Tuesday, January 07, 2014

सुन्दर पृथ्वी की तीन पूंजीयां (संसाधन, स्वास्थ्य और सत्व)

Kanhaiya Jha                                                                                                           Tue, Jan 7, 2014 at 11:33 AM
(Research Scholar)
Makhanlal Chaturvedi National Journalism and Communication University, Bhopal, Madhya Pradesh
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1930 के दशक में पश्चिमी राष्ट्रों में मंदी का दौर था. सामान्य उपयोग की वस्तुओं के दाम आसमान छू रहे थे. ऐसे में विश्व प्रसिद्ध अर्थशास्त्री कीन्स ने आने वाली पीढ़ियों के बारे में सोचकर यह कहा की कि वह दिन दूर नहीं जब सभी अमीर होंगे और जब सब अमीर हो जायेंगे तो अमीर-गरीब का झगड़ा भी ख़त्म होगा और सब जगह शान्ति हो जायेगी. उनका यह विश्वास उत्पादन तंत्र की शक्ति पर आधारित था. इसके लिए त्याग, चरित्र आदि भली चीज़ों की कोई आवश्यकता नहीं होगी. बल्कि लालच, ईर्ष्या, सूदखोरी पर आधारित उत्पादन तंत्र उपभोग की सभी वस्तुएं प्रचुर मात्रा में और सस्ते दामों में उपलब्ध कराएगा. विश्व में सभी मनुष्य अनेक सदियों तक पूर्ण भोग करते हुए रह सकेंगे. कीन्स की बात के 80 वर्ष पश्चात भी सभी के अमीर होने की कोई सम्भावना नज़र नहीं आती. बल्कि 70 के दशक में प्रसिद्ध अर्थशास्त्री शुमाखर की चेतावनी सही साबित हुई कि मध्य एशिया एवं उत्तरी अफ्रीका के देश उत्पादन तंत्र की जरूरत खनिज ईंधन भण्डार की वजह से अनेक युद्धों की विभीषिका झेलेंगे.  
उत्पादन तंत्र की तीन पूँजियाँ  
पिछली तीन सदियों से उत्पादन के तरीकों में जबरदस्त सुधार हुए हैं, परन्तु अभी तक ऐसा उत्पादन तंत्र नहीं बन पाया जिसमें प्रथ्वी की सुन्दरता बनी रहे. उत्पादन में प्रयोग आने वाले कच्चे माल के लिए हर वर्ष जंगल काटे जा रहे हैं. खनिज ईंधन के उपयोग से बडे शहरों में प्रदूषण लगातार बढ़ रहा है, क्योंकि  उत्पादन तंत्र - बिजली संयंत्रों आदि के लिए खनिज ईंधन का उपयोग बढ़ता जा रहा है. जंगलात, खनिज ईंधन, कच्चा माल आदि को खनन कंपनी वाले अपने निवेश पर आय समझते हैं, परंतू धरती में इनकी सीमित मात्रा होने की वजह से इन्हें पूंजी मानना चाहिए, जो मानव जाति को उधार रूप में प्राप्त हुई है. आज उपभोग के लिए उत्पादन तंत्र से कारें, हवाई जहाज, कम्पयूटर्स आदि उपलब्ध हैं, जिनका अधिक से अधिक उत्पादन कर विश्व के सभी देशों में कुल उत्पाद अर्थात जीडीपी बढाने की होड़ है. परंतू स्वस्थ विकास के लिए प्रथ्वी को सुन्दर रखने की भी होड़ होनी चाहिए.  
