Monday, March 24, 2014

INDIA: टीबी पर राजनीतिक दलों को चुप्पी तोड़ने की जरुरत

Mon, Mar 24, 2014 at 1:21 PM
An Article by the Asian Human Rights Commission  विश्व तपेदिक दिवस – 24 मार्च पर विशेष
                                                                                                                                   --प्रशांत कुमार दुबे
[भारत में हर दो मिनटों में तीन मौत, रोजाना 1000 लोगों की मौत और सालाना 3 लाख से ज्यादा मौतों के कारक टीबी रोग को गरीबों की बीमारी कहा जाता है| इस चुनावी मौसम में राजनीतिक दलों की पैनी निगाहों से आखिर क्यों यह मुद्दा छूट रहा है, यह समझ से परे है| इसी गंभीर मसले पर यह आलेख .......]
इस समय भारत में चुनावी चर्चा जोरों पर है| लोकतंत्र के इस पांच सालाना उत्सव के लिए हर कोई अपने-अपने हिस्से का चन्दन घिसने में लगा है| हर चौक-चौराहे पर आम आदमी से लेकर ख़ास आदमी के मुद्दों पर चर्चा है| यहाँ तक की अब आम आदमी की चाय की चुस्कियां भी अब राजनीति की सुगंध से प्रेरित हैं| टिकट वितरण की मारामारी के बाद राजनीतिक दल अब व्यंग्य बाण छोड़ने और आंकड़ों की बाजीगरी में लगे हैं| रोजाना नये-नए विज्ञापन सामने आ रहे हैं| यानी कुल मिलाकर चुनावी बाजार सज चुका है, हर तरफ मुद्दों की बोली है, लेकिन इस मुद्दों की मंडी से कुछ ऐसे मुद्दे छूटते जा रहे हैं जो कि बहुत जरुरी हैं| इसी तरह के एक बहुत ही जरुरी मुद्दे का नाम है टीबी यानी तपेदिक या यक्षमा|
टीबी कितना खतरनाक रोग है, यह इस बात से ही पता लगता है कि भारत में रोज लगभग 4 हजार लोग टीबी की चपेट में आते हैं और 1000 मरीजों की इस बीमारी की चपेट में आने से मौत हो जाती है| यानी हर दो मिनटों में तीन लोग टीबी (तपेदिक/यक्षमा) से मरते हैं | सालाना यह आंकड़ा 3 लाख के पार जाता है और मरने वालों में पुरुष, महिलाएं और बच्चे सभी होते हैं| विश्वभर में लगभग बच्चों की टीबी के सालाना 10 लाख प्रकरण सामने आते हैं, जो कि कुल टीबी के प्रकरणों का 10 से 15 फीसदी है। इस बीमारी का पांचवा हिस्सा भारत से आता है,भारत में विश्व के लगभग 21 फीसदी टीबी के मरीज हैं| यह इतना खतरनाक है कि हम सभी जानते हैं कि टीबी का सक्रिय जीवाणु साथ में लेकर चलने वाला व्यक्ति एक साल में 10-15 अन्य लोगों को संक्रमित कर सकता है| टी.बी. के कारण पारिवारिक आमदनी में हर साल औसतन 20 प्रतिशत तक का नुकसान होता है। और इसकी देश पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष वार्षिक लागत 23.7 अरब डॉलर आती है। यह सब भी तब है जबकि टीबी एक ऐसी बीमारी है जिसका इलाज और रोकथाम संभव है|
भारत जैसे देश में यह आंकड़ा इसलिये भी ज्यादा है क्योंकि भारत में कुपोषण बहुत है| सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय द्वारा 2012 में जारी रिपोर्ट के अनुसार भारत में लगभग आधे बच्चे (48 फीसदी) कुपोषित हैं। वर्ष 2012 में ही तत्कालीन प्रधानमंत्री ने हंगामा रिपोर्ट जारी करते हुए इसे राष्ट्रीय शर्म माना था| यह बच्चों की मौतों के 10 उच्च संभावना वाले कारणों में से एक है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार इस साल 90 लाख टीबी रोगी मे से 10% से 15% टीबी रोगी 14 वर्ष व उससे कम उम्र के बच्चे हैं जिनको इलाज की ज़रूरत होगी। यह आंकड़ा दिन प्रति दिन बढ़ता रहेगा| यदि हम बच्चो में टीबी संक्रमण को रोकने में विफल रहे। चूंकि बच्चो में टीबी संक्रमण का एक प्रमुख कारण बड़ों की टीबी है, अतः बच्चों में टीबी संक्रमण को रोकने के लिए परिवार के सदस्यों व अभिभावकों की टीबी के बारे में साक्षरता बहुत ज़रूरी है।
मध्यप्रदेश में इन दिनों हर त्रैमासिकी में लगभग 4000 ऐसे नये बच्चे सामने आ रहे हैं जिनमें टीबी के प्राथमिक लक्षण मिलते हैं यानी हर साल ऐसे 16,000 बच्चे सामने आ रहे हैं| मध्यप्रदेश बच्चों में होने वाली टीबी के लिए इसलिए भी संवेदनशील है क्यूंकि मध्यप्रदेश में कुपोषण चरम पर है| प्रदेश का हर दूसरा बच्चा कुपोषित है| प्रदेश में लगभग 52 लाख बच्चे कुपोषित हैं और इनमें से 8.8 लाख बच्चे ऐसे हैं जो कि गंभीर रूप से कुपोषित हैं| प्रदेश शिशु मृत्यु दर में भी अव्वल है और हर साल यहाँ लगभग 1,20,000 बच्चे दम तोड़ते हैं और उनमें से एक बड़ा हिस्सा टीबी से ग्रसित बच्चों का भी है| मध्यप्रदेश की ताजा सच्चाई यह है कि 6 वर्ष तक की उम्र के बच्चों को जहां हर रोज 1200 से 1700 कैलोरी ऊर्जा का भोजन मिलना चाहिये वहां आज उन्हें 758 कैलोरी ऊर्जा का भोजन ही मिल पा रहा है। एक मायने में उन्हें हर रोज केवल एक समय का भोजन मिल रहा है।
