Friday, May 31, 2013

असम के साथ भविष्य में भी विकास और समृद्धि का वादा

30-मई-2013 20:45 IST
संसद के लि‍ए फि‍र चुने जाने पर प्रधानमंत्री का संदेश 
बैंकांक से दिल्ली लौटते हुए प्रधानमन्त्री डाक्टर मनमोहन सिंह ने साथ गयी मीडिया मंडली के सदस्यों से भी एक प्रेस वार्ता की।इस अवसर पर उनके साथ विदेश मन्त्र सलमान खुर्शीद भी थे। (पीआईबी फोटो)
यह मेरे लि‍ए सम्‍मान की बात है कि‍ असम की जनता ने अपने नि‍र्वाचि‍त प्रति‍नि‍धि‍यों के जरि‍ए एक बार फि‍र मुझे सेवा का अवसर दि‍या है। मैं 1991 से असम का प्रति‍नि‍धि‍त्‍व कर रहा हूं और इस अवधि‍ में यह मेरा लगातार प्रयास रहा है कि‍ मैं अपनी योग्‍यतानुसार राज्‍य के वि‍कास और समृद्धि के लि‍ए काम करूँ। मैं वादा करता हूं कि‍ भवि‍ष्‍य में भी मैं इन प्रयासों को जारी रखूंगा। 

एक बार फि‍र मैं असम की जनता और वि‍धानसभा के नि‍र्वाचि‍त सदस्‍यों को मेरे प्रति‍ वि‍श्‍वास, प्‍यार और स्‍नेह के लि‍ए धन्‍यवाद देता हूं। मैं कांग्रेस अध्‍यक्ष श्रीमती सोनि‍या गांधी और अनगि‍नत कांग्रेस जनों को धन्‍यवाद देता हूं जि‍न्‍होंने एक बार फि‍र मेरे लि‍ए असम का प्रतिनि‍धि‍त्‍व करना संभव बनाया। 
(PBI)                                वि. कासोटिया/अजि‍त गांधी/सुजीत-2570

Thursday, May 30, 2013

Rama Setu - An Engineering Marvel of 5076 BCE

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Rajiv Dixit on History

Story of Aurobindo Ghosh and Saheed Udham Singh :Rajiv Dixit

What Shaheed Bhagat Singh Predicted : Rajiv Dixit

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नक्सली हिंसा का प्रतिकार विकास से हो

आम आदिवासी की आज़ादी पूर्णत: छिन चुकी है--राजीव गुप्ता
अमेरिकी मार्क्सवादी नेता बाब अवेकिन के शब्दों में किसी भी प्रकार की क्रांति न तो बदले की कार्यवाही है और न ही मौज़ूदा तंत्र की कुछ स्थितियों को बदलने प्रक्रिया है अपितु यह मानवता की मुक्ति का एक उपक्रम है. परंतु मानवाधिकार को ढाल बनाकर भारत की धरा को मानवरक्तिमा से रंगने वालें
“बन्दूकधारी-कारोबारियों” को बाब अवेकिन की यह बात समझ नही आयेगी. भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी (माओवादी) की दंड्कारण्य स्पेशल ज़ोनल कमिटी के प्रवक्ता गुड्सा उसेंडी ने इस हमले की जिम्मेदारी लेते हुए बताया कि 25 मई को कांग्रेस की परिवर्तन रैली पर हमला इसलिये किया था क्योंकि इन्हे सलवा ज़ुडूम के प्रणेता महेन्द्र कर्मा को मारकर बदला लेना था. केन्द्र-सरकार जब नेताओं की सुरक्षा नही कर सकती और उसकी नाक के नीचे से इन नक्सलियों के पास अत्याधुनिक हथियार और पैसे पहुँचते है तो आम जनता की सुरक्षा तो भगवान भरोसे ही है. सरकार व नक्सलियो के बीच आम आदिवासी मात्र शरणार्थी बनकर रह गया है. न कोई प्राकृतिक आपदा आई, न कोई महामारी फैली परन्तु फिर भी आम आदिवासी को सरकार के राहत शिविरों मे रहना पड रहा है. देखते ही देखते पूरा क्षेत्र राहत शिविरों से पट  गया. जंगल मे राज़ा की भाँति विचरण करने वाला आदिवासी राहत शिविरों मे रहकर सरकारी दिनचर्या के हिसाब से जीने को मजबूर हो गया. उसके लिये इधर कुआँ उधर खाई वाली कहानी बन गई है. सरकार की बात करेगा तो नक्सली की गोली खानी पडेगी और अगर राहत शिविर छोडकर जायेगा तो नक्सली का जासूस कहकर सरकार की गोली खानी पडेगी. उसकी आज़ादी पूर्णत: छिन चुकी है या यूँ कहे कि उसके लिये अब आज़ादी के मायने ही बदल चुके है.         
देश की विकास-धारा को गति देने वाला छत्तीसगढ देश का 20 प्रतिशत स्टील और 18 प्रतिशत सीमेंट का उत्पादन करता है. परंतु यह देश का दुर्भाग्य ही है कि नक्सलवाद के चलते छत्तीसगढ में उथल-पुथल मची हुई है. शायद नक्सली समर्थक अपने कुतर्कों के आधार पर आम आदिवासी को पूरी तरह बरगालाने मे सफल हो गये है कि सराकर के विकास का अर्थ है उनसे उनकी संपदा से बेदखल कर देना. केन्द्र सरकार को छत्तीसगढ को विशेष तौर पर अलग से आर्थिक मदद उडीसा के कालाहांडी की तर्ज़ पर देना चाहिये क्योंकि अकेले छत्तीसगढ में 32 प्रतिशत आदिवासी है और जबतक उन्हे सडक या रेल तंत्र से जोडा नही जायेगा विकास का असली अर्थ ये भटके हुए आदिवासी नही समझ पायेंगे. जल्दी से जल्दी जयराम रमेश द्वारा 50 करोड रूपये की मूल्य के प्रोजेक्ट गवर्नेंस एंड एसिलरेटेड लाईवली हुड्स सिक्योरिटी प्रोजेक्ट्स स्कीम (गोल्स) को लागू किया जाय. ताकि इस प्रोजेक्ट के द्वारा असमानता की खाई को पाटा जा सके. अन्यथा नक्सली समर्थक नेताओं व गैर सरकारी संगठनो के चंगुल मे फँसकर ये भटके हुए आदिवासी यूँ ही बन्दूक उठाते रहेंगे. अत: जितनी जल्दी हो सके केन्द्र व राज्य सरकार मिलकर इस भयंकर समस्या को समय रहते सुलझा लेना चाहिये.
यह एक शाश्वत है कि किसी भी विचार से शत-प्रतिशत सहमत व असहमत नही हुआ जा सकता. इसके लिये लोकतंत्र मे तर्काधारित संवाद किया जा सकता है और अपने वैचारिक प्रकटीकरण के लिये संविधान ने हमें यह व्यवस्था दी है. नीतियों मे न्यूनता हो सकती है, जिसे समयानुसार संशोधित किया जा सकता है परंतु संविधान द्वारा प्रदत्त लोक-कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना को ही धराशायी करने का अधिकार किसी को कैसे दिया जा सकता है. हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि लोकतंत्र में संवाद वह हथियार है जिसकी मदद से कोई भी जंग न केवल जीती जा सकती है अपितु संपूर्ण मानवता की भी रक्षा की जाती है. कोई भी देश वहाँ के निर्मित संविधान से चलता है परंतु स्थिति ज्यादा खतरनाक तब हो जाती है जब आम जनता को संविधान के खिलाफ ही भडकाकर उन्हे हथियार उठाने के लिये विवश कर दिया जाता हो. परंतु कुछ चिंतक-वर्ग अपनी कुंठित मानसिकता के चलते देश को अराजकता के गर्त मे ढकेल कर एक गृह-युद्ध आरंभ करना चाहते है. देश के नीति-निर्मातों को देश-विरोधी हर अभियान को हर स्तर पर अलग-थलग कर उसका बहिष्कार करने के लिये जो भी कठोर फैसले लेना हो तत्काल लेना चाहिये ताकि भारत की धरती पुन: ऐसी रक्त-रंजित न हो.    
इस सच्चाई को नकारा नही जा सकता कि आज़ादी के बाद से लेकर आजतक आदिवासियों के विकास के लिये जो भी कदम उठाया गया वह उस आदिवासी के शरीर की सभी 206 हड्डियों को मज़्ज़ा से ढकने के लिये नाकाफी रहा. आज भी उन्हे दो जून की रोटी व पीने के लिये पानी नसीब नही है. ऐसे मे उनके लिये विकास की बात करना मात्र एक छ्लावा है और शहरों की चमचामाती सडके और गगनचुम्बी इमारतें उनके लिये अकल्पनीय है. जिसका लाभ लेकर अरुन्धती राय सरीखे लोगों द्वारा आदिवासियों को सत्ता के खिलाफ बन्दूक उठाने के लिये प्रेरित व विवश किया जाता है. यही वें लोग हैं जो आम आदिवासी को यह समझाते है कि सत्ता द्वारा तुम्हे तुम्हारी संपत्ति से बेदखल कर तुम्हे विस्थापित कर दिया जायेगा. यह ठीक है कि कोई भी स्वस्थ समाज यह सहन नही कर सकता कि उसकी ही धरती पर उसे विस्थापित होकर रहना पडे. आज भी सरकार आम-जन को उसकी संपदा के अधिग्रहण का मुआवज़ा देती ही है. मुआवजे की राशि व प्रकृति को लेकर विवाद हो सकता है परंतु अगर कोई अपनी संपदा ही नही देगा तो सरकार विकास की इबारत कहाँ लिखेगी. सरकार यह सुनिश्चित कर उन आदिवासियों का भरोसा जीतकर वहाँ विकास मार्ग प्रशस्त करें कि इन आदिवासी क्षेत्रों मे यदि कोई आदिवासी विस्थापित होता है तो उसकी संपूर्ण जिम्मेदारी सरकार की होगी. इस प्रकार का कोई भी संवाद आदिवासियों द्वारा सरकार से किया जा सकता है. उन आम आदिवासियों को यह भी समझना होगा कि जो सडक उनके जंगल-खेत-खलिहानों से होकर गुजरेगी वही सडक उनकी इस असमानता को दूर करेगी क्योंकि वर्तमान समय में सडकें ही विकास का प्रयाय है. यदि उनके बच्चे स्कूलों में शिक्षा लेंगे, देश-समाज को समझेंगे, संचार माध्यमों से जुडेंगे तभी तो वे भी भविष्य में देश के विकास मे भागीदार होंगे. सत्ता से सशस्त्र ट्कराव करना कोई बुद्धिमानी नही है क्योंकि जिस भी दिन इनके “प्रेरणा-पुंजों” को नियंत्रण मे लेकर  सत्ता यह दृढ निश्चय कर लेगी कि इन आदिवासियों के पास हथियार नही पहुँचने चाहिये उस दिन इन आदिवासियों के पास मात्र आत्मसमर्पण के अलावा और कोई दूसरा विकल्प नही रह जायेगा. पंजाब के आतंकवाद का दमन इस बात का एक जीता-जागता उदाहरण है. देर-सवेर इन भटके हुए आदिवासियों को विकास की इस धारा मे आना ही होगा. परंतु सरकार यदि उन भटके हुए आदिवासियों को समझाने में सफल हो गयी तो उन मानवधिकारवादी- कारोबारियों की जीविका कैसे चलेगी मूल प्रश्न यह है.        -राजीव गुप्ता (9811558925)


