Wednesday, February 12, 2014

उस शिक्षा ने ही मुझे किसी भी सांसारिक भटकाव से रोका

मेरे गृहस्थ जीवन के हर कोने में आज भी उन की सीख का प्रकाश है

मुझे कुछ कहना है …

पढने लिखने से मुझे बचपन से बहुत लगाव  था |मैंने बहुत वर्ष स्कूल कालेज की पढाई की | उन दिनों ग्रेज्युएशन सेमिस्टर  सिस्टम में होता था जिस में तीन मुख्य विषयों के साथ "रिलिजियन और कल्चर "एक अनिवार्य विषय था इस के साथ साथ एक और  वैकल्पिक विषय लेना पड़ता था |मैंने मुख्य विषयों में हिंदी साहित्य अंग्रेजी साहित्य और सितार (संगीत वादन) को चुना |लेकिन अध्यापक गण  और माता  पिता के बहुत समझाने के बावजूद भी मैंने  हर सेमिस्टर  में अपने  वैकल्पिक विषयों को बदला जिस से मैं अधिक से अधिक विषयों की जानकारी प्राप्त कर सकूं | ग्रेज्युएशन  के बाद मैंने लॉ किया।  इनकम टेक्स और सेल टैक्स में विशेषता प्राप्त की और साथ साथ सितार में एम् ए  भी किया। लॉ करने के बाद मैं मुंसिफ मजिस्ट्रेट के कम्पीटीशन की तैयारी कर रही थी और क्योंकि उस में एक पेपर उर्दू का भी था इसलिए मैंने उर्दू लिखनी और पढनी भी सीखी।उसी बीच मेरा विवाह होगे जो माता पिता द्वारा नियत किया गया था और विवाह के तुरंत बाद ही मैं  मारीशस  आ गयी। 

 इस के साथ साथ मेरे छोटे भाई जो साइंस लेकर पढ़ रहे थे मैं उन की पुस्तकों को पढ़ कर भी साइंस का कुछ ज्ञान बटोरने की कोशिश में रहती थी | मैंने जेबखर्च और त्योहारों पर मिले पैसे हमेशा पुस्तकों को खरीदने में लगाए | पढने का शौक इस पागलपन की हद तक था कि अपने शहर के लगभग सभी पुस्तकालयों की मैं सदस्या थी | 
                          ये सब कुछ लिख कर मैं ये जताने की कोशिश नहीं कर रही हूँ कि मैंने बहुत पढ़ा है  मैं तो बहुत विनम्रता से बस ये कहना तो चाह  रही हूँ कि  वो सब पढ़ा लिखा उन्ही किताबों में, कक्षाओं की दीवारों के भीतर ही कहीं रह गया और आज मैं अपने  जीवन की एक गहन सच्चाई को प्रस्तुत करने की चेष्टा कर रही हूँ | और वो सच्चाई ये है कि  इतना कुछ पढने लिखने के बावजूद मेरा व्यतिगत जीवन, पारिवारिक जीवन और मेरा सामाजिक जीवन आज यदि भली भांति चल रहा है तो उस का श्रेय  उन पुस्तकों का नहीं वरन मेरी दादी जी ,मेरी माँ, पापा चाची  चाचा जी  और आसपास के बुजुर्ग जनों द्वारा समय समय पर दिया वो ज्ञान ,वो अनुभव और वो सीख है जिस ने मुझे जीवन की हर परीक्षा में उत्तीर्ण होने की योग्यता और क्षमता प्रदान की |

अपने धर्म संस्कृति पर गर्व पैदा कर के मुझे किसी भी सांसारिक भटकाव से रोका, मेरे अन्दर वैदिक संस्कृति का वंशज होने का गौरव प्रदान किया | मेरे गृहस्थ जीवन के हर कोने में आज भी उन की सीख का प्रकाश है | मुझे ये सोच सोच कर अत्यधिक  मानसिक कष्ट होता है कि मैं अपने बच्चों को चाह कर भी वो स्वर्गिक वातावरण नहीं दे पायी। सच में ये हमारा कितना बड़ा दुर्भाग्य  है कि  हम अपनी संतान को वो कुटुंब प्रथा का सौभाग्य नहीं दे पा रहे हैं |

हम  अपनी संतान को रोजी रोटी कमाने के योग्य तो बना पा रहे हैं लेकिन उसे एक आदर्श मानव बनाने से चूक रहे हैं | हम उन्हें वृहद परिवार से मिलने वाले उस दुर्लभ ज्ञान से वंचित कर रहे हैं जो उसे समाज में सब से मिलजुल कर रहना ,मिल  बाँट कर जीना दुःख सुख का भागीदार होना सिखाता है  एकाकी परिवार में पला व्यक्तित्व अक्सर  "इकलखुरा "बन जाता है |और वो इकलखुरापन स्वार्थ  की परिभाषा में चहुँ और द्रष्टिगोचर है |हमारी कुटुंब प्रथा को आज अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनाकर अनेक अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने जन्म लिया।  संयुक्त राष्ट्र  संघ ,यूरोपियन यूनीयन ,अंतर्राष्ट्रीय विकास संघ,अफ्रीकी देशों का संघ इत्यादि हमारे सम्मिलित परिवार की रचना से तैयार किया गया  ही रूप हैं।  ……………. मधु गजाधर 

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