदाबाद नगर निगम के स्लाटर हाउस से बकरे का रक्त मुफ्त मिलता है। अत: मरीजों को यह सेवा मुफ्त में दी जा रही है। भावसार के मुताबिक, यह पद्धति नई नहीं है बल्कि पांच हजार साल पुरानी है। आयुर्वेद में बकरे के रक्त को अजारक्त बस्ती कहा जाता है। महर्षि चरक की संहिता [चरक संहिता] में इसका उल्लेख है। साथ ही थैलेसीमिया पीड़ित बच्चों के उपचार में इसे उपयोगी बताया गया है।
भावसार ने कहा, गुजरात सरकार ने इस पद्धति को बढ़ावा देने को अहमदाबाद, जूनागढ, भावनगर व वडोदरा में इसके केंद्र खोलने को 25-25 लाख के अनुदान की घोषणा की है। कई अन्य राज्यों ने भी अपने यहां ऐसे केंद्र खोलने का सुझाव मांगा है।
एलोपैथी को सिस्टम को इस पद्धति की वैज्ञानिकता पर शक:
आयुर्वेदिक सिस्टम को एलोपैथी डाक्टर जल्दी से स्वीकार ही नहीं करते। हालांकि खुद एलोपैथी सिस्टम में बहुत बार मरीज़ों की जान जा चुकी है। ऐसे मामले भी हैं जब एलोपैथी सिस्टम को रोग ही समझ में नहीं आया। अब  इस मामले में भी एलोपैथी के डॉक्टर इस पद्धति को ठीक नहीं मानते। उन्हें आयुर्वेद की इस चिकित्सा पद्धति की वैज्ञानिकता पर शक है। उनका कहना है कि बच्चों को बकरे का खून चढ़ाना कतई वैज्ञानिक तथ्यों पर खरा नहीं उतरता। जानवर को संक्रमण हो या कोई वायरस हो तो वह बच्चे के आंत्र से सीधे खून में जाकर अंगों को नुकसान पहुंचा सकता है।  
यह पद्धति पंजाब में भी की जा सकती है लागु
अयुर्वेद विभाग पंजाब के डायरेक्टर डॉ. राकेश शर्मा ने बताया कि सरकार ने इस पद्धति को पंजाब में भी लागु करने की मंजूरी दे दी है।  संबंध में तीन डॉक्टरों की टीम बनाकर अहमदाबाद भेजी जा रही है जो वहां के अस्पताल में चल रही इस पद्धति का जायजा लेकर सरकार को रिपोर्ट देगी। रिपोर्ट आने पर इस बारे में अगला फैंसला लिया जाएगा। 

1 comment:

Unknown said...

Ap ki sanstha se keise sanmpark kare