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Wednesday, May 29, 2013

फरीदकोट अपहरण काण्ड: दोषी निशान सिंह व अन्य को सजाएँ

जनता के एकजुट संघर्ष की बड़ी जीत करार
29 मई, लुधियाना। कारखाना मजदूर यूनियन, पंजाब, के संयोजक लखविन्दर, टेक्सटाइल हौजरी कामगार यूनियन, पंजाब के अध्यक्ष राजविन्दर, नौजवान भारत सभा के संयोजक छिन्दरापल व स्त्री मुक्ति लीग की नेत्री नमिता ने फरीदकोट अपहरण व बलातकार काण्ड के दोषी निशान सिंह को उम्र कैद व 9 अन्य को 7-7 वर्ष की कैद की सजा सुनाए जाने के अदालती फैसले का स्वागत करते हुए इसे जनसंघर्ष की बड़ी जीत करार दिया है। उन्होंने पीडि़तों को इंसाफ दिलाने के लिए संघर्ष करने वालीं वाले छात्रों, नौजवानों, मकादूरों, किसानों, बुद्धिजीवियों के जनसंगठनों को बधाई दी है। निशान सिंह व अन्य दोषियों को सजाए होना इस बात की पुष्टि है कि लोग जब एकजुट होकर संघर्ष करते हैं तभी वे इंसाफ हासिल कर सकते हैं। 31 दिसम्बर 2012 को संगरूर जिले के नमोल गाँव में अपनी नाबालिग छात्रा के साथ बलातकार करने वाले अध्यापक को उसके राजनीतिक सम्बन्धों के बावजूद लोगों के संघर्ष के कारण 23 मई को उम्र कैद की सजा होना भी इसी बात की मिसाल है। साथ ही उन्होंने कहा कि स्त्रियों के साथ हो रहे अपराधों को रोकने की राह भी जनता में चेतना पैदा करना और एकजुट जन आन्दोलन का निर्माण करना ही हो सकता है।
टेक्सटाइल-हौजरी कामगार यूनियन, पंजाब के अध्यक्ष राजविन्दर ने बताया कि 24 सितम्बर, 2012 को कत्ल, लूट व बलातकार जैसे 22 संगीन अपराधों में शामिल, गुण्डागर्दी के लिए मशहूर, सत्ताधारी अकाली दल के नेताओं से अच्छे सम्बन्ध रखने वाले निशान सिंह व उसके साथियों ने मिल कर नाबालिग लडक़ी को फरीदकोट स्थित उसके घर में से दिन दिहाड़े हथियारों के दम पर अगव कर लिया था और परिवार के सदस्यों की बुरी तरह से मार-पीट की थी। जब दोषियों के राजनीतिक सम्बन्धों के कारण पुलिस ने इस मामले में कोई गम्भीर कार्रवाई न की तो विभिन्न जनसंगठनों के नेतृत्व में बड़ी संख्या में लोग पीडि़त परिवार को इंसाफ दिलाने के लिए आगे आए। जनाक्रोश के आगे झुकी पुलिस ने कार्रवाई करते हुए 21 अक्टूबर 2012 को गोवा से लडक़ी को बरामद किया और दोषी को गिरफ्तार किया। इसके बाद भी पुलिस ने दोषी का साथ देना नहीं छोड़ा और तरह तरह की साजिशें रचकर देषियों को बचाने में लगी रही। इधर लोगों का गुस्सा बढ़ता गया जो दोषियों को सजा दिलाने के लिए बड़े स्तर पर अन्दोलन के रूप में सामने आया। दो महीने तक फरीदकोट शहर में बड़े स्तर पर धरने-प्रदर्शन होते रहे। आखिर जनसंघर्ष रंग लाया जिस तहत गुजरी 27 मई को मुख्य दोषी निशान सिंह को उम्र कैद और 9 अन्य को 7-7 वर्ष की कैद की सजा हुई जब्कि दस दोषियों को सबूतों की कमी के कारण बरी कर दिया गया। अकाली नेता डिम्पी समरा को भी 7 वर्ष की कैद की सजा सुनाई गई है। बरी किए गए दोषियों को सजा दिलाने के लिए पीडि़त परिवार और संघर्षशील संगठनों ने हाईकोर्ट में केस लडऩे का ऐलान किया है।
लखविन्दर, संयोजक, कारखाना मकादूर यूनियन पंजाब, (फोन नं.-9646150249)

Sunday, May 26, 2013

सभ्य समाज में ऐसे बर्बर कृत्यों के लिए कोई स्थान नहीं

बस्तर में कल हुए माओवादी हमले पर उपराष्ट्रपति का बयान 
देश और दुनिया को हिला कर रख देने वाले वाले बड़े और सुनियोजित हमले पर देश भर में तीखी प्रतिक्रिया का सिलसिला जारी है। उप राष्ट्रपति मोहम्मद हामिद अंसारी ने इसे कायरतापूर्ण बताते हुए कहा है कि किसी भी सभ्य समाज में इस तरह के बर्बर और सम्वेदना हीन हमलों की कोई जगह नहीं होती।इसी बीच प्रधानमन्त्री डाक्टर मनमोहन सिंह और राष्ट्रिय सलाहकार परिषद की चेयरपर्सन सोनिया गाँधी अपनी सभी व्यस्ततायों को बीच में ही छोड़ कर रायेपुर पहुँच गये।
बस्तर में कल हुए माओवादी हमले पर उपराष्ट्रपति मोहम्मद हामिद अंसारी ने कहा कि वे इस कायरतापूर्ण हमले की निंदा करते हैं जिसमें कई निर्दोष मारे गए जबकि कई अन्य घायल हो गये। उन्होंने कहा कि सभ्य समाज में ऐसे संवेदनाहीन और बर्बर कृत्यों के लिए कोई स्थान नहीं है। श्री अंसारी ने कहा कि चरमपंथ और हिंसा के सभी पक्षों से मुकाबला किया जाना चाहिए और उन्हें अपने बीच से मिटा देना चाहिए। 
इस हमले में मारे गए लोगों के परिवारों के प्रति अपनी शोक संवेदनाएं प्रकट करते हुए श्री अंसारी ने घटना में घायल हुए लोगों के शीघ्र स्वस्थ्य होने की भी कामना की। उप राष्ट्रपति ने कहा कि उनकी भावनाएं और प्रार्थनाएं इस कठिन समय में उनके साथ हैं। श्री अंसारी ने कहा कि ईश्वर उन्हें इस दुःख से उबरने में साहस और धैर्य प्रदान करे। 
प्रधानमंत्री ने नक्सली हमले में घायल हुए लोगों से मुलाकात की, पीड़ित परिवारों को सहायता और अपराधियों को सज़ा दिलाने का संकल्प जताया प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने कल छत्तीसगढ़ में हुई हिंसा में मारे गए लोगों के परिवारों के प्रति अपनी गहरी शोक संवेदनाएं व्यक्त की हैं। उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी के साथ रायपुर अस्पताल का दौरा करके घटना में घायल लोगों के शीघ्र स्वस्थ्य होने की कामना की। 
प्रधानमंत्री इस नृशंस हमले की निंदा करते हुए कहा कि इस तरह की घटनाओं से हिंसा के खिलाफ लड़ाई में देश की दृढ़ता में कमजोरी नहीं आएगी। प्रधानमंत्री ने कहा कि इस हमले के जिम्मेदार अपराधियों को जल्द ही कानून के दायरे में लाया जाएगा। उन्होंने देश को आश्वासन भी दिया कि सरकार अपराधियों को सज़ा दिलाने के प्रति वचनबद्ध है। 
उन्होंने राज्य प्रशासन से घायलों को सर्वश्रेष्ठ चिकित्सा उपचार देने को कहा। डॉ. मनमोहन सिंह ने घटना में मारे गए लोगों के परिवारों को प्रधानमंत्री के राष्ट्रीय राहत कोष से पांच लाख रुपए और घायलों को 50 हजार रुपए की सहायता राशि देने की घोषणा की। 
प्रधानमंत्री ने राज्य के मुख्यमंत्री और वरिष्ठ अधिकारियों के साथ छत्तीसगढ़ में सुरक्षा स्थिति का भी जायजा लिया। उन्होंने स्थिति से निपटने के लिए राज्य को हर संभव सहायता देने का भी आश्वासन दिया। 
डॉ मनमोहन सिंह ने कहा कि इस तरह के बर्बर कृत्य करने वाले अपराधी क्षेत्र में विकास और शांति के हितों के खिलाफ काम कर रहे हैं। 
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने छत्तीसगढ़ में कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं पर हिंसक हमले की निंदा की। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने छत्तीसगढ़ में कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं पर हिंसक हमले की निंदा की है। प्रधानमंत्री के संदेश का अनूदित पाठ इस प्रकार है: 
"मैं छत्तीसगढ़ में कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं पर हिंसक हमले की कड़ी निंदा करता हूं। मैं उन लोगों के परिवारों के प्रति गहरी सहानुभूति प्रकट करता हूं जिन्होंने अपनी जान कुर्बान कर दी। मैं कांग्रेस के वरिष्ठ नेता श्री विद्याचरण शुक्ल सहित इस कायरतापूर्ण हमले में घायल लोगों के स्वास्थ्य में तेजी से सुधार के लिए दुआ करता हूं। 
मैंने राज्य के मुख्यमंत्री से बात की है और उनसे अनुरोध किया है कि घायलों को हर संभव सहायता उपलब्ध कराई जाए तथा अपहृत लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित की जाए। 
मैं हमलावरों से अपील करता हूं कि अपहृत लोगों को जल्द से जल्द छोड़ दें। 
ऐसी घटनाएं हमारे देश के लोकतांत्रिक मूल्यों के विरूद्ध हैं। सरकार किसी भी तरह की हिंसा के दोषी लोगों पर कड़ी कार्रवाई करेगी।" 
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Monday, May 20, 2013

