Wednesday, November 30, 2011

प्यार हमेशा पूरी दुनिया में जिंदा रहता है--यश चोपड़ा

सच्च्खंड श्री हरिमंदिर साहिब आ कर लिया गुरु घर का आशीर्वाद
यश चोपड़ा नई फिल्म बना कर दोहरायेंगे सफलता का पुराना इतिहास  
     अमृतसर//30 नवम्बर//गजिंदर सिंह किंग//
बालीवुड फिल्मो के मशहूर निर्माता-निर्देशक यश चोपड़ा आज सच्च्खंड श्री हरिमंदिर साहिब पहुच कर गुरु घर के दर्शन कर माथा टेक नमस्तक होकर आशीर्वाद लिया और उन्होंने अपनी नई  फिल्म बनाने का ऐलान भी किया
     दीवार, कभी कभी, कानून, इतेफाक, कला पत्थर, लम्हे, चांदनी, वीर ज़ारा, दिल तो पागल है जैसे कई ऐसी फिल्मो के नाम है, जो आज बॉलीवुड का शान से सिर ऊँचा करती है, जी हाँ हम बात कर रहे है बॉलीवुड के सब से सफलतम निर्माता-निर्देशक यश चोपड़ा की, बॉलीवुड को सब से ज्यादा कामयाबी फिल्मे देने वाले यश चोपड़ा पिछले सात साल से  निर्माता-निर्देशक के क्षेत्र से दूर है, रब ने बना दी जोड़ी फिल्म बनाने के बाद यश चोपड़ा ने फिल्म  निर्माता-निर्देशक से दूर चले गए थे, लेकिन अब एक बार फिर वह फिल्म का निर्माता-निर्देशक करने जा रहे है, इस बात का खुलासा उन्होंने आज सच्च्खंड श्री हरिमंदिर साहिब पहुच कर गुरु घर के दर्शन कर माथा टेक नमस्तक होकर आशीर्वाद लेने के बाद किया,  उन्होंने बताया कि वह ज्यादा-तर प्यार के विषय पर फिल्म बनाते है, चाहे वो प्यार माँ-बाप का हो या वो प्यार भाई- बहन का हो और वह फिल्मे उस की सफल रहती है, क्यों कि वह किसी विषय पर फिल्म नहीं बना सकते, उन्होंने कहा, कि प्यार एक ऐसी चीज़ है, जो हमेशा पूरी दुनिया में जिंदा रहता है, उन्होंने बताया, कि आज चाहे  प्यार के विषय पर आधारित फिल्म इतनी सफल नहीं हो पाती, लेकिन वह प्रयास करेंगे, कि वह एक बार फिर अच्छी फिल्म ले कर आए, वहीँ इस मौके पर उन्होंने आपनी स्टार कास्ट की भी घोषणा की, वह इस फिल्म में शाहरुख़ खान, कटरीना कैफ और अनुष्का शर्मा को ले कर फिल्म बना रहे है और यह फिल्म 2012 में दिवाली पर रिलीस होगी, वहीँ उन्होंने कहा, कि शाहरुख़ खान उन के सब प्रिय हीरो है और वह अब तक सात फिल्मे उन के साथ बना चुके है और यह उन की आठवी फिल्म है जो वह बनाने जा रहे है
    वहीँ अब देखना यह होगा, कि बॉलीवुड  में प्यार से भरी यश चोपड़ा की नई फिल्म क्या आपने पुराने इतिहास को दोहरा कर उस को कितनी कामयाबी मिल पाती है कि नहीं

भारतीय संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली

(Indian Parliamentary Democratic System)  सूत्रधार            
आदरणीय राष्ट्रप्रेमी भाइयों और बहनों                                  एक भारत स्वाभिमानी रवि वर्मा  
पिछली बार के लेख (व्यवस्था हमारी ऐसी है जो गरीबीमें मैंने आपसे कहा था कि अगली बार मैं उस व्यवस्था के बारे में बताऊंगा जो हमारी गरीबी, बेकारी और भुखमरी के लिए जिम्मेवार है | आज प्रस्तुत है उसकी अगली कड़ी | इसको मैंने हमेशा की तरह परम सम्मानीय राजीव दीक्षित भाई के विभिन्न व्याख्यानों में से जोड़ के बनाया है और कोशिश मैंने ये की है कि राजीव भाई जिस व्यवस्था परिवर्तन और राईट टू रिकॉल की बात करते थे उसको संक्षिप्त रूप (Concise way ) में प्रस्तुत करूँ, आशा है कि आपको ये पसंद आएगी, आज 30 नवम्बर है, आज ही के दिन राजीव भाई का जन्म हुआ था और निधन भी,  इसलिए मैंने इस लेख को आज इस विशेष दिन के लिए बचा के रखा था |   