पिछली शताब्दी के सत्तर के दशक में अर्थशास्त्री शुमाखर ने अपनी थीसिस Small is beautiful में खनिज के साथ-साथ दो और पूंजियों का भी ज़िक्र किया. प्रदूषण का कारण केवल खनिज ईंधन नहीं हैं. उत्पादन तंत्र के अनेक प्रकार के कचरे को या तो जमीन में दबा दिया जाता है या नदियों अथवा समुद्र में बहा देते हैं. नाभिकीय ऊर्जा संयंत्रों का कचरा तो इतना भयावह है कि केंसर जैसी बीमारियों का कारण बन सकता है, और हठी इतना है की २५ हज़ार साल प्रथ्वी में दबा रहने के बाद भी हानिकारक ही रहता है.   मनुष्य के साथ-साथ प्रत्येक जीव-जंतु एक निश्चित मात्रा से अधिक प्रदूषण नहीं झेल सकता. इस प्रकार सभी प्राणियों का जीवन भी एक पूंजी बन जाता है. जीव-जंतुओं की विविधता तथा सभी प्राणियों से आत्मीय सम्बन्ध बनाने का अवसर - इन सब के कारण ही तो प्रथ्वी पर जीवन सुन्दर है. देखा जाए तो प्रथ्वी पर इस पूंजी के अलावा और है क्या? इसी आनंद के विस्तार के लिए ही तो भारतीय जीवन दर्शन सभी प्राणियों में एक ही परम आत्मा के दर्शन करने की सलाह देता है. उत्पादन तंत्र से निकलने वाले कचरे की मात्रा लगातार बढ़ रही है, और इस प्रकार मानव जाति की इस पूंजी का भी सही उत्पादन तंत्र न होने के कारण ह्रास हो रहा है.   
तीसरी बड़ी पूंजी उत्पादन की दौड़ में लिप्त मनुष्य स्वयं खुद है. क्या कोई व्यक्ति ख़ुशी-ख़ुशी उन खानों में काम करने जाएगा जहां हर समय जान का ख़तरा बना हुआ है. अधिक लाभ के लिए उत्पादकता बढ़ाने पर जोर देना, मजदूरों को नियंत्रण में रखने के लिए अनेक कूटनीतियाँ - उत्पादन में लगे मालिक, मजदूर सभी इन दबावों में रोजाना अप्राकृतिक व्यवहार करते-करते स्वयं विकृत होने लगते हैं. फिर ये व्यवहार कार्य-स्थल तक ही सीमित नहीं रहते, बल्कि परिवार में विशेषकर बच्चों को, समाज में मिलने-जुलने वालों को 'प्रदूषित' करते हैं. उत्पादन प्रक्रिया के कारण तनावों को समाज में बढते हुये अपराध, नशाखोरी, तोड़-फोड़, विद्रोह आदि से जोड़ा जा सकता है. पारिवारिक हिंसा इन्हीं तनावों का छिपा हुआ लक्षण है. बच्चों की शिक्षा से इस प्रदूषण का फैलाव कम किया जा सकता है. परन्तु आज की युवा पीढ़ी में बढ़ती हुई असामाजिक प्रवृत्तियाँ किसी राहत की ओर इशारा नहीं करतीं. मनुष्यत्व या मनुष्य का सत्व अथवा साधारण भाषा में चरित्र प्रथ्वी वासियों के लिए एक पूंजी है. इस पूंजी के ह्रास को नापने का कोई पैमाना नहीं है, परंतू यह निश्चित है कि उत्पादन प्रक्रिया से इस पूंजी का भी ह्रास हो रहा है.
Small is Beautiful
शुमाखर ने एक नए उत्पादन तंत्र की कल्पना दी जिसमें बड़ी पूँजीबड़ी योजनाओं के स्थान पर छोटी पूँजी तथा छोटी योजनाओं को अपनाने की सलाह दी, जिसको विकासशील देश आसानी से अपना भी सकते थे. परन्तु जल्दी से अमीर बनने के लोभ में लगभग सभी राष्ट्रों ने पश्चिमी देशों द्वारा सुझाए गए नव-उदारवाद को चुना, तथा उपरोक्त तीनों पूंजियों की अवहेलना की गयी. उत्पादन तंत्र की विनाशकारी गति को खनिज ईंधन के उपयोग के आंकड़ों से ही सिद्ध किया जा सकता है. सत्तर के दशक  में प्रतिवर्ष 700 करोड़ टन कोयले के बराबर ईंधन का उपयोग होता था जो लगभग 30 वर्ष में अर्थात सन 2000 में तिगुना होकर 2100 करोड़ टन कोयले के बराबर हो गया, और सन2030 तक यह फिर तिगुना हो कर 6300 करोड़ टन प्रतिवर्ष हो जाएगा.