जिंदगी लाईव के साथ जुड़े कई और लोग

जीत जायेंगे हम:जारी है थैलेसीमिया के साथ मासूमों की जंग 
कार्यक्रम था उन मासूम बच्चों का जिन्हें खून की एक एक बूँद के लिए दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। किसी एक आध दिन के लिए नहीं बल्कि जीवन भर। इनमें करीब करीब सभी धर्मों, मजहबों और वर्गों के बच्चे हैं। जिस बात को पीर पैगंबर एक अरसे से कह रहे हैं उसी बात को ये मासूम बच्चे अपनी जान जोखिम में डाल कर साबित कर रहे हैं चीर के देखो खून का रंग है लाल फिर कैसे हो गया कोई हिन्दू कोई मुस्ल्मान। प्रकृति की इस एकता के साथ साथ यह बच्चे प्रकृति की भिन्नता को भी दिखा रहे हैं कि यूं तो सबके खून का रंग लाल ही होता है लेकिन उसका ग्रुप एक नहीं होता। खून और शरीर के इस विज्ञान की जिन गहरी गहरी बातों को लोग पूरी पूरी उम्र नहीं समझ पाते उन बातों को यह छोटे छोटे बच्चे अपने शरीर पर सहन करके भी देख लेते हैं। इन्हें डाक्टरी भाषा के कई कठिन शब्द आसानी से याद हो जाते हैं। हर बार अर्थात एक, दो या तीन हफ्तों के अंतराल के बाद जब इन्हें खून चढाया जाता है तो इंजेक्शन की सूई जिसे देख कर कई बार बड़ों बड़ों की चीख निकल जाती है उसे ये लोग कई कई घंटों तक लगवाये रहते हैं। कितना दर्द होता होगा आप अनुमान नहीं लगा सकते लेकिन ये लोग फिर भी कहते हैं-जिंदगी हर कदम इक नई जंग है----सिर्फ कहते ही नहीं--सचमुच इस जंग को लड़ते भी हैं। एक बहादुर योद्धा की तरह इस जंग की हर चुनौती का सामना भी करते हैं और गीत की अगली पंक्ति गुनगुनाते हैं--जीत जायेंगे हम तू अगर संग है----और जानते हैं इनका वो संग,वो साथी कौन है?- हर वही बच्चा जिसे थैलासीमीय है वह इनका संगी साथी है, इनका दोस्त है--इनका रिश्तेदार है, इनका भाई है--इनकी बहन है---रिश्तों के कई नाम हो सकते हैं पर ये वहां भी निभाते हैं जहाँ इनका कोई कुछ नहीं लगता। रविवार १ मई २ ३ की शाम इन सभी बच्चों को यहाँ साथ लेकर आई थी  जिंदगी लाईव संस्था। केवल १ महीनों में बहुत से थैलासीमिक बच्चों को ढूँढना, उन्हें सहायता प्रदान करना, एकजुट करना और इस मंच तक लाना यह सब किसी भी तरह आसान नहीं था पर जिंदगी लाईव ने फिर भी सब कर दिखाया--और वह भी बिना किसी सरकारी सहायता के। अगर सरकार  साथ होती तो सफलता की रफ़्तार और भी तेज़ हो गई होती। कुल मिला कर यह कार्यक्रम एक नई घोषणा थी--एक नए सफर की शुरुआत थी। औपचारिक आरम्भ हुआ गायत्री मन्त्र से और इसके बाद सबसे पहला गीत उन बच्चों की तरफ से था जिनका हर कदम खतरे में--हर सांस खतरे में---लेकिन फिर भी होठों पर गीत स्वागत करते हैं हम।

इस सुरीले गीत के बाद मंच पर बुलाया गया सी एम सी अस्पताल के डाक्टर जॉन को। उन्होंने एक सलाईड शो की सहायता  से थैलासीमीया की बारीकियों को समझाया। इसका इतिहास--आज और भविष्य पर हो रहे काम। मंच से बताया गया कि डाक्टर जॉन की देख रेख में बी एम टी  अर्थात बॉन मेरो ट्रांसप्लांट के १ केस हुए जिनमें से १ सफल रहे. अर्थात अब उन्हें बार बार खून चढ़वाने की कोई आवश्यकता नहीं रही। इसी तरह फिर कुछ आईटमें प्रस्तुत की इन मासूम बच्चों ने जिन्हें मजबूर या बेबस समझा जाता है।  इन बच्चों ने दिखाया कि हम किसी से कम नहीं। इनके हर कदम में जिंदगी की बात थी, सुर और संगीत से सधे हुए कदम रात के घन अँधेरे में भी रौशनी की बात कर रहे थे--जीत की बात कर रहे थे। दुःख और दर्द से सराबोर होकर भी खुशियों की बात कर रहे थे। जीत के गीत गा रहे थे।
इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए इस क्षेत्र की जानी मानी शख्सियत डाक्टर प्रवीन सोबती ने भी इस आयोजन के लिए प्रबंधकों को बधाई दी और इसे एक उपलब्धी बताया। उन्होंने बी एम टी के मामले में आ रही कुछ ठोस उलझनों की बात भी की तांकि इस मुद्दे पर भी विचार हो सके।
इस अवसर पर अन्य बहुत से प्रमुख लोगों के अलाव सुख सोहित सिंह भी मौजूद थे. वही सुख सोहित जिन्हें थैलसॆमॆइय था लेकिन उन्होंने इसकी चुनौती को स्वीकार किय…अब वफ़ रक्षा विभाग पुणे में एक महत्वपूर्ण पद पर नियुक्त हैं। आम जवानों से ज्यादा जोश, दिआम्ग में तेज़ रफ्तारी से आते कुछ वशेष विचार---वह मंच से उतर कर एक एक बच्चे के पास गये। उन्हें उनके निशाने की याद दिलाने---उन्हें यह बताने कि अगर मैं ऐसा कर सकता हूँ तो आप क्यूं नहीं? 
दिलचस्प बात थी कि दो चार घड़ियों के लिए बस शक्ल दिखने वाले नेता लोगों ने भी इस कार्यक्रम के लिए बहुत वक्त निकाला बिलकुल इस तरह जैसे यह उनका अपना कार्यक्रम हो। जाने माने नेता मदनलाल बग्गा काफी सक्रिय दिखे। एम एल ए सिमरजीत सिंह बैंस ने इस नेक काम के लिए ५  हजार रूपये देने की घोषणा की। भारतीय जनता पार्टी पंजाब के प्रधान कमल शर्मा और जिला प्रधान  प्रवीन बांसल कार्यक्रम में आखिर तक बैठे रहे। हर मासूम बच्चे को अपनी आँखों ही आँखों से आशीर्वाद देते हुए, उनके कर्य्क्ल्र्मोन को पूरे ध्यान से देखते हुए, और उनकी इस हिम्मत पर उन्हें शाबाश देते हुए उन्होंने आश्वासन भी दिया कि वह इस मुद्दे की बात को सरकार के दरबार तक भी पहुँचायेंगे। उन्होंने जानेमाने शायर दुशिअंत कुमार की कुछ पंक्तियाँ भी कहीं-
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं;
मेरा मकसद तो है यह सूरत बदलनी चाहिए!
मेरे  सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही;
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए!
अब देखना है कि थैलेसीमिया की विकराल सूरते-हाल को बदलने के लिए जिंदगी लाईव ने जो शुरूआत की है उसे और सफल बनाने के लिए सरकार और समाज के अन्य वर्ग कब आगे आते हैं ! --रेक्टर कथूरिया (सहयोग-अमन कुमार मल्होत्रा) --पंजाब स्क्रीन 