भारतीय संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली (Indian Parliamentary Democratic System)अंग्रेजों का शासन जब पूरी दुनिया में चल रहा था तो अँग्रेज़ों ने गुलाम देशों का तीन तरह का ग्रुप बनाया था | एक ग्रुप था कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलॅंड का, ये कहलाती थी Self Governing Colonies, मतलब ये देश कुछ-कुछ अपने हित के क़ानून भी बना सकते थे, लेकिन ज्यादा कानून अंग्रेज ही बनाते थे, दूसरा ग्रुप था, सिलोन (श्रीलंका), मौरीसस, सूरीनाम, वेस्ट इंडियन देशों, आदि का, ये कहलाती थी, Crown Colonies,  और तीसरे ग्रुप मे भारत ( पाकिस्तान और बांग्लादेश ) था, ये कहलाती थी Depending Colonies, ये गुलामी का सबसे खराब सिस्टम था, इसमे ये होता था कि हमको अपने लिए, अपने देश के लिए, अपनी व्यवस्थाओं के लिए कुछ भी करने का अधिकार ही नहीं था, कोई कानून नहीं बना सकते थे हम, सब कुछ अँग्रेज़ों के हाथ मे था, मतलब हम पूरी तरह अँग्रेज़ों के Dependent थे |  अंग्रेजों ने अपनी सरकार 1760 में स्थापित की थी भारत में, लेकिन वो कंपनी की सरकार थी, अंग्रेजों की सरकार नहीं थी वो, लेकिन छोटे-मोटे कानून उन्होंने उसी समय से बनाना शुरू कर दिया था और उस समय से लेकर 1947 तक अंग्रेजों ने जो 34735 कानून बनाये थे | उन्होंने जो व्यवस्था बनाई थी हमें गुलाम बनाने के लिए, हमारे ऊपर शासन करने के लिए, दुर्भाग्य से आज भी हमारे देश में सब के सब कानून, सब की सब व्यवस्थाएं वैसे के वैसे ही चल रहीं हैं जैसे अंग्रेजों के समय चला करती थीं |  

जब हमारे देश में अंग्रेजों का शासन था तो हमारे जितने भी क्रन्तिकारी थे उन सबका मानना था कि भारत की गरीबी, भुखमरी और बेकारी तभी ख़त्म होगी जब अंग्रेज यहाँ से जायेंगे और हम हमारी व्यवस्था लायेंगे, हम उन सब तंत्रों को उखाड़ फेकेंगे जिससे गरीबी, बेकारी, भुखमरी पैदा हो रही है | लेकिन हुआ क्या ? हमारे देश में आज भी वही व्यवस्था चल रही है जो अंग्रेजों ने गरीबी, बेकारी और भुखमरी पैदा करने के लिए चलाया था | क्रांतिकारियों का सपना बस सपना बन के रह गया लगता है | भारत के लोग व्यवस्था की खामियों के बारे में बात नहीं करते हैं बल्कि अपनी जनसँख्या को गाली देते हैं, जब कि ये कोई समस्या नहीं है, समस्या वहां से शुरू होती जब हम अपने संसाधनों का बटवारा अपने लोगों में न्यायपूर्ण तरीके से नहीं कर पाते हैं | जिस जनसँख्या के लिए समान बटवारा होना चाहिए जैसा कि हमारे संविधान में लिखा हुआ है, वो नहीं हो पाया है हमारे देश में | यूरोप और अमेरिका में संसाधनों का समान बटवारा आप पाएंगे लेकिन हमारे यहाँ नहीं | यूरोप और अमेरिका में भी भारत की ही तरह टैक्स लिया जाता है लेकिन वहां जब टैक्स को खर्च किया जाता है तो वो Per capita Distribution के हिसाब से होता है | Collection अगर per capita के हिसाब से है तो distribution भी per capita के हिसाब से है लेकिन भारत में collection तो per capita के हिसाब से है लेकिन distribution, per capita के हिसाब से नहीं है | अगर ये distribution, per capita के हिसाब से होता तो छत्तीसगढ़ में, बिहार में, झारखण्ड में, ओड़िसा में इतनी भयंकर गरीबी नहीं होती | तो अपने यहाँ समस्या जनसँख्या से नहीं उस व्यवस्था से है जो ऐसे हालात पैदा करती है और हमारी व्यवस्था कैसी निकम्मी और नकारा है उसका ताजा उदहारण मैं आपको देता हूँ | आप पजाब जाएँ,हरियाणा जाएँ तो आप देखेंगे कि FCI का जो गोदाम होता है वहां अनाज इतना ज्यादा होता है कि उनको रखने की जगह नहीं होती है  बोरे के बोरे अनाज खुले में पड़े होते है और उसको या तो चूहे खाते रहते हैं या सड़ रहे होते हैं | आपको याद होगा कि सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि" इन अनाजों को उन गरीबों के बीच क्यों नहीं बाँट दिया जा रहा है जो भूख से मर रहे हैं" लेकिन वो आज तक नहीं हो पाया | ऐसा क्यों हुआ ? क्योंकि हमारे पास वैसा कोई distribution system नहीं है और साथ ही साथ हमारे देश के नेता नहीं चाहते कि गरीबी ख़त्म हो क्योंकि गरीबी और गरीब ख़त्म हो जायेंगे तो इन नेताओं का झंडा कौन ढोयेगा, नारे कौन लगाएगा, उनकी सभाओं में कौन जायेगा ? इसलिए इन नेताओं के लिए सुप्रीम कोर्ट का आदेश भी कोई मायने नहीं रखता |

भारत सरकार की विफलता का एक दूसरा उदहारण देता हूँ, भारत की सरकार ने 1952 से एक पंचवार्षिक योजना शुरू की जो औसतन 10 लाख करोड़ का होता है | अभी तक हमारे देश में ग्यारह पंचवार्षिक योजनायें लागू हो चूकी हैं, मतलब अभी तक हमारी सरकार 
110 लाख करोड़ रूपये खर्च कर चूकी है और गरीबी, बेकारी, भुखमरी रुकने का नाम ही नहीं ले रही है | अंग्रेज जब थे तो ऐसी कोई योजना नहीं थी इस देश में क्योंकि वो विकास पर कुछ भी खर्च नहीं करते थे और तब हमारी गरीबी नियंत्रण में थी लेकिन जब से हमने पंचवार्षिक योजना शुरू की हमारी गरीबी भयंकर रूप से बढ़ने लगी और बढती ही जा रही है कहीं रुकने का नाम ही नहीं ले रही है | अगर भारत सरकार उन पैसों को (जिसे उसने इन पंचवार्षिक योजनायों पर खर्च किया) सीधा हमारे लोगों को बाँट देती तो आज एक-एक भारतीय के पास नौ-साढ़े नौ लाख रूपये तो होते ही (मैं एक आदमी की बात कर रहा हूँ एक परिवार की नहीं) और सभी भारतीय कम से कम लखपति तो होते ही|

