Sunday, July 01, 2012

जीरो बजट प्राकृतिक खेती

नियमित लाभ और विकास का अदभुत फार्मूला  
विशेष लेख                                                                           *मनोहर कुमार जोशी 
धरती में इतनी क्षमता है कि वह सब की जरूरतों को पूरा कर सकती है, लेकिन किसी के लालच को पूरा करने में वह सक्षम नहीं है..............

महात्मा गांधी के सोलह आना सच्चे इस वाक्य को ध्यान में रखकर जीरो बजट प्राकृतिक खेती की जाये, तो किसान को न तो अपने उत्पाद को औने-पौने दाम में बेचना पड़े और न ही पैदावार कम होने की शिकायत रहे । लेकिन सोना उगलने वाली हमारी धरती पर खेती करने वाला किसान लालच का शिकार हो रहा है । कृषि आधारित अर्थव्यवस्था वाले इस देश में रासायनिक खेती के बाद अब जैविक खेती सहित पर्यावरण हितैषी खेती, एग्रो इकोलोजीकल फार्मिंग, बायोडायनामिक फार्मिंग, वैकल्पिक खेती, शाश्वत कृषि, सावयव कृषि, सजीव खेती, सांद्रिय खेती, पंचगव्य, दशगव्य कृषि तथा नडेप कृषि जैसी अनेक प्रकार की विधियां अपनाई जा रही हैं और संबंधित जानकार इसकी सफलता के दावे करते आ रहे हंै । परन्तु किसान भ्रमित है । परिस्थितियां उसे लालच की ओर धकेलती जा रही हैं। उसे नहीं मालूम उसके लिये सही क्या है ? रासायनिक खेती के बाद उसे अब जैविक कृषि दिखाई दे रही है । किन्तु जैविक खेती से ज्यादा सस्ती, सरल एवं ग्लोबल वार्मिंग (पृथ्वी के बढ़ते तापमान) का मुकाबला करने वाली “जीरो बजट प्राकृतिक खेती“ मानी जा रही है ।


जीरो बजट प्राकृतिक खेती क्या है....?जीरो बजट प्राकृतिक खेती देसी गाय के गोबर एवं गौमूत्र पर आधारित है । एक देसी गाय के गोबर एवं गौमूत्र से एक किसान तीस एकड़ जमीन पर जीरो बजट खेती कर सकता है । देसी प्रजाति के गौवंश के गोबर एवं मूत्र से जीवामृत, घनजीवामृत तथा जामन बीजामृत बनाया जाता है । इनका खेत में उपयोग करने से मिट्टी में पोषक तत्वों की वृद्धि के साथ-साथ जैविक गतिविधियों का विस्तार होता है । जीवामृत का महीने में एक अथवा दो बार खेत में छिड़काव किया जा सकता है । जबकि बीजामृत का इस्तेमाल बीजों को उपचारित करने में किया जाता है । इस विधि से खेती करने वाले किसान को बाजार से किसी प्रकार की खाद और कीटनाशक रसायन खरीदने की जरूरत नहीं पड़ती है। फसलों की सिंचाई के लिये पानी एवं बिजली भी मौजूदा खेती-बाड़ी की तुलना में दस प्रतिशत ही खर्च होती है ।