Sunday, May 19, 2013

आज भी अपने देश की कोई राष्ट्रभाषा नही है

Sat, May 18, 2013 at 11:35 PM
न्याय पाने की भाषायी आज़ादी          --राजीव गुप्ता , 09811558925
स्वतंत्रता पूर्व भारत मे सरकारी समारोहों में ‘गाड सेव द किंग’ या ‘गाड सेव द क़्वीन’ गाया जाता था. पर्ंतु 15 अगस्त 1947 से उसका स्थान ‘जन-गण-मन-अधिनायक जय हे’ ने लिया. रातोंरात सभी सरकारी भवनो पर से ‘यूनियन जैक’ झंडा उतारकर तिरंगा झंडा लहरा दिया गया. भारत में स्वतंत्रता का जश्न मनाया गया. भारत को यह स्वतंत्रता लाखो स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदानों की कीमत पर मिली थी. पहली बार भारत के लोगों ने आज़ादी का अर्थ समझा था. देश का संविधान बनाने की प्रक्रिया आरम्भ हो चुकी थी और 26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान लागू किया गया. किसी भी राष्ट्र के लिये राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगान और और राष्ट्रभाषा का बहुत महत्व होता है. इसी महत्ता के चलते देश का राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान तय हो गया परंतु बहुभाषी भारत मे राष्ट्रभाषा का चुनाव करने में बहुत समय लगा. देश का यह दुर्भाग्य ही है कि आज भी अपने देश की कोई राष्ट्रभाषा नही है. हिन्दी के प्रचलन के चलते हिन्दी को राजभाषा का दर्जा जरूर दे दिया गया था.
हिन्दी को राजभाषा का दर्जा
लेखक राजीव गुप्ता 
यह चित्र जय हिंद से साभार 
क्रांतिकारियों के संघर्षो के कारण देश को स्वाधीनता मिली परंतु संविधान सभा का गठन स्वतंत्रता-पूर्व जुलाई, 1946 में ही हो गया था. 11 दिसम्बर 1946 को डा. राजेन्द्र प्रसाद को संविधान सभा का स्थायी सदस्य चुना गया. डा. कैलाश चन्द्र भाटिया ने एक लेख में लिखा है कि संविधान सभा की नियम समिति ने डा. राजेन्द्र प्रसाद की अध्यक्षता मे 1946 में ही एक निर्णय ले लिया था कि संविधान सभा का कामकाज की हिन्दी या अंग्रेजी ही होगी और यदि कोई सदस्य अपनी मातृभाषा मे भाषण देना चाहे तो अध्यक्ष की अनुमति से वह अपनी मातृभाषा मे भाषण दे सकता है. फरवरी, 1948 में संविधान का जो प्रारूप प्रस्तुत किया गया उसमें राजभाषा के संबंध को उल्लेख नही था. परंतु कन्हैया लाल मणिक लाल मुंशी के अथक प्रयासों से 12,13,14 सितम्बर 1949 को संविधान सभा मे राजभाषा के विषय पर चर्चा हुई और 14 सितम्बर 1949 को संविधान निर्मताओं ने हिन्दी को राजभाषा के रूप में अपनाया. इस प्रकार संविधान के अनुच्छेद 343 (1) के अनुसार देवनागरी लिपि मे लिखी गई हिन्दी को संघ की राजभाषा के रूप मे अंगीकार किया गया. हलाँकि संविधान के अनुच्छेद 343 (2) के अनुसार संविधान लागू होने से 15 वर्ष पश्चात तक अर्थात 25 जनवरी 1965 तक अंग्रेजी भाषा को संघ के सभी कार्यों के लिये अंग्रेजी भाषा मे करने की व्यवस्था की गई. साथ यह व्यवस्था भी की गई देश के महामहिम राष्ट्रपति यदि चाहें तो 15 वर्ष की अवधि पूर्व भी यह आदेश दे सकते है कि अंग्रेजी के साथ हिन्दी का भी प्रयोग किया जा सकता है.    
हिन्दी और राष्ट्रपति के आदेश
राष्ट्रपति का पहला आदेश 27 मई 1952 को विधि-मंत्रालय की अधिसूचना के रूप में और भारत के राजपत्र में प्रकाशित हुआ. इस आदेश के अनुसार राज्यपालों, उच्चतम और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति अधिपत्रों को प्राधिकृत कर दिया गया. राष्ट्रपति का दूसरा आदेश 3 दिसम्बर 1955 को गृह मंत्रालय द्वारा अधिसूचित किया गया जिसे संविधान (राजकीय प्रयोजनो के लिये हिन्दी भाषा) आदेश 1955’ के रूप में जाना जाता है. इस आदेश के अनुसार जनता से पत्र-व्यवहार, संसद और प्रशासनिक रिपोर्टें, राजकीय पत्रिकाएँ, सरकारी संकल्प, राजभाषा को अपनाने वाले राज्यों से पत्र-व्यवहार, संधिय़ाँ व करार जैसे प्रमुख क्रियाकलापों में हिन्दी को अपनाने के लिये कहा गया. इसी आदेश के परिणामस्वरूप विभिन्न मंत्रालयों में हिन्दी-अनुवादकों की नियुक्तियाँ शुरू हुई. उसके बाद राष्ट्रपति द्वारा कई आदेश जारी किये गये और 1963 में राजभाषा अधिनियम बना.
योग में आशंकाएँ
 यह चित्र शंखनाद से साभार 
हिन्दी-प्रयोग ने लोगों को कई आशंकाओं में डाल दिया. सैन्य-सेवा मे हिन्दी-प्रयोग से लोग सबसे ज्यादा आशंकित थे. उनका मानना था कि सेना के जवानो आदेश या उनके साथ वार्तालाप अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद कर कैसे उपयोग किया जाय. भाषा के कारण सैनिकों के मनोबलों और देश-सुरक्षा के साथ खिलवाड नही किया जा सकता. इसी प्रकार से हिन्दी-प्रयोग को लेकर लोगों के मन में बहुत सी आशंकाएँ रही, जिसका कारण लोग मुख्यतया दैनिक कार्यों के निमित्त हिन्दी मे शब्दों की कमी मानते थे. कुछ कमोबेश यही हालत विधि क्षेत्र की भी थी. ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के प्रारम्भिक वर्षों में न्यायालयों का अधिकतर कार्य फारसी भाषा में होता था. आज भी हम न्यायालयों के आदेशों मे हम फारसी भाषा का प्रभाव देख सकते हैं. 1836 तक आते-आते फारसी का उपयोग खत्म हो गया और उसका स्थान हिन्दी,अंग्रेजी और उर्दू ने ले लिया. 1950 में देशी रियासतों के भारत में विलय होने तक न्यायालयों का कामकाज़ प्रादेशिक भाषा मे ही होता था. ग्वालियर, पटियाला, बडौदा, जम्मू-कश्मीर हैदराबाद की रियासतें इसका प्रमुख उदाहरण हैं. इतना ही नही भारत की विशालता के चलते ही यहाँ पर कई भाषाई-राज्यों का भी गठन किया गया. और राज्यो को यह अधिकार दिया गया कि वे खुद तय करें कि उनकी राज्यभाषा क्या होगी. सारी परिस्थितियों पर चर्चा के उपरांत यह तय किया गया कि सभी राज्य एक दूसरे राज्य व केन्द्र के साथ राजभाषा में ही पत्र-व्यवहार करें. परंतु यह देश की विडम्बना ही है कि सरकारी स्तर पर प्रयास करने के बावज़ूद आज भी राजभाषा सुचारू रूप से देश-स्तर पर संतोषजनक रूप से लागू नही है. आज भी अशिक्षित लोगों को न्यायालय मे न्याय उनकी मातृभाषा में नही मिलता है.
यह चित्र जय हिंद से साभार 
पिछले दिनों कैट (केन्द्रीय प्रशासनिक प्राधिकरण) से लेकर उच्च न्यायालय तक के दिये हुए फैसलों को पलटते हुए देश की सर्वोच्च न्यायालय ने हिन्दी मे आरोपपत्र पाने के अधिकार पर ऐसा ऐतिहासिक फैसला दिया जिसने देश के हिन्दी-प्रेमियों की दम तोडती आस पर संजीवनी-बूटी सा असर किया. जिसने आम-जन को अपनी मातृभाषा मे न्याय पाने अधिकार की माँग करने वालों लोगों में एक आस की अलख को जगाया. दरअसल यह मामला मुम्बई के एक नौसेना कर्मी मिथलेश का था, जिसे उच्चाधिकारियों के साथ दुर्व्यवहार व उनका आदेश न मानने पर एक आरोपपत्र दिया गया था. नौसेना कर्मी ने हिन्दी भाषा मे आरोपपत्र की मांग की जिसे विभाग ने खारिज कर दिया. जिससे नौसेना कर्मी ने विभागीय जाँच मे भाग नही लिया. परिणामत: विभाग ने नौसेना कर्मचारी पर कार्यवाही कर सजा के रूप मे उसके वेतनमान मे कटौती कर दी. जिसे नौसेना कर्मचारी ने आरोपपत्र हिन्दी में न मिलने के कारण को आधार बनाते हुए विभागीय जाँच को रद्द करने की माँग की. स्वतंत्रता-प्राप्ति के पश्चात आज भी सर्वोच्च न्यायालय और  अधिकांश उच्च न्यायालयों मे अपनी मातृभाषा मे आरोपी अपना पक्ष नही रख सकता. परिणामत: आरोपी को यह पता ही नही चल पाता कि उसके वकील माननीय न्यायाधीशों के समक्ष क्या तर्क कर रहें है. इसलिये आरोपी अपने आप को ठगा-सा महसूस करते है.
कहने को तो हिन्दी देश की राजभाषा है, परंतु आज भी प्रशासनिक व न्यायालय के कामकाज़ में अंग्रेजी का ही वर्चस्व है. देश की शीर्ष अदालत के फैसले के निहितार्थ यही है कि ऐसे मामलों में न्याय के लिये उसी भाषा का इस्तेमाल होना चाहिए जिस भाषा को आरोपी समझता हो, ताकि कोई भी व्यक्ति तथ्यों को ठीक-ठाक समझकर अपना पक्ष रख सके. अब समय आ गया है कि अब राजभाषा अधिनियम की नये सिरे से समीक्षा की जाये क्योंकि किसी भी स्वतंत्र देश में मातृभाषा में अपना पक्ष रखना और जवाब मांगना किसी भी व्यक्ति का हक होता है.