भारत की समस्या यहाँ की जनसँख्या नहीं है, यहाँ के लोग नहीं हैं, यहाँ की जातियां नहीं हैं, यहाँ के धर्म नहीं हैं बल्कि हमारा तंत्र है जिसको हम सही से नहीं चला पाते या कहे कि हमको चलाना नहीं आता | हमने जो व्यवस्था अपनाई है वो दुर्भाग्य से अंग्रेजों का है और अंग्रेजों ने ये व्यवस्था अपनाई थी भारत में गरीबी, बेकारी, भुखमरी पैदा करने के लिए | आप कहेंगे कि अंग्रेजों ने कौन सी व्यवस्था हमको दी | जिसको हम संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली (Parliamentary Democratic System)  कहते हैं वो अंग्रेजों की देन हैं हमें | इसी तंत्र को इंग्लैंड में वेस्टमिन्स्टर सिस्टम कहते हैं, इसी तंत्र को गाँधी जी बाँझ और वैश्या कहा करते थे (इसका अर्थ तो आप समझ गए होंगे) | और यूरोप का ये लोकतंत्र निकला कहाँ से है ? तो वो निकला है डाइनिंग टेबल से, जी हाँ खाने के मेज से यूरोप का लोकतंत्र निकला है | राजनीति शास्त्र के विद्यार्थी अगर इस पत्र को पढ़ रहे होंगे तो तुरत समझ जायेंगे, क्योंकि हमारे यहाँ राजनीति शास्त्र में ये पढाया जाता है और 100 नंबर के प्रश्नपत्र  में इस पर बीस नंबर का सवाल आता है कि "बताइए कि यूरोप का प्रजातंत्र कहाँ से निकला ? विस्तार से वर्णन कीजिये " | तो उसका  उत्तर है ----यूरोप का प्रजातंत्र डाइनिंग टेबल से निकला है, खाने के मेज से यूरोप के प्रजातंत्र की शुरुआत हुई है | अब खाने की मेज तो निजी जीवन का हिस्सा है और लोकतंत्र सार्वजानिक जीवन का हिस्सा है, तो निजी जीवन में जो कुछ आप डाइनिंग टेबल पर करते हैं, वही आप सार्वजानिक जीवन में करने लगे तो उसी को संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली कहते हैं, दुर्भाग्य से इसी संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली को हमने अपना लिया है, हमने इसका आविष्कार अपने देश में नहीं किया और अंग्रेजों ने ये जो संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली हमें दी है वो कहीं से भी न संसदीय है और न लोकतांत्रिक है बल्कि वो 101% Aristocratic System है | आप कहेंगे कि वो कैसे ? मैं बताता हूँ | 


भारत के 120 करोड़ लोगों का फैसला एक आदमी करे तो वो संसदीय होगा या लोकतांत्रिक होगा ? 120 करोड़ लोगों का फैसला एक आदमी करे, जिसे हम वित्तमंत्री कहते हैं तो वो व्यवस्था लोकतांत्रिक होगा क्या ? और गलती से वो बिका हुआ हो या मीरजाफर हो तो वो लोकतांत्रिक होगा क्या ? 120 करोड़ लोगों का फैसला 120 करोड़ लोग करें तो वो आदर्श होगा, नहीं कर सकते तो 60 करोड़ लोग करें, नहीं तो 30 करोड़ लोग करें और कुछ नहीं तो एक प्रतिशत लोग तो करें | यहाँ तो वो भी नहीं है | एक व्यक्ति भारत में तय करता है कि कहाँ टैक्स लगना चाहिए, कहाँ नहीं लगना चाहिए और वो चीज संसद में पेश हो जाती है और बाकी 545 लोग जो लोकसभा में बैठे हैं और 250 लोग जो राज्य सभा में बैठे हैं वो सिर्फ बहस इस बात पर करते हैं कि कहाँ कटौती होनी चाहिए, कहाँ बढ़नी चाहिए, ये नहीं कहते कि इसको पूरा वापस ले लो क्योंकि इनको ये अधिकार नहीं है, तो ये व्यवस्था लोकतांत्रिक है क्या ? 


एक दूसरा उदहारण देता हूँ आपको | आप अपने संसदीय क्षेत्र या विधानसभा क्षेत्र को लीजिये, मान लीजिये कि वहाँ पाँच लाख मतदाता हैं और चुनाव में खड़े होने वाले प्रत्याशियों की संख्या दस है और हमारे देश में औसत रूप से मतदान का प्रतिशत 50 (%) ही रहता है, मतलब ढाई लाख लोगों ने अपने मताधिकार का प्रयोग कर मतदान किया | अब ये ढाई लाख मत इन दस प्रत्याशियों में बटा तो किसी को 75 हजार वोट तो किसी को 65 हजार वोट तो किसी को 50 हजार वोट और किसी को कुछ, किसी को कुछ वोट मिला | और जब परिणाम आया तो 75 हजार वोट पाने वाला चुनाव जीत जाता है, उस क्षेत्र में, जहाँ मतदाताओं की संख्या पाँच लाख है | मतलब कि जीतने वाला प्रत्याशी पाँच लाख मतदाताओं के क्षेत्र में 15 प्रतिशत वोट पाकर उस संसद या विधानसभा में पहुँच जाता है जहाँ बहुमत 51 % पर तय होता है | आप समझ रहे हैं, मैं क्या कह रहा हूँ ?  15 प्रतिशत वोट पाकर कोई प्रत्याशी उस संसद या विधानसभा में पहुँच जाता है जहाँ बहुमत 51 % पर तय होती है, मतलब ये चुनाव पूरा का पूरा गैरकानूनी हुआ कि नहीं ?