आज विकास की महत्वाकांक्षाएं - जीडीपी की दहाई में विकास दर आदि, मालिक बनकर पूरे उत्पादन तन्त्र को ठेल रहीं हैं. उस विकास दर को पाने के लिए यदि पूरी ऊर्जा नहीं मिली तो उत्पादन बढाने के लिए विदेशी निवेश नहीं मिलेगा. फिर ऊर्जा के लिए यदि जंगलों की कटाई जरूरी है तो वह करनी ही होगी चाहे उसके लिए असंख्य लोग बेघर हो जाएँ अर्थात विकास की महत्वकांक्षा पाप में धकेल रही है.
वर्णाश्रम व्यवस्था
वस्तुतः भोगों की उचित मात्रा तो तय करनी ही होगी. इस विषय पर अपने ही देश में सदियों से चली आ रही वर्णाश्रम व्यवस्था को समझा जाए उसे आज के अनुरूप बनाया जा सकता है. वर्णाश्रम व्यवस्था में चार आश्रम एवं चार वर्णों का योग है. इस के साथ चार पुरुषार्थ भी जुड़ें हैं:-
            ब्रहमचर्य      शूद्र          धर्म
            गृहस्थ       वैश्य         अर्थ
            वानप्रस्थ      क्षत्रिय        काम
            संन्यास       ब्राह्मण       मोक्ष
इस व्यवस्था में एक मुख्य बदलाव तो यह किया जाए कि वर्णों को जन्मजात न  माना जाये. अर्थात जन्म के समय हर मनुष्य शूद्र हो, क्योंकि वह अभी अज्ञानी है. ब्रहमचर्य में प्रथम पचीस वर्ष शिक्षा प्राप्त कर वह धनोपार्जन के लिए तथा परिवार चलाने के योग्य बने. पुरुषों के विवाह के लिए २५ वर्ष की आयु उपयुक्त है. अगले पचीस वर्ष गृहस्थ में वह पूरी शक्ति से धन कमाए. २५ वर्ष में इतना धन कमाया एवं बचाया जाना चाहिए जिससे बाकी के जीवन में कमाई के लिए अधिक प्रयास न करते हुए भी निर्वाह हो सके. वानप्रस्थ का समय देश, समाज एवं विश्व के लिए कुछ करने के लिए होना चाहिए. देश ने शिक्षा व्यवस्था के द्वारा ज्ञान दिया, समाज ने परिवार का सुख दिया. यह सही है कि अपनी आय में से सरकार को टैक्स दिया. परंतू अपने ५० वर्ष के अनुभव का लाभ देश आदि को मिले, जिससे कि आगे आने वाली पीढ़ी बेहतर प्रथ्वी की हकदार बने. सन्यासी के पास तो और भी अधिक अनुभव है, जो की वास्तव में देश, समाज एवं विश्व की पूजी है. सरकार को इस पूंजी का उपयोग नयी पीढ़ी की शिक्षा के लिए कर सकती है, और इसके बदले उसे उनके भरण-पोषण की व्यवस्था करनी चाहिए. इस व्यवस्था से पूरे देश एवं समाज के भोगों पर भी एक नियंत्रण रहेगा. यदि ब्रह्मचर्य एवं गृहस्थ भोग में हैं तो वानप्रस्थ एवं संन्यास भोग छोड़ रहे हैं. 

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