Friday, May 17, 2013

कलाकृतियों में असली सोने और चांदी का वर्क

08-मई-2013 16:26 IST
तंजौर और मैसूर की कलाकृतियां -विशेष लेख//आलोक देशवाल*
दक्षिण भारत के तलिनाडु राज्‍य में तंजौर (तंजावूर) के मंदिर में उकेरी गई चित्रकला को तंजौर कलाकृतियों का नाम दिया गया। शैलीगत ढंग से यह माना जाता है कि यह 16वीं शताब्‍दी में नायक शासकों के शासन के दौरान उभर कर आई। 17वीं सदी में मराठा शासन में इस कला को नया प्रोत्‍साहन और संरक्षण प्राप्‍त हुआ।मराठा शासकों के समय तंजौर  कला, वास्‍तुकला, शिक्षण, संगीत और प्रदर्शन कला के एक म‍हान केंद्र के रूप में उभर कर आया।
स्‍थानीय तौर पर पालागई (लकड़ी का तख्‍त) और पदम (चित्र) का तात्‍पर्य लकड़ी के तख्‍तों पर चित्र बनाने की पद्धति से है जो इस क्षेत्र की विशेष शैली है। ऐसा माना जाता है कि पहले इस कला को दीवारों पर बनाया जाता था और फिर उसे ऐची चीज़ों पर बनाया जाने लगा जिसे आसानी से ले जाया जा सकता हो। इन चित्रों में दृश्‍य हिंदू धर्म की वैष्‍णव और शैव परंपरा से उत्‍पन्‍न हुए हैं। हालांकि इसमें अन्‍य धर्मों और धर्मनिरपेक्ष विषयों पर भी कई चित्र मिलते हैं। इन चित्रों में दरबार के दृश्‍य और संतों तथा शासकों के चित्र शामिल हैं।
तंजौर कलाकृतियों में असली सोने और चांदी का वर्क, बहुमूल्‍य मोती, शीशे और रत्‍नों विशेष रूप से सोने का बखूबी इस्‍तेमाल होता है। देवी-देवताओं की कलाकृतियों में लाल, हरे, नीले, काले और सफेद रंगों के इस्‍तेमाल के अलावा श्री कृष्‍ण के बाल रूप की कलाकृति में संगमरमर के साथ अक्‍सर गुलाबी जबकि भगवान विष्‍णु और उनके अवतारों के चित्रों में अक्‍सर हरे रंग की झलक दिखती है।
मैसूर कलाकृति शैली महाराजा कृष्‍णराजा वदियार (1799-1868) के शासन मे दक्षिण कनार्टक में शुरू हुई। इनके शासन में संगीत, नृत्‍य, साहित्‍य और कला‍कृतियों जैसे पुरानी कलात्‍मक परंपराओं को फिर से उभारा गया। अधिकतर पारंपरिक कलाकृतियों को जीवित रखने में इस शासन को श्रेय दिया जा सकता है। दीवारों से लेकर मैसूर की शैलीगत ढंग से कपड़े, कागज़ और लकड़ी पर कलाकृतियां बनाने तक व्‍यापक कृतियों मिलती हैं।
हालांकि देखने वालों को यह कलाकृतियां अक्‍सर एक जैसी लगती हैं लेकिन दोनों की शैलियां में में अंतर है और यह अंतर इन कलाकृतियों को बनाने में इस्‍तेमाल हुई तकनीक और जिस तरह से यह प्रस्‍तुत की गईं उसमें है। तंजौर के मुकाबले मैसूर कलाकारों द्वारा अपनाई गई तकनीक में मामूली फर्क है। तंजौर में सफेदा (मक्‍खीसफेदा) का इस्‍तेमल होता है वहीं मैसूर कलाकार  स्‍वदेशी पेड़ (रेवाना चिन्‍नीहालू) के रस से निकला गंबोज (पीला) का इस्‍तेमाल करते हैं जिसे इन कलाकृतियों में एक सुनहरे रंग की झलक दिखती है। तंजौर के ‘गैसो’ कार्य के हाई रिलीफ के मुकाबले मैसूर में लो रिलीफ को वरीयता दी जाती है और तंजौर कलाकारों द्वारा अपनाए जाने वाले चांदी की परत वाली सोने की पत्‍ती के मुकाबले मैसूर में खरे सोने की पत्‍ती का इस्‍तेमाल होता है। तंजौर शैली में उपयोग हुए शीशे और रत्‍न भी मैसूर कलाकृतियां में दिखाई नहीं देते। मैसूर में तंजौर के बजाए प्राकृतिक दृश्‍य अधिक विस्‍तारपूर्वक नज़र आते हैं हालांकि दोनो शैलियों में अक्‍सर पारंपरिक  मंदिरों के पवैलियन और टावर दिखाई देते हैं।
तंजौर और मैसूर कलाकृतियां में हिंदू पुराणों, महाकाव्‍यों और पुराणों के दृश्‍य दर्शाती हैं। इन कलाकृतियां को जो अलग करता है वो है कि इसमें उत्‍तर भारत, डेक्‍कन और मैसूर के दक्षिण भागों की अलग-अलग संस्‍कृतियों की झलक । यह कलाकृतियां दीवारों/सूक्ष्‍म चित्रों, तथा लो रीलिफ की मूतिर्यों की दो भारतीय पंरपराओं के बीच की हैं।  दोनों कलाकृतियों में जैसी कि रैखिकता दिखती है वो रोशनी और शेड के जरिए तीन परिमाणिक का रूप देती है। लो रिलीफ माडलिंग- गोंद की मोटी परत, रंगों , तरीके से कटे हुए पत्‍थरों के जरिए हासिल की जाती है। कलाकृतियों को सजाने के लिए अनिवार्य रूप से सजावटी तत्‍वों का काफी इस्‍तेमाल किया जाता था जिसे ‘कोर्ट स्‍टाइल’ कहते हैं।
पारंपरिक रूप से व्‍यक्तिगत पूजा और सम्राटों को सम्‍मान देने में इस्‍तेमाल की जानी वाली मैसूर और तंजौर कला‍कृतियों ने संग्रहालय की उत्‍कृष्‍ट दुनिया में काफी देर से कदम रखा है। नई दिल्‍ली में राष्‍ट्रीय संग्रहालय की तंजौर और मैसूर कलाकृतियों की नवीनीकृत दीर्घा में इन दोनों कलाकृतियों के कुछ बेहतरीन ऐतिहासक उदाहरण मिलते हैं जो परंपरा, आध्‍यात्‍म और उदार उपभेदों का भरपूर मिश्रण दर्शाते हैं।
दीर्घा में 88 कलाकृतियों शामिल हैं।  हालांकि हर कलाकृति विशिष्‍ट है लेकिन कुछ श्रेष्‍ठ  कृतियों की कोई तुलना नहीं है।
इन कलाकृतियों में उत्‍कृष्‍ट कार्य को देखकर यह आसानी से समझा जा सकता है कि दुनियाभर में इनका प्रसार कैसे हुआ।    
*उप निदेशक, पसूका नई दिल्‍ली
मीणा/इ अहमद/प्रियंका -92
पूरी सूची -08.05.2013 

Thursday, May 16, 2013

आयकर लोकपाल:

07-मई-2013 16:22 IST
अपनी शिकायतें दूर करने के लिए इनकी मदद लें--विशेष लेख
एक करदाता के रूप में मुआवज़े के निपटारे संबंधी आयकर मामले को लेकर आपकी कुछ जायज़ शिकयतें हो सकती हैं।  उदाहरण के तौर पर आपको लग सकता है कि आयकर विभाग को आपके कर का कुछ हिस्‍सा रिफंड करना है लेकिन न ही वह आपकी शिकायतों को सुन रहा है और न ही उसके निपटारे के लिए कुछ खास कदम उठा रहा है। आप अधिकारियों के रूखे व्‍यवहार या   उनके द्वारा बोर्ड के निर्देशों और परिपत्रों का पालन नहीं करने पर खिन्‍न हो सकते हैं। ऐसे सभी मामलों के लिए आप आयकर लोकपाल के पास जा सकते हें। ऐसा करने से पहले आपको यह सुनिश्चित करना होगा कि कुछ शर्तें पूरी कर ली गई हैं। लोकपाल, आयकर लोकपाल दिशा-निर्देश,2006 के ढांचे के तहत और उसके द्वारा शासित होता है।
  लोकपाल की धारणा मूल रूप से स्‍कैंडिनेविया से ली गई है।लोकपाल सार्वजनिक क्षेत्र के प्राधिकरण के कामकाज के खिलाफ शिकायतों की जांच करता है। हमारे देश में लोकपाल की नियुक्ति केंद्र सरकार करती है। वे आम तौर पर एक ऐसा व्‍यक्ति होता है जिसे कर प्रशासन का काफी अनुभव होता है लकिन वह कामकाज स्‍वतंत्र रूप से करता है। वर्तमान में सरकार ने नई दिल्‍ली, मुम्‍बई, चेन्‍नई, कानपुर, चंडीगढ़, पुणे, भोपाल, कोच्चि, कोलकाता, हैदराबाद, बैंगलोर और अहमदाबाद में लोकपाल नियुक्‍त किए हैं।
शिकायतें जो आप लोकपाल के समक्ष रख सकते हैं:
आप निम्‍नलिखित मुआवज़े के निपटारे या उनकी देरी से मिलने संबंधी शिकायतें लोकपाल के समक्ष रख सकते हैं:
क. रिफंड जारी करना;
ख. ब्‍याज छूट संबंधी याचिकाएं;
ग. अपील इफेक्‍ट्स
घ. सुधार संबंधी आवेदन
ड. लेखा और संपित्‍त्‍यों की जब्‍त पुस्‍तकें जारी करना ;
च.   पैन नंबर देना/ पैन कार्ड जारी करना
निम्‍नलिखित कार्य नहीं होने पर भी आप शिकायत कर सकते हैं:
क. स्रोत पर काटे गए कर सहित भुगतान किए गए करों के लिए ऋण देना;
ख. जांच के लिए मामलों के चयन में पारदर्शिता बरतना;
ग. केंद्रीय प्रत्‍यक्ष कर बोर्ड के दिशा-निर्देशों, परिपत्रों और अनुदेशों का अनुपालन करना;
घ. आयकर अधिकारियों के सही कार्य-समय पर नज़र रखना;
ड. कर निर्धारिती द्वारा भेजे गए पत्रों और दस्‍तावेज़ों को स्‍वीकार करना;
च. उत्‍पीड़न संबंधी घटनाओं का रिकार्ड और रजिस्‍टर रखना। ‘एक व्‍यक्ति कर निर्धारिती के साथ आयकर अधिकारियों के अनुचित रूखे बर्ताव के बारे में भी शिकायत कर सकता है।’
अधिक जानकारी के लिए कृपया दिशा-निर्देशों की धारा 9 देंखे।
शिकायत के लिए प्रक्रिया
शिकायत मिलने पर लोकपाल इसकी जांच करेगा कि दिशा-निर्देशों में उल्लिखित कुछ मूल शर्तें पूरी की गई हैं की नहीं। यह शर्तें पूरी नहीं होने तक वह शिकायत पर गौर नहीं कर सकता। यह शर्तें इस प्रकार हैं:
        i.            अधिकृत प्रतिनिधि द्वारा शिकायत पेश किए जाने पर उस पर शिकायतकर्ता के साथ-साथ उस अधिकृत प्रतिनिधि के हस्‍ताक्षर होने चाहिए।
      ii.            शिकायत में स्‍पष्‍ट रूप से निम्‍नलिखित चीज़ें उल्लिखित होनी चाहिए:
                       ii.क. शिकायतकर्ता का नाम, पता और पैन नंबर।
                       ii.ख. जिसके खिलाफ शिकायत की गई है उस अधिकारी का नाम और पदनाम (यह निरपवाद रूप से सबसे कनिष्‍ठ कम से कम आयकर रैंक का अधिकारी होना चाहिए जिसने शिकायत को आगे बढ़ाया है)
ग. शिकायत संबंधी तथ्‍य;
घ.  समर्थन में दस्‍तावेज़ ; और
ड. लोकपाल से अपेक्षित राहत
iii. लोकपाल इलैक्‍ट्रॉनिक तरीके से भेजी गई शिकायत को तभी स्‍वीकार करेगा यदि अन्‍य प्रकार से पूरी तरह व्‍यवस्थित है लेकिन ऐसी शिकायत के प्रिंटआउट पर जल्‍दी से जल्‍दी शिकायतकर्ता के हस्‍ताक्षर होने चाहिए। ऐसे करने के बाद शिकायत को उसी तारीख पर दर्ज किया जाएगा जिस दिन वो इलैक्‍ट्रॉनिक तरीके से भेजी गई थी।
लोकपाल के समक्ष शिकायत तब तक नहीं रखी जाएगी जब तक पहले दृष्‍टांत में शिकायतकर्ता ने उस अधिकारी जिसके खिलाफ शिकायत दर्ज की है उसके वरिष्‍ठ अफसर को भी लिखित अभिवेदन नहीं दिया है। साथ ही शिकायतकर्ता तभी शिकायत कर सकता है यदि उसे इस संबंध में कोई जवाब नहीं मिला है और इस बात को एक महीने से अधिक समय बीत गया है। वैकल्पिक रूप से वह तब भी शिकायत कर सकता है यदि उसे जवाब मिला है लेकिन वो उससे संतुष्‍ट नहीं है या उसके अभिवेदन को रद्द कर दिया गया है।
कोई शिकायत नहीं हो सकती यदि:
        i.            वरिष्‍ठ अधिकारी का जवाब मिले 12 महीने बीत गए हैं;
      ii.            वरिष्‍ठ अधिकारी को सौंपे गए अभिवेदन को 13 महीने बीत गए हों लेकिन कोई जवाब न मिला हो।
याद रखें कि लोकपाल शिकायत का संज्ञान नहीं लेगा यदि वे इस विषय से जुड़े हैं:
क. लोकपाल द्वारा पूर्व में किए गए मामले का निपटान
                     या
ख. आयकर प्रशासन या अदालत के समक्ष कोई अपील, संशोधन, रेफरेंस या रिट।
शिकायत मिलने पर लोकपाल इसे उस अधिकारी को भेज देगा जिसके खिलाफ शिकायत की गई है और उसे सुलह या बातचीत के ज़रिए समझौते के साथ निपटाने की कोशिश करेगा। यदि अधिकारी शिकायतकर्ता के साथ समझौते के जरिए शिकायत का निपटारा एक महीने के भीतर या लोकपाल द्वारा तय की गई समय-सीमा में नहीं करता तो लोकपाल इसमें मध्‍यस्‍थ बनेगा और किसी समझौते पर पहुंचने की कोशिश करेगा। अगर इसमें भी सफल नहीं हो पाता तो वे यह मामले पर फैसला दे सकता है।
शक्तियां

लोकपाल के पास निम्‍नलिखित अधिकार हैं-

1. वह दिशानिर्देश की धारा 9 में शामिल मामलों पर शिकायत प्राप्‍त कर सकते हैं।

2. वह इन शिकायतों पर विचार कर सकता है और सुलह एवं मध्‍यस्‍थता तथा उचित निर्णय से निपटा सकता है।

3. वह आयकर प्राधिकरण से कोई सूचना अथवा आवश्‍यक संबंधित दस्‍तावेजों की प्रमाणित प्रतियां प्राप्‍त कर सकता है।

4. यदि आयकर प्राधिकरण ऐसी कोई जानकारी या दस्‍तावेज (उपर इंगित अनुच्‍छेद तीन में) प्रस्‍तुत करने में चूक करता है, तब लोकपाल प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है।

5. वह शिकायतों के निपटान के लिए सुधारात्‍मक उपायों का सुझाव कर सकता है।

6. वह सचिव, राजस्‍व विभाग और सीबीडीटी के अध्‍यक्ष को अपने जांच परिणामों का विवरण दे सकता है।

कर्तव्‍य

लोकपाल के कर्तव्‍य :

1. अधिक्षण शक्तियों का प्रयोग करना और अपने कार्यालय का संचालन करना।

2. स्वयं को प्राप्‍त होने वाले जानकारी को गोपनीय रखना तथा ऐसी जानकारी देने वाले व्‍यक्ति की सहमति को छोड़कर उन्‍हें तीसरे पक्ष को प्रकट नहीं करना। हालांकि यथोचित प्राकृतिक न्‍याय के सिद्धांत का अनुपालन करने के क्रम में ऐसी सूचना विपक्ष को दे सकता है।

3. करदाताओं के अधिकारों की रक्षा तथा उनके अनुपालन के बोझ को कम करना।

4. अनुपालन के बोझ को बढ़ाने वाले मामलों की पहचान करना तथा उन्‍हें सीबीडीटी और वित्‍त मंत्रालय के सामने लाना।

5. सीबीडीटी के अध्‍यक्ष और राजस्‍व विभाग के सचिव को दोषी कर्मचारियों के खिलाफ उचित कार्रवाई की सलाह देते हुए मासिक रिपोर्ट प्रस्‍तुत करना।

6. कर प्रशासन की वार्षिक रिपोर्ट सीबीडीटी के अध्‍यक्ष और राजस्‍व विभाग सचिव को देना।

7. उसके द्वारा वित्‍त वर्ष में दिये गये निर्णयों  की सूची बनाना तथा उनकी संबंधित मुख्‍य आयुक्‍तों और सीबीडीटी के अध्‍यक्ष को जानकारी देना ताकि संबंधित अधिकारियों की वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट बनाने के समय उन्‍हें ध्‍यान में रखा जा सके। 

कार्यवाही का स्‍वरूप  

     लोकपाल के सामने कार्यवाही की प्रकृति अर्ध न्यायिक होता है। वह सबूतों के किसी भी कानूनी नियमों से बाध्‍य नहीं होता है। उससे उम्‍मीद की जाती है कि वह अपने कार्य के निष्‍पादन में हमेशा निष्‍पक्ष और विवेकपूर्ण हो।

निर्णय का स्‍वरूप  

     जैसा कि पहले संकेत दिया जा चुका है, वह सबसे पहले शिकायत का निपटारा समझौते के द्वारा करने की कोशिश करेगा। यदि इस तरह के समझौता का पालन एक महीने के अंदर या लोकपाल द्वारा दिये गये अधिक समय में निपटारा नहीं हो पाता है तब वह निर्णय ले सकता है। यह एक कथित आदेश होगा और संबंधित प्राधिकरण के लिए स्‍पष्‍ट रूप से निर्देश निर्दिष्‍ट करेगा, जिसमें माफी मांगना भी शामिल होगा। हालांकि एवार्ड आय की कुल राशि या निर्धारित कर या पहले से लगाये गये जुर्माने को प्रभावित नहीं कर सकती। शिकायत कर्ता के नुकसान के एवज में लोकपाल हजार रूपये तक का मुआवजा प्रदान कर सकता है। इस तरह का मुआवजा शिकायतकर्ता के खिलाफ आवंटित बजट पर चार्ज किया जाएगा। विभाग के लिए निर्णय बाध्‍य होगा, परंतु ये कर निर्धारिती के लिए सिर्फ तब बाध्‍य होगा, जब वह उसके प्राप्‍त होने के 15 दिन के भीतर स्‍वीकृति जारी करता है। यदि शिकायतकर्ता निर्णय स्‍वीकार नहीं करता है या 15 दिन के अंदर स्‍वीकृति पत्र देने में असमर्थ होता है, या लोकपाल द्वारा दी गई 15 दिन की अतिरिक्‍त अवधि समाप्‍त होने पर वह रद्द हो जाएगा और प्रभावी नहीं रहेगा। यदि वह निर्णय निर्धारिती द्वारा स्‍वीकार कर लिया जाता है तो जिस प्राधिकरण के खिलाफ शिकायत दर्ज की गई है उसको उसे एक महीने के भीतर लागू करना होगा। ऐसा होने का अनुपालन लोकपाल को सूचित करना होगा।

जांच सूची

    आपको शिकायत दर्ज करने में मदद देने के लिए एक जांच सूची बनाई गई है। ये नीचे दी गई है:-

1. शिकायतकर्ता द्वारा शिकायत पर हस्‍ताक्षर न किये गये हों।

2. अधिकृत प्रतिनिधि द्वारा इस पर हस्‍ताक्षर नहीं किये गये हो।

3. इसमें शामिल नहीं हैं:-

(क) शिकायतकर्ता का नाम और पता

(ख) सहायक दस्‍तावेज

(ग) प्रशासनिक शिकायत जाँच अधिकारी से मांगे गये कर छूट के विवरण

4. इलेक्‍ट्रोनिक तरीके से तैयार परंतु हार्ड कॉपी (मुद्रित अभिलेख) में शिकायतकर्ता के हस्‍ताक्षर न हों।