और उस संसद और विधानसभा के अन्दर का हाल भी जान लीजिये | संसद में क्या होता है कि कोई विधेयक अगर पारित करना हो तो एक नियम है जिसको " कोरम पूरा होना कहते हैं " मतलब कुल सदस्यों का कम से कम 10 प्रतिशत सदन में उपस्थित होना चाहिए यानि 54 सदस्य कम से कम होने चाहिए एक विधयक को पास करने के लिए लेकिन कई बार होता क्या है कि सदन में 20 -25 सदस्य ही उपस्थित होते हैं तो इस से तो कोरम भी पूरा नहीं होता तो इस स्थिति के लिए भी एक नियम है, इसको Emergency Rule कहा जाता है, इसमें होता ये है कि उस समय-विशेष में जितने सदस्य सदन में उपस्थित हैं उनका आधा अगर उस विधेयक के पक्ष में मतदान कर दे तो कानून बन जायेगा | आप इसी को लोकतंत्र कहेंगे क्या ? मैं कोरम को ही लेता हूँ और आपसे पूछता हूँ कि अगर 27 -28 लोग मिलकर कोई विधेयक पास करा लेते हैं और 120 करोड़ लोगों के लिए कानून बन जाता है तो वो कहीं से भी लोकतांत्रिक होगा क्या ?  तो हम हमारे देश में जो लोकतांत्रिक व्यवस्था चला रहे हैं वो कहीं से भी लोकतांत्रिक नहीं है और लोकतांत्रिक कैसे नहीं है उसका एक उदहारण और देता हूँ | जब चुनाव होते हैं तो हम लोग मतदान करते हैं जिसमे किसी पार्टी के प्रत्याशी को चुनते हैं यानि दुसरे को हराते हैं और जब ये लोग संसद में पहुँचते हैं तो ऐसे लोगों से गठबंधन कर लेते हैं जिसको हमने नकार दिया है | पिछले संसद में आपने देखा होगा कि कम्युनिस्ट पार्टी ने उस कांग्रेस को समर्थन देकर सरकार बनाया जिसका विरोध कर के उसने लोगों का समर्थन पाया था, चाहे वो बंगाल हो, केरल हो या पूर्वोत्तर के विभिन्न राज्य | ये उस राज्य/क्षेत्र की जनता का अपमान हुआ कि नहीं | ऐसा ही अटल बिहारी वाजपेयी के सरकार के समय हुआ था | इसी को आप लोकतंत्र कहेंगे क्या ? ये तो मजाक हो रहा है इस देश में, लोकतंत्र के नाम पर | 


ये व्यवस्था कहीं से भी लोकतांत्रिक नहीं है ये दरअसल अंग्रेजों का बनाया हुआ गुलामगिरी वाला Aristocratic System है जिसमे 4 -5 लोगों को निर्णय लेने का अधिकार है बाकी तो उसे सिर्फ follow करते हैं | उनको प्रश्न पूछने का भी अधिकार नहीं है | प्रधानमंत्री ने कोई फैसला कर लिया तो उसे पुरे मंत्रिमंडल को मानना ही पड़ेगा, चाहे वो कितना ही गलत क्यों ना हो, क्योंकि system में लिखा हुआ है कि "प्रधानमंत्री कभी गलत नहीं होता, जो फैसला वो करेंगे उसको कैबिनेट को मानना ही पड़ेगा", अगर आप नहीं मान सकते तो कैबिनेट से इस्तीफा दीजिये और बाहर जाइये | यही लोकतंत्र है क्या ? अभी आपने देखा कि कैसे वालमार्ट को बुलाने के लिए इन्होने कमर कस लिया है, इस पर ना राज्यों से चर्चा, न विपक्ष से सलाह और आम आदमी की इस देश में इज्ज़त क्या है वो तो इसी तरह मरने के लिए 
ही पैदा हुए है, वो तो इससे बाहर होते ही है,हमेशा की तरह, इसी को  लोकतंत्र कहेंगे क्या ?