गाय से प्राप्त सप्ताह भर के गोबर एवं गौमूत्र से निर्मित घोल का खेत में छिड़काव खाद का काम करता है और भूमि की उर्वरकता का ह्रास भी नहीं होता है। इसके इस्तेमाल से एक ओर जहां गुणवत्तापूर्ण उपज होती है, वहीं दूसरी ओर उत्पादन लागत लगभग शून्य रहती है । राजस्थान में सीकर जिले के एक प्रयोगधर्मी किसान कानसिंह कटराथल ने अपने खेत में प्राकृतिक खेती कर उत्साह वर्धक सफलता हासिल की है । श्री सिंह के मुताबिक इससे पहले वह रासायिक एवं जैविक खेती करता था, लेकिन देसी गाय के गोबर एवं गोमूत्र आधारित जीरो बजट वाली प्राकृतिक खेती कहीं ज्यादा फायदेमंद साबित हो रही है।
प्राकृतिक खेती के सूत्रधार महाराष्ट्र के सुभाष पालेकर की मानें तो जैविक खेती के नाम पर जो लिखा और कहा जा रहा है, वह सही नहीं है । जैविक खेती रासायनिक खेती से भी खतरनाक है तथा विषैली और खर्चीली साबित हो रही है । उनका कहना है कि वैश्विक तापमान वृद्धि में रासायनिक खेती और जैविक खेती एक महत्वपूर्ण यौगिक है । वर्मीकम्पोस्ट का जिक्र करते हुये वे कहते हैं... यह विदेशों से आयातित विधि है और इसकी ओर सबसे पहले रासायनिक खेती करने वाले ही आकर्षित हुये हैं, क्योंकि वे यूरिया से जमीन के प्राकृतिक उपजाऊपन पर पड़ने वाले प्रभाव से वाकिफ हो चुके हंै।

कृषि वैज्ञानिकों एवं इसके जानकारों के अनुसार फसल की बुवाई से पहले वर्मीकम्पोस्ट और गोबर खाद खेत में डाली जाती है और इसमें निहित 46 प्रतिशत उड़नशील कार्बन हमारे देश में पड़ने वाली 36 से 48 डिग्री सेल्सियस तापमान के दौरान खाद से मुक्त हो वायुमंडल में निकल जाता है । इसके अलावा नायट्रस, आॅक्साईड और मिथेन भी निकल जाती हंै और वायुमंडल में हरितगृह निर्माण में सहायक बनती है । हमारे देश में दिसम्बर से फरवरी केवल तीन महीने ही ऐसे हंै, जब तापमान उक्त खाद के उपयोग के लिये अनुकूल रहता है ।

वर्मीकम्पोस्ट खाद बनाने में इस्तेमाल किये जाने वाले आयातित केंचुओं को भूमि के उपजाऊपन के लिये हानिकारक मानने वाले श्री पालेकर बताते हंै कि दरअसल इनमें देसी केचुओं का एक भी लक्षण दिखाई नहीं देता । आयात किया गया यह जीव कंेचुआ न होकर आयसेनिया फिटिडा नामक जन्तु है, जो भूमि पर स्थित काष्ट पदार्थ और गोबर को खाता है । जबकि हमारे यहां पाया जाने वाला देशी केंचुआ मिट्टी एवं इसके साथ जमीन में मौजूद कीटाणु एवं जीवाणु जो फसलों एवं पेड़- पौधों को नुकसान पहुंचाते हंै, उन्हें खाकर खाद में रूपान्तरित करता है । साथ ही जमीन में अंदर बाहर ऊपर नीचे होता रहता है, जिससे भूमि में असंख्यक छिद्र होते हैं, जिससे वायु का संचार एवं बरसात के जल का पुर्नभरण हो जाता है । इस तरह देसी केचुआ जल प्रबंधन का सबसे अच्छा वाहक है । साथ ही खेत की जुताई करने वाले “हल “ का काम भी करता है ।

जीरो बजट प्राकृतिक खेती जैविक खेती से भिन्न है तथा ग्लोबल वार्मिंग और वायुमंडल में आने वाले बदलाव का मुकाबला एवं उसे रोकने में सक्षम है । इस तकनीक का इस्तेमाल करने वाला किसान कर्ज के झंझट से भी मुक्त रहता है । प्राप्त जानकारी के अनुसार अब तक देश में करीब 40 लाख किसान इस विधि से जुड़े हुये हंै । (पीआईबी) 28-जून-2012 18:04 IST


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*लेखक स्वतंत्र पत्रकार है

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