5. ऐसा प्रतीत न हो कि शिकायत अधिकारी से तत्‍काल वरिष्‍ठ अधिकारी को सूचना न दी गई है।

6. तत्‍काल वरिष्‍ठ अधिकारी के सामने अभिवेदन पारित किये हुए एक महीना न बीता हो

7. अपने वरिष्‍ठ अधिकारी से प्राप्‍त उत्‍तर पर शिकायतकर्ता असंतुष्‍ट प्रतीत नहीं होता हो।

8. (क) तत्‍काल वरिष्‍ठ अधिकारी से उत्‍तर प्राप्‍त होने के एक साल बीतने पर शिकायत दायर की गई हो।

                 अथवा

(ख) तत्‍काल वरिष्‍ठ अधिकारी से कोई उत्‍तर न मिला हो।

तत्‍काल वरिष्‍ठ अधिकारी के सामने दायर किये गये अभिवेदन के 13 महीने के बाद शिकायत दर्ज की गई है।

9. शिकायत लोकपाल द्वारा पहले की गई कार्यवाही का विषय है।  

10. इस शिकायत पर किसी अदालत या अपीलीय प्राधिकरण में अपील, संशोधन, संदर्भ  या रिट के रूप में भी कार्रवाई हो रही हो।

11. शिकायत का आधार आयकर लोकपाल दिशानिर्देश 2006 के दिशानिर्देश 9 में शामिल न हो।

12. शिकायतकर्ता का प्रतिनिधित्‍व अधिकृत प्रतिनिधि द्वारा किया गया हो। परंतु शिकायत दर्ज करने के लिए अटर्नी अधिकार लोकपाल के सामने दायर न किया गया हो।

     याद रखें की जांच सूची में हर वक्‍तव्‍य का उत्‍तर नकारात्‍मक होना चाहिए। क्रम संख्‍या एक से सात और 12 के सकारात्‍मक जवाब ये दर्शाते हैं कि, शिकायत दोषपूर्ण है और लोकपाल आपके शिकायत के निवारण के लिए आगे कार्यवाही नहीं कर सकता।

     वहीं क्रम संख्‍या आठ से 11 के लिए सकारात्‍मक प्रतिक्रिया ये दर्शाती है कि, शिकायत दोषपूर्ण होने के साथ-साथ निरुपाय है। ऐसी शिकायत दर्ज करने का कोई फायदा नहीं होगा।

     इस संस्‍था को प्रभावी बनाना हम सभी की वास्‍तविक जिम्‍मेदारी है। हम ऐसा ऊपर दी गई जांच सूची में शामिल दोषों को दूर करके और तुच्‍छ तथा बेकार शिकायतें दर्ज कराने से बचकर कर सकते हैं।
(PIB)
पसूका चंडीगढ़
मीणा/ई अहमद/प्रियंका/शोभा/सोनिका-91
पूरी सूची -07.05.2013 
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Friday, May 10, 2013

श्री प्राण किशन सिकंद को दादासाहेब फालके पुरस्‍कार

10-मई-2013 16:39 IST 
सूचना और प्रसारण मंत्री ने उनके निवास पर जाकर प्रदान किया लाइफ टाइम अचीवमेंट सम्मान
सूचना और प्रसारण मंत्री श्री मनीष तिवारी ने आज मुम्‍बई में श्री प्राण किशन सिकंद को, जो ''प्राण'' नाम से लोकप्रिय हैं, उनके निवास पर जाकर स्‍वयं लाइफ टाइम अचीवमेंट के लिए प्रतिष्ठित दादासाहेब फालके पुरस्‍कार प्रदान किया। मं‍त्री महोदय इस उद्देश्‍य के लिए विशेष रूप से मुम्‍बई गए थे। जाने-माने अभिनेता श्री प्राण नई दिल्‍ली में 3 मई, 2013 को आयोजित राष्‍ट्रीय फिल्‍म पुरस्‍कार समारोह में खराब स्वास्थ्य के कारण शामिल नहीं हो पाये थे। इस प्रतिष्ठित पुरस्‍कार में एक स्‍वर्ण कमल, प्रशस्ति पत्र, शाल और दस लाख रुपये नकद शामिल हैं। 

इस अवसर पर श्री तिवारी ने कहा कि भारतीय सिनेमा के शताब्‍दी वर्ष में प्राण साहब को व्‍यक्तिगत रूप में यह पुरस्‍कार प्रस्‍तुत करना मेरे लिए गर्व की बात है। उन्‍होंने कहा कि प्राण साहब इस पुरस्‍कार को प्राप्‍त करने के लिए सर्वाधिक योगय व्‍यक्तियों में से हैं। 

श्री तिवारी के साथ सूचना और प्रसारण मंत्रालय के सचिव श्री उदय कुमार वर्मा और वरिष्‍ठ अधिकारी भी गए थे। दादासाहेब फालके पुरस्‍कार सिनेमा के क्षेत्र में भारत का सर्वोच्‍च पुरस्‍कार है, जो भारत सरकार द्वारा हर वर्ष एक ऐसी हस्‍ती को दिया जाता है, जिसने भारतीय सिनेमा के विकास में और इस माध्‍यम को बढ़ावा देने में विशेष योगदान दिया हो। 

श्री प्राण सिकंद दादासाहेब फालके पुरस्‍कार प्राप्‍त करने वाले 44वें व्‍यक्ति हैं। यह पुरस्‍कार भारतीय सिनेमा के जनक समझे जाने वाले दादासाहेब फालके के जन्‍म शताब्‍दी वर्ष 1969 में शुरू किया गया था। जाने-माने अभिनेता प्राण ने दिलीप कुमार, देव आनन्‍द और राज कपूर के साथ 1950, 1960, और 1970 के दशक में अनेक फिल्‍मों में उत्‍कृष्‍ट अभिनय किया। आज़ाद, मधुमती, देवदास, दिल दिया दर्द लिया, राम और श्‍याम, आदमी, जिद्दी, मुनीमजी, अमरदीप, जब प्‍यार किसी से होता है, आह, चोरी-चोरी, जागते रहो, छलिया, जिस देश में गंगा बहती है और जंजीर आदि फिल्‍मों में प्राण के अभिनय को अत्‍यधिक सराहा गया। इन फिल्‍मों की सूची बहुत लम्‍बी है। 

वर्ष 1920 में पुरानी दिल्‍ली में जन्‍मे श्री प्राण ने वर्ष 1940 में फिल्‍मों में काम करना शुरू किया। उन्‍होंने पहले फोटोग्राफी के क्षेत्र में कदम रखा, लेकिन एक फिल्‍म निर्माता के साथ अचानक हुई एक भेंट से उन्‍हें यमला जट नाम की फिल्‍म में पहली बार अभिनय का अवसर प्राप्‍त हुआ। 6 दशक से अधिक समय में उन्‍होंने 400 से अधिक फिल्‍मों में काम किया और प्रत्‍येक फिल्‍म में उन्‍होंने नया स्‍टाइल प्रस्‍तुत किया। अपने अभिनय से उन्‍होंने दर्शकों को बहुत प्रभावित किया। भारत सरकार ने 2001 में श्री प्राण सिकंद को पद्म भूषण पुरस्‍कार से सम्‍मानित किया था। 
(PIB)
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मीणा/इ.अहमद/क्‍वात्रा/शौकत-2316