अपने संसद में जब बहस होती है तो आप जरा ध्यान दीजियेगा | हमारे जो सांसद हैं वो किसी ड्राफ्ट पर बहस करते हैं, वो ड्राफ्ट बिल कहलाता है उसे हिंदी में विधेयक कहते हैं | तो वो जिस बिल पर बहस करते हैं उसकी ड्राफ्टिंग सेक्रेटरी करता है | संसद में सेक्रेटरी होता है वो बिल की ड्राफ्टिंग करता है, इसके पास सेक्रेटरी की एक टीम होती है | जेनरल सेक्रेटरी जो होता है उसके पास ज्वाइंट सेक्रेटरी स्तर के कई अधिकारी होते हैं, उनसे वो बिल की ड्राफ्टिंग करवाता है और ये सभी के सभी IAS ऑफिसर होते हैं | एक बार मैंने एक सांसद महोदय से पूछा कि आप मेरे सांसद हैं, मेरे प्रतिनिधि हैं, आप बहस करते हैं, तो जिस बात पर आप बहस करते हैं उसकी ड्राफ्टिंग खुद क्यों नहीं करते ? क्या आप जानते हैं कि हमारे सांसद जिस बिल पर बहस करते हैं उसकी ड्राफ्टिंग वो खुद नहीं कर सकते, वो सिर्फ बहस करते हैं और बहस के दौरान उन्हें लगे कि xyz point गलत है या यहाँ कौमा छुटा है तो फिर उन्हें (सांसद/मंत्री को) एक आवेदन देना पड़ेगा, फिर बिल सेक्रेटरी के पास वापस जायेगा, सेक्रेटरी उस पर विचार करेगा, ज्वाइंट सेक्रेटरी की बैठक बुलाएगा, हो सकता है कि वो बैठक तीन महीने तक चलता रहे, नोटिफिकेशन जारी करेगा और तब कौमा बदलेगा या कोई त्रुटि होगी उसे ठीक किया जायेगा, उसके बाद ये बिल वापस सदन में आएगा | कितना समय लगा ? तीन महीना और वो भी एक कौमा बदलने में | अगर सांसदों को ये अधिकार होता तो वो क्या करते ? वो कलम निकालते और तुरत उस कौमा को खुद डाल देते या xyz point गलत है उसे बदल देते | लेकिन वो ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि उन्हें ये अधिकार ही नहीं है, क्योंकि नियम नहीं है और ये नियम अंग्रेजों ने बनाया था | जब हमारा प्रतिनिधि हमारे लिए ड्राफ्ट नहीं बना सकता, जिनका प्रतिनिधित्व वो कर रहा है उनके हित का ख्याल कर के वो ड्राफ्ट नहीं बना सकता तो फिर वो हमारा प्रतिनिधि हुआ कैसे ? सिर्फ वो बहस कर सकता है, कोई लाउडस्पीकर थोड़े ही भेजा है हमने ? 


ये तो था संसद और हमारे प्रतिनिधियों का हाल अब उसके नीचे का हाल भी देख लीजिये | हमारे यहाँ गाँव में सबसे छोटा अधिकारी होता है "पटवारी" (अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग नाम से ये जाने जाते हैं) तो आप देखिये कि ये सिस्टम क्या है ? हमारे यहाँ के पटवारी का जवाबदेही/ accountability किसके प्रति है तो वो अपने से ऊपर के अधिकारी के प्रति जवाबदेह है, वो ऊपर का अधिकारी BDO हो सकता है, SDO हो सकता है या SDM हो सकता है  (अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग नाम हैं इनका) और इन अधिकारियों की जवाबदेही जिलाधिकारी के प्रति होती है, जिलाधिकारी की जवाबदेही कमिश्नर के प्रति होती है, कमिश्नर की जवाबदेही राज्य के चीफ सेक्रेटरी के प्रति होती है, चीफ सेक्रेटरी की जवाबदेही कैबिनेट सेक्रेटरी के प्रति और कैबिनेट सेक्रेटरी की जवाबदेही किसी के प्रति नहीं, बस किस्सा ख़त्म | क्या आप जानते हैं कि भारत का कैबिनेट सेक्रेटरी किसी के प्रति जवाबदेह नहीं होता, क्योंकि अंग्रेज जो कानून बना के गए हैं उसमे यही कहा गया है | अब आप देखिये कि मेरा जो पटवारी है वो BDO /SDO /SDM को खुश करने में लगा रहता है , BDO /SDO /SDM जो हैं वो जिलाधिकारी को खुश करने में लगा रहता है, जिलाधिकारी जो है वो कमिश्नर को खुश करने में लगा रहता है, कमिश्नर चीफ सेक्रेटरी को खुश करने में लगा रहता है, चीफ सेक्रेटरी जो है वो कैबिनेट सेक्रेटरी को खुश करने में लगा रहता है | इन सब को अपने से ऊपर के अधिकारी को खुश करने की चिंता है क्योंकि वो उनकी CR ख़राब कर सकता है, Promotion रुक जायेगा, तबादला हो जायेगा | उसको गाँव के लोगों की कोई चिंता नहीं है, गाँव के लोगों के ऊपर अत्याचार करेगा, घुस लेगा, रिश्वत लेगा, क्योंकि वो जानता है कि गाँव वालों के हाथ में कुछ नहीं है, ना वो मेरा CR लिख सकते हैं, ना promotion दे सकते हैं, ना मेरा तबादला कर सकते हैं | सब एक दुसरे को खुश करने में लगे रहते हैं और ये सब मेरे और आपके पैसे से पगार (salary) पा रहे हैं, हमको खुश नहीं रखेंगे, हम और आप उनके पगार के लिए पैसा दे रहे हैं टैक्स के रूप में  | क्यों नहीं खुश रखेंगे ? क्योंकि उनकी जवाबदेही अपने उच्च अधिकारियों के प्रति है ना कि हमारे प्रति, क्योंकि कानून ऐसा है और इसीलिए भ्रष्टाचार है वहां, आप कैसे रोकेंगे भ्रष्टाचार को ? भ्रष्टाचार तो होगा ही |
 