आखिर इतने विकराल और खतरनाक रोग के बावजूद भी यह रोग उतनी चर्चा में क्यों नहीं है? आखिर क्यों राजनीतिक दल इसे प्राथमिकता से क्यों नहीं देखते हैं और क्यों नहीं यह राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों में स्थान पाता है| राजनीतिक दलों के साथ-साथ सरकार ने भी इसे नजरअंदाज किया है| टीबी पर काम कर रहे संगठनों की लाख कोशिशों के बावजूद भी प्रधानमन्त्री ने अभी तक इस गंभीर बीमारी को लेकर अपना कोई भी सन्देश जारी नहीं किया है| विगत वर्ष 24 मार्च को राष्ट्रपति महोदय ने सन्देश जारी कर इस रोग के होने वाले खतरों और इसकी विभीषिका से आगाह किया था| लेकिन हम सभी जानते हैं कि केवल संदेशों से ही रोग खतम नहीं किये जा सकते हैं, उसके लिए राजनीतिक प्रतिबद्धता की आवश्यकता है| ज्ञात हो कि हमने हाल ही में पोलियो पर विजय पाई है जो कि हम टीबी जैसे रोगों को कम करने और उससे निजात दिलाने में भी पा सकते हैं|
टीबी को गरीबों की बीमारी कहा जाता है शायद इसलिये भी यह मुद्दा सरकारों और राजनीतिक दलों की प्राथमिकता में नहीं है| यह मुद्दा सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़ा एक अहम मुद्दा है| टीबी के बढ़ते मामलों और लगातार गंभीर होती इस बीमारी के लिए देश भर की 170 संस्थाओं के समूह, पार्टनरशिप फॉर टीबी केयर ऐंड कंट्रोल इंन इंडिया (पीटीसीसी) ने अब राजनीतिक दलों से उनके घोषणा-पत्र में टीबी को स्वास्थ्य के एक अहम मुद्दे के रूप में शामिल करने की वकालत की है। पीटीसीसी के चेयरमैन, डॉ़ एस एन मिश्रा कहते हैं कि अगर हमें टीबी की जंग को जीतना है तो हमें सार्वजनिक रूप में टीबी की जांच के लिए हाई क्वालिटी के उपकरण और ट्रीटमेंट की जरूरत है, जिसके लिए राजनीतिक दलों के एक्टिव सपोर्ट की बहुत जरूरत है। टीबी एक ऐसी बीमारी है जिसका इलाज संभव है, लेकिन इसके लिए समाज में अस्वीकार्यता है और लोग खुल कर बीमारी के बारे में बात या इलाज नहीं करते।
आज टीबी को लेकर देश मैं माहौल बनाने की, बेहतर सुविधायें मुहैया कराने की, अन्तर्विभागीय समन्वय की, पोषण के साथ जोड़कर देखने की, इससे लड़ने के लिए पर्याप्त बजट उपलब्ध कराने की तत्काल आवश्यकता है| यह तभी संभव है जबकि राजनीतिक दल इस पर ध्यान दें और अपनी प्रतिबद्दता दोहरायें| ध्यान रहे कि इससे पहले भी यह कवायद कई बार की जा चुकी है पर टीबी के मामले में राजनीतिक दलों की और से निराशा ही हाथ लगी है| पिछले लोकसभा चुनाव में भी दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों(कांग्रेस और भाजपा) ने इस मसले पर चुप्पी साध ली थी| इसके विपरीत मध्यप्रदेश के हालिया संपन्न विधानसभा चुनावों ने निश्चित रूप से इस पर प्रतिक्रिया देते हुए दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों ने अपने चुनावी घोषणा पत्रों में इस बीमारी से जुड़े पहलुओं पर स्पष्ट रूप से बात की थी| अब यही उम्मीद है कि मध्यप्रदेश की तर्ज पर ही इस बार सभी प्रमुख राजनीतिक दल इस मुद्दे की तरजीह देंगे और इसके समूल नाश हेतु अपनी प्रतिबद्धताओं को दोहराएंगे|
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About the Author: Mr. Prashant Kumar Dubey is a Rights Activist working with Vikas Samvad, AHRC's partner organisation in Bhopal, Madhya Pradesh. He can be contacted at prashantd1977@gmail.com
About AHRC: The Asian Human Rights Commission is a regional non-governmental organisation that monitors human rights in Asia, documents violations and advocates for justice and institutional reform to ensure the protection and promotion of these rights. The Hong Kong-based group was founded in 1984.

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