वंदेमातरम्:धर्म नही देश पहले है//राजीव गुप्ता

Fri, May 10, 2013 at 11:51 AM
संसद यह सुनिश्चित करे:
‘राष्ट्रीय-मानको’ का अपमान किसी भी सूरत-ए-हाल मे सहन नही किया जायेगा
बसपा के माननीय सांसद शफीकुर्रहमान बर्क  कहते है, ‘यह सच है कि मै सांसद हूँ, पर मुसलमान पहले हूँ. मै इस्लाम के खिलाफ नही जा सकता.  इसलिए मै लोकसभा छोड़कर चला गया. अगर भविष्य में भी ऐसी स्थिति आई तो मैं वही करूंगा, जो आज किया है.’ समाजसेवी श्री अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के वंदेमातरम्-नाद को अभी देश की जनता भूल भी नही पायी होगी कि श्री अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के उसी ‘वंदेमातरम्-नाद’ पर ही विवाद खडा हो गया. दरअसल यह सारा विवाद 8 मई 2013 को खडा हुआ. देश की सबसे बडी पंचायत अर्थात लोकसभा को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित किए जाने से पहले सदन में 'वंदेमातरम्' की धुन बजायी गई. धुन बजने के दौरान संभल से बहुजन समाजवादी पार्टी के माननीय सांसद श्री शफीकुर्रहमान बर्क सदन से उठकर बाहर चले जाते है. लोकसभा अध्यक्षा मीरा कुमार माननीय सांसद के इस कदम पर कड़ी नाराजगी जाहिर करते हुए उन्हें भविष्य में ऐसा नहीं करने की सख्त चेतावनी देते हुए कहती है कि 'एक माननीय सांसद वंदेमातरम् की धुन बजने के दौरान सदन से बाहर चले गए. मैंने इसका गंभीर संज्ञान लिया है. मैं जानना चाहूंगी कि ऐसा क्यों किया गया. ऐसा आगे कभी भी नहीं होना चाहिए.' राजनेताओ की इस पूरे वाकया पर टिप्प्णियाँ आती है. पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी भी बर्क के इस व्यवहार से असहमत है. पूर्व केन्द्रीय मंत्री आरिफ मुहम्मद खान जी कहते है कि दुनिया के हर मजहब मे मातृभूमि के प्रति आदर, सम्मान, समर्पण की व्यवस्था है. जो मातृभूमि का आदर नही कर सकता उससे कानून द्वारा कराया जा सकता है. बसपा के माननीय सांसद द्वारा उठाये गये इस अपमानजनक कदम पर कांग्रेस के नेता और देश के विदेश मंत्री श्री सलमान खुर्शीद ने कहा कि वंदेमातरम् गाना कतई बुरा नही है. उन्होने यह भी कहा कि जमीयत उलेमा-ए-हिन्द ने भी वंदेमातरम् को राष्ट्रीय गीत के रूप मे स्वीकार कर लिया था. ध्यान देने योग्य है कि 4 नवंबर 2009 को देवबंद मे उलेमाओ ने वंदेमातरम् न गाने का एक प्रस्ताव पारित किया था. जिस पर राष्ट्रवादी विचारधारा के लोगो ने कडी आपत्ति जताई थी. भारतीय जनता पार्टी के नेता श्री सैयद शाहनवाज हुसैन ने कहा कि सदस्यों को राष्ट्रीय गीत के अपमान का कोई अधिकार नहीं है. परंतु अभी इस गंभीर मुद्दे पर बीएसपी की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं दी गई. इसके उलट माननीय सांसद शफीकुर्रहमान बर्क ने देश से माफी मांगने की बजाय अपनी हेकडी जमाते हुए ऐसा तर्क दिया है, जिससे विवाद और बढ गया. देश की भावनाये आहत हो रही है.
वंदेमातरम् का इतिहास
डा. भूपेन्द्र नाथ अपनी पुस्तक मे लिखते है कि 1760 मे एक बार भारत मे भयंकर अकाल पडा. उस समय भारत मे ईस्ट इंडिया का राज था और अंग्रेजो के खिलाफ संयासी अपने उद्घोष मे ‘ओम वंदेमातरम्’ कहा करते थे. 1866 के ओडिशा के अकाल को देखकर चिंतित हुए बंकिम चन्द्र ने एक उपन्यास लिखना प्रारंभ किया और 1882 मे उन्होने ‘वंदेमातरम्’ को अपने उपन्यास ‘आनन्द मठ’ मे शामिल कर लिया. कालांतर मे महर्षि अरविन्द ने वंदेमातरम् को नये-मंत्र की संज्ञा दी. यह पवित्र मंत्र ‘वंदेमातरम्’ कोलकाता मे भारतीय कांग्रेस के दूसरे अधिवेशन मे पहली बार गाया गया. 28 दिसंबर, 1896 को कांग्रेस के अधिवेशन मे श्री रविन्द्रनाथ ठाकुर ने स्वयं ही वंदेमातरम् को संगीतबद्ध कर दिया, और उसी अधिवेशन मे वंदेमातरम् को हर अधिवेशन गाने के प्रस्ताव को सर्वसम्मति से पारित कर दिया गया. 1905 मे बंग-भंग के आन्दोलन मे वंदेमातरम् नामक इस मंत्र का ऐसा जादू चला कि इसके उद्घोष ने ब्रिटिश सरकार की चूले हिला दी. हालत यह हो गयी थी कि हर वंदेमातरम् बोलने वाले व्यक्ति को ब्रिटिश हुकुमत जेलो मे बन्द कर देती थी. हलाँक 1905 मे बनारस के अधिवेशन मे कुछ विवाद खडा हो गया था, परंतु उस विवाद को सुलझा लिया गया था और श्रीमती सरला देवी चौधरानी जी ने पूरा वंदेमातरम् गाया. 1906 मे जब ब्रिटिश सरकार ने वंदेमातरम् बोलने पर अडचन डालनी चाही तो आनन्द बाज़ार पत्रिका के संपादक श्री मोतीलाल घोष ने यहाँ तक कह दिया था, ‘चाहे गर्दन रहे या न रहे परंतु मैं तो वंदेमातरम् गाउंगा.’ गाँधी जी के 1920 के असह्योग आन्दोलन का प्रमुख नारा यही था. 1922 तक कांग्रेस के हर अधिवेशन मे वंदेमातरम् को गाया जाता रहा. यहाँ तक कि महात्मा गाँधी जी, दक्षिण अफ्रीका से लौटने के लगभग 2 वर्षो तक अपने सभी पत्रो का अंत वंदेमातरम् से ही करते थे. 1 जुलाई 1931 को गाँधी जी ने हरिजन मे भी लिखा, ‘मुझे कभी नही लगा कि वंदेमातरम् हिन्दुओ का गीत है. दक्षिण भारत के राष्ट्र कवि सुब्रह्मण्यम भारती ने खुद लिखा, ‘ आओ इसकी अर्चना करे हम वंदेमातरम्.’ विपिन चन्द्र पाल, लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक लाला हरदयाल, महर्षि अरविन्द जैसे स्वतंत्रता सेनानियो ने वंदेमातरम्-गान को अंगीकृत किया.
वंदेमातरम् का विरोध
1908 मे मुस्लिम लीग ने अपने अमृतसर अधिवेशन मे सबसे पहले इस वंदेमातरम् – गान का विरोध किया और 1937 तक आते-आते यह उसके एजेंडे का विषय बन गया. कम्युनिष्ट विचारधारा के मानने वालो ने वंदेमातरम्-गान की जगह इंकलाब-जिन्दाबाद को अपनाया. 1923 मे मोहम्मद अली जो कि कांग्रेस के इस अधिवेशन के अध्यक्ष थे, ने वंदेमातरम् के गान का जोरदार विरोध किया. वंदेमातरम्-गान का विरोध इतना अधिक बढ गया कि कांग्रेस के  हरिपुर अधिवेशन मे वंदेमातरम्-गान पर विचार करने हेतु 4 लोगो की एक समिति बनायी गयी और इस समिति ने यह तय किया कि वंदेमातरम्-गान के पहले 2 पद ही गाये जायेंगे.
स्वतंत्रता-पश्चात
14 अगस्त 1947 की मध्य रात को भी वंदेमातरम् के 2 पद गाये गये. भारतीय संविधान द्वारा वंदेमातरम् को भी राष्ट्रीय गान की तरह राष्ट्रीय गीत का दर्जा दिया गया. परंतु इसे देश का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि वर्तमान के राजनेता वंदेमातरम्-गान को धर्म से जोडकर देखने लगे है जबकि वंदेमातरम्-गान स्वतंत्रता-प्राप्ति का सिद्ध मंत्र था. मई 1965, मे भारत के तीसरे कानून आयोग की 28वीं रिपोर्ट (दि इंडियन ओथ्स एक्ट 1873) पेश की गई, जिसके चेयरमैन जस्टिस जे.एल.कपूर थे. इस रिपोर्ट मे हिन्दू-मुश्लिम दोनो के लिये भारत के शपथ-फार्म मे यह स्पष्ट लिखा गया है कि मैं ईश्वर की शपथ लेता हूँ कि जो कहूंगा, सच कहूंगा. कुछ इसी तरह की अर्हता-संबंधी बात जन-प्रतिनिधियो के लिये संविधान के अनुच्छेद 84(क) और अनुच्छेद 173 (क) मे तथा संविधान की तीसरी अनुसूची मे यह साफ-साफ लिखा गया है कि “मै, अमुक, जो राज्य सभा (या लोक सभा) का सद्स्य निर्वाचित (या नामनिर्देशित) हुआ हूँ, ईश्वर की शपथ लेता हूँ कि मै विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखूंगा, मैं भारत की संप्रभुता और अखंडता अक्षुण्ण रखूंगा तथा जिस पद को मैं ग्रहण करने वाला हूँ उसके कर्तव्यों का श्रद्धापूर्वक निर्वहन करुंगा.”  यही शपथ बहुजन समाजवादी पार्टी के माननीय सांसद श्री शफीकुर्रहमान बर्क जी ने भी ली है. उनके इस अपमानजनक कृत्य से क्या यह मान लिया जाय कि इन्होने विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा की झूठी कसम खायी थी, क्योंकि इन्होने अपने इस दंभ के चलते देश की जनता को और उन महान हुतात्माओ को जिन्होने देश को स्वतंत्र कराने हेतु अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया, को भी लजा दिया. अब समय आ गया है कि संसद यह सुनिश्चित करे कि किसी भी ‘राष्ट्रीय-मानको’ का अपमान किसी भी सूरत-ए-हाल मे सहन नही किया जायेगा.   
- राजीव गुप्ता, 09811558925

रवींद्रनाथ टैगोर की 150 वीं जयंती का स्‍मरणोत्‍सव

09-मई-2013 15:58 IST
टैगोर की कविताओं पर आधारित 13 लघु फिल्‍मों रिलीज की गई

संस्‍कृति मंत्री श्रीमती चंद्रेशकुमारी कटोच ने आज रवींद्रनाथ टैगोर की कविताओं पर आधारित 13 लघु फिल्‍मों को लॉंच किया। इन फिल्‍मों को संस्‍कृति मंत्रालय की वित्‍तीय सहायता से बनाया गया है। इस श्रृंखला का निर्देशन प्रसिद्ध निर्देशक श्री बुद्धदेव दास गुप्‍ता ने राष्‍ट्रीय फिल्‍म विकास निगम के माध्‍यम से किया है। कविता आधारित 13 लघु फिल्‍मे/वृत्‍त चित्रों को निर्मित करने की ये परियोजना रवींद्रनाथ टैगोर की 150 वीं जयंती के स्‍मरणोत्‍सव का हिस्‍सा है। 
फिल्‍म निर्माण और स्‍मरणोत्‍सव से संबंधित प्रस्‍तावों की जांच के श्री श्‍याम बेनेगल की अध्‍यक्षता में संचालन समिति का गठन किया गया था। 
ये लघु फिल्‍मे (प्रत्‍येक 25 से 30 मिनट की अवधि) टैगोर की बंसी (बांसुरी), कृष्‍णकली (श्‍याम युवती), मुक्ति (आजादी), फंकी (धोखा), पुकुर धरे (पोखर की ओर से), एक गये (एक गांव), कैमेलिया (कैमेलिया), बंशी वाला (बांसुरी बजाने वाला), शेष चिठ्ठी (अंतिम पत्र), होतत देखा (अनपेक्षित मुलाकात), पत्र लेखा (लिखे जाने वाला पत्र), बाशा बाड़ी (हवेली) और इस्‍टेशन (स्‍टेशन) नामक कविताओं पर आधारित है। 
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मीणा/शोभा/प्रियंका/लक्ष्‍मी/तारा-2296