हमारे यहाँ जो न्याय व्यवस्था है वो IPC, CrPC, CPC पर आधारित है जो यूरोप से लिया गया है और ये प्लेटो के laws पुस्तक पर आधारित है जिसको हमने बिना अक्ल लगाये ले लिया है | आप देखिएगा कि भारत में जो न्याय व्यवस्था चलती है उसमे पैसे वालों को ही न्याय मिलता है | हमारे पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे.अब्दुल कलम साहब जब राष्ट्रपति थे तो उन्होंने भारत के मुख्य न्यायाधीश को एक पत्र लिखा था और पूछा था कि "क्या कारण है कि आजादी के बाद के 50 सालों में गरीबों को ही फाँसी हो रही है, किसी अमीर को फाँसी नहीं हुई जब कि उन्होंने गरीबों से ज्यादा अपराध किये हैं " अब मुख्य न्यायाधीश साहब ने जवाब दिया कि नहीं मुझे नहीं मालूम लेकिन मेरे पास जवाब है | जवाब ये है कि "हमने कानून और न्याय व्यवस्था अंग्रेजों से ली है और उनके यहाँ न्याय तो पैसे वालों को ही मिलता है, ताकतवर को मिलता है, गरीब को तो न्याय लेने का अधिकार ही नहीं है क्योंकि उनके दार्शनिक प्लेटो के अनुसार गरीबों में आत्मा ही नहीं होती है " | ऐसी व्यवस्था की नक़ल कर के हम सोचे कि सुख, समृद्धि और शांति आएगी तो मुझे नहीं लगता कि ऐसा होने वाला है | 


कुछ छोटी-छोटी लेकिन हास्यास्पद बाते आपको बताता हूँ कि कैसे अंग्रेजों की व्यवस्था को हमारे यहाँ थोपा गया है और बड़े मजे से चल रहा है, आज भी, बिना रुके, बिना बदले | 

  • अंग्रेजों ने कानून बना के जिनको अनुसूचित जाति घोषित कर दिया वो आज भी अनुसूचित जाति में हैं, जिनको कानून बना कर अनुसूचित जनजाति बना दिया वो आज भी अनुसूचित जनजाति में हैं | 
  • अंग्रेजों ने जो हिन्दू कोड बिल तय किया, वही हिन्दू कोड बिल आज भी चलता है पुरे देश में, और वो कहते थे कि मुस्लिम कोड बिल हमें बनाना नहीं है तो वो आज तक नहीं बना, अब बनना चाहिए कि नहीं वो अलग मुद्दा है लेकिन महत्वपूर्ण ये है कि वो जो तय कर के गए वो आज भी चल रहा है | 
  • अंग्रेजों ने जिनको अल्पसंख्यक कह दिया वो आज भी अल्पसंख्यक हैं | अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक कोई अपने देश में होता है क्या ? अल्पसंख्यक किसको कह सकते हैं आप ? जो विदेशों से आ के आपके देश में बसे या विस्थापित होकर दुसरे देश से आये और आपने उनको शरण दिया | मुझे तो आश्चर्य होता है कि इस देश के मुसलमानों ने या सिखों ने इस बात का आजतक विरोध क्यों नहीं किया ? वो इस टैग के साथ खुश क्यों हैं ? और तो और एक अल्पसंख्यक आयोग भी काम करता है इस देश में |  
  • यूरोप में रविवार को छुट्टी होती है क्योंकि उन्हें चर्च जाना होता है, हम क्यों उस व्यवस्था को ढो रहे हैं ? हमारे लिए तो सब दिन एक समान है, रविवार की छुट्टी तो बंद होनी चाहिए, हम उनकी मान्यताओं को क्यों ढो रहे हैं  | छुट्टी ही देनी है तो किसी और दिन को हम तय कर लेंगे | 
  • यूरोप में ठण्ड बहुत होती है और उनके यहाँ सूर्य साल के आठ-नौ महीने नहीं निकालता तो ठण्ड के कारण लोग दफ्तर देर से जाते हैं, दफ्तरों में काम देर से शुरू होता है, हम क्यों उस व्यवस्था को चला रहे हैं अपने देश में ? जब कि हमारे यहाँ साल में नौ-दस महीने गर्मी पड़ती है हमें तो दफ्तर सवेरे शुरू करना चाहिए | हमारे यहाँ तो सवेरे का समय सबसे अच्छा माना जाता है , क्यों हमें दस-ग्यारह बजे दफ्तर का काम शुरू करना चाहिए जब आधा दिन निकल चूका होता है और हमारी आधी शक्ति ख़त्म हो चूकी होती है | जब देश के सत्तर करोड़ किसान सूर्योदय के साथ काम शुरू कर सकते हैं तो दस-बारह करोड़ सरकारी कर्मचारी क्यों नहीं कर सकते ? 
  • हमारे यहाँ बजट फ़रवरी के अंत में आता है, क्यों आना चाहिए फ़रवरी में ? उनके यहाँ ऐसा होता है तो उसकी वजह है, वजह ये है कि उनका नया साल अप्रैल से शुरू होता है और उनको अपने लोगों को अप्रैल फूल बनाना होता है, हम क्यों वो व्यवस्था चला रहे हैं, हमारा तो नया साल दिवाली से शुरू होता है तो हमारा बजट दिवाली को आना चाहिए | 
  • हम उनकी मान्यताओं में फंसे हैं और जनवरी-फ़रवरी के हिसाब से महीने मानते हैं, क्यों ऐसा होना चाहिए ? जनवरी का क्या मतलब होता है कोई बता सकता है ? कोई नहीं जानता लेकिन आप चैत्र, बैसाख, ज्येष्ठ, असाढ़, सावन आदि का मतलब पूछेंगे तो मैं बता सकता हूँ | और मूर्खों के महीनों के नाम देखिये कैसे-कैसे है --अक्टूबर को लीजिये, अक्टूबर बना है OCT से, ये ग्रीक का शब्द है, इसका मतलब होता है आठ और अक्टूबर महीना कौन सा है ? दसवां | सितम्बर बना है SEPT शब्द से मतलब होता है सात और महीना है नौवां, ऐसे ही नवम्बर है, ये बना है NOV से जिसका मतलब है नौ और महीना है ग्यारहवां, क्या मुर्खता है ? कभी सोचा ही नहीं हमने |   

तो सिस्टम ऐसा है अपना, और ये सिस्टम इसी तरह अंग्रेज चलाते थे तो उनकी मजबूरी थी कि 50 हजार अंग्रेजों को 20 -34 करोड़ भारतीयों पर शासन करना था, इसीलिए उन्होंने ऐसा सिस्टम बनाया था | तो 50 हजार लोग 20 -34 करोड़ लोगों पर शासन करेंगे तो उसके लिए उसी तरीके के नियम कानून बनेंगे और वही नियम कानून अब हम चलाएंगे तो परिणाम तो वही निकलेगा जो उस ज़माने में आता था | सिस्टम तो वही हैं ना ? तो प्रोडक्ट भी वही निकलेगा | हमने मशीन नहीं बदला, मशीन हम वही इस्तेमाल कर रहे हैं जो अंग्रेज करते थे | कई बार मैं मजाक में कहता हूँ कि हमने कार नहीं बदली, केवल ड्राइवर बदल लिया है | जो कार अंग्रेज चलाते थे वही कार जवाहर लाल नेहरु से लेकर मनमोहन सिंह तक जितने प्रधानमंत्री हुए सब ने चलाया | अब सिस्टम नहीं बदलेंगे तो आप किसी को भी ड्राइवर बना के बिठाएंगे परिणाम वही निकलेगा | आप मुझे भी बैठाएंगे तो परिणाम यही आएगा, नए परिणाम की अपेक्षा मत करियेगा | परिणाम नया चाहिए तो सिस्टम बदलना होगा और उसके लिए प्रयास नहीं करेंगे तो हमारे आँखों के सामने यही तस्वीर आती रहेगी और हम खून के आंसू रोते रहेंगे | गरीबी, बेकारी, भुखमरी होने ही वाली है क्योंकि अंग्रेजों ने जो सिस्टम चलाया उसमे से गरीबी निकलने ही वाली है, बेकारी निकलने ही वाली है, भुखमरी होने ही वाली है, क्योंकि वो यही चाहते थे और इसी हिसाब से उन्होंने ये सिस्टम बनाया था और उसी हिसाब से सिस्टम चलाते थे |

अब आप पूछेंगे कि फिर क्या होना चाहिए ? मेरे हिसाब से आज के समय में सबसे महत्वपूर्ण है भारत के उन नियम-कानूनों को बदलना जो आज भी बिना फुल स्टॉप और कौमा बदले हुए चल रहे हैं | हमने संविधान बना लिया लेकिन वो चलता उसी नियम-कानून से है जो अंग्रेज तय कर के चले गए | क्योंकि संविधान अपने आप में कोई चीज नहीं है, संविधान से अलग जो नियम और कानून हैं वो तय करते हैं कि देश कैसे चलना चाहिए, संविधान में तो बहुत सी अमूर्त बाते हैं और वो नियम के हिसाब से follow की जाती है पुरे देश में | तो अगर वो नियम और कानून नहीं बदलते हैं तो सिस्टम बदलने का प्रश्न ही नहीं है | आप कहते रहिये, संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली, वो आपकी खुशफहमी के लिए है दरअसल वो 101% गुलामगिरी का Aristocratic System है |
 

करना क्या है
अब भारत के लोगों को क्या करना चाहिए, तो मैं इस मान्यता का हूँ कि हमको बहुत शांत भाव से, प्रशांत भाव से अपने व्यवस्था (system ) की समीक्षा (analysis) करनी होगी, और व्यवस्था की समीक्षा दो आधार पर होनी चाहिए, गाली-गलौज करके नहीं | एक तरीका तो ये हो सकता है कि हम गलियां दे इस व्यवस्था को, तो ठीक है, दीजिये, लेकिन उसमे से कुछ निकलने वाला नहीं है या फिर रोते रहिये कि ये गलत है, वो गलत है, वो तो होने ही वाला है | जैसे कई बार हम कहते हैं कि भ्रष्टाचार है, अब जिस सिस्टम में एक ऑफिसर अपने द्वारा सेवा की जाने वाली जनता के प्रति जवाबदेह नहीं है तो भ्रष्टाचार तो बनेगा ही वहां | भ्रष्टाचार बनाने के लिए ही तो ये सिस्टम बनाया था अंग्रेजों ने, आप इस सिस्टम में सदाचार की उम्मीद थोड़े ही कर सकते हैं, भ्रष्टाचार ही निकलेगा पुरे सिस्टम में से | अगर आप चाहते हैं कि भ्रष्टाचार, बेकारी, भुखमरी ख़त्म हो तो इस सिस्टम को बदलिए तो सिस्टम बदलने का एक सामान्य सा सिद्धांत है कि जो कुछ अंग्रेज चलाते थे उसको उठा के फ़ेंक देना और अपने हिसाब से नया बनाना | अंग्रेजों ने कानून बनाया कि सांसद बिल की ड्राफ्टिंग नहीं कर सकते तो हम उस कानून को उठा के फेंक दे और हम तय कर ले कि हमारे बिल की ड्राफ्टिंग हमारे सांसद करेंगे, हमें ज्वाइंट सेक्रेटरी की जरूरत नहीं है, हटाओ इस पोस्ट को | (एक बात और आप जान लीजिये कि हमारे सांसद जब JPC के तहत कोई रिपोर्ट बनाते हैं तो वो एकदम सटीक और सच होता है, ये आप किसी भी JPC की रिपोर्ट पढ़ के समझ सकते हैं, ऐसा नहीं है कि हमारे सांसदों में ये गुण नहीं है )  अंग्रेजों ने तय किया कि पटवारी की जवाबदेही SDO के प्रति होगी, हम तय करेंगे कि पटवारी की जवाबदेही गाँव के पंचायत के प्रति होगी, उसकी CR गाँव के लोग लिखेंगे, पटवारी अगर गाँव के पंचायत के प्रति जवाबदेह होगा तो हमेशा उसको गाँव के पंचायत की ख़ुशी देखनी होगी | भ्रष्टाचार अपने आप ख़त्म हो जायेगा | SDO को डिविजन के लोगों के प्रति जवाबदेह बना देना होगा, उसकी CR डिविजन के लोग तैयार करेंगे,  जिलाधिकारी की जवाबदेही उस जिले की जनता के प्रति होगी, उसकी CR जिले के लोग तैयार करेंगे,  आप देख लीजियेगा जिलाधिकारी सीधा काम करना शुरू कर देंगे | इसमें कुछ मुश्किल नहीं है, ये बदलाव बहुत आसान है | इसके अलावा अंग्रेजों द्वारा जो Service Manual छोड़ा गया है, जिसमे Police Manual है, Jail Manual है, जिसमे 14 -15 हजार पन्ने हैं, उसको भारत के जरूरत और मान्यताओं के हिसाब से बना लेना है |  
       
अभी जो भारत का लोकतंत्र है, ये लोकतंत्र तो नहीं चलने वाला, क्योंकि ये मुर्खता पर आधारित तंत्र है, ये चलेगा तो देश का नाश ही करेगा | महर्षि चाणक्य का एक बहुत सुन्दर सूत्र है जिसमे वो कहते हैं कि " जब अज्ञानी (मुर्ख) लोग ज्ञानियों पर शासन करने लगे तो उस देश का सर्वनाश निश्चित है " | तो इस देश को तो बचाना ही है, तो बचायेंगे कैसे ? हम जहाँ रहते हैं वहां पर ऐसे लोगों को चुने जिनमे धर्म,संस्कृति,सभ्यता की समझ हो, जो हमारे और दुसरे देशों की संस्कृति और सभ्यता और धर्म में अंतर जानते हों, भारत को जानते हों, भारतीयता क्या है इसको पहचानते हों, कम से कम धर्म के दस लक्षण उन्हें मालूम हो ( धैर्य, क्षमा, संयम, चोरी न करना, शौच (स्वच्छता), इन्द्रियों को वश मे रखना, बुद्धि, विद्या, सत्य और क्रोध न करना; ये धर्म के दस लक्षण हैं।) , उनके डिग्री से हमें कोई मतलब नहीं है क्योंकि कई बार डिग्री लिए हुए लोग महामूर्ख निकल जाते हैं | और दूसरी योग्यता कि वो "लंगोट से पक्के हों और जेब से पक्के हों" मतलब स्ख्लन्शील ना हों, जब स्खलित लोग ऊँचे पदों पर पहुंचते हैं तो बंटाधार ही करते हैं, इसके बहुत से उदहारण इस देश में उपलब्ध हैं आप कभी भी देख और समझ सकते हैं, जेब से पक्के मतलब "पैसे पर फिसलने वाले ना हों" | और जिनकी कथनी और करनी एक हों | ऐसे लोगों को हम चुन लें और हर जगह पर ऐसे 10 -20 लोग तो कम से कम मिल ही जायेंगे, फिर उनको प्रशिक्षित किया जाये कि उनको करना क्या है, प्रशिक्षण के बाद उनको लोकसभा में और विधानसभाओं में भेजा जाये और जो काम करवाना है करवा के वापस बुला लिया जाये | व्यवस्था क्या हो कि पार्टी ख़त्म कर दी जाये इस देश में से, पार्टी की जरूरत नहीं है हमें,  और बिना पार्टी के प्रतिनिधियों को हम चुने, हम जहाँ रहते हैं वहां के लोगों के बारे में हमें पता है और कौन सही है, कौन गलत है ये हम जानते हैं, और ये चुने हुए प्रतिनिधि अपने में से ही किसी को प्रधानमंत्री चुन लें, किसी को वित्तमंत्री चुन लें, और जिसको हमने भेजा है उनको वापस भी हम बुला ले एक ही मिनट में, अगर वो हमारी आशा के अनुरूप काम ना करे, गुंडा निकले, भ्रष्टाचारी निकले तो, ये नहीं कि पाँच साल हम इंतजार करते रहे कि दुबारा चुनाव होगा तो हम इसे हराएंगे, जैसे हम कार्यालय में या दुकान पर किसी को काम पर रखते हैं और वो अगर गलत करता हुआ पाया जाता है तो हम इंतजार थोड़े ही करते है उसे निकलने में, वैसे ही इनके साथ होना चाहिए, और ये सारा नियंत्रण लोगों के हाथ में हो | तब जा कर व्यवस्था परिवर्तन हो सकेगा |      

अमेरिका भी एक समय स्पैनिश और फिर अंग्रेजों का गुलाम हुआ लेकिन जब अमेरिका आजाद हुआ तो उसने अपने यहाँ मौजूद सभी अंग्रेजी और स्पैनिश निशानियों को हटाया | आप अमेरिका जायेंगे तो देखेंगे कि उन्होंने रोड पर चलने का अपना ढंग भी अंग्रेजों से उलट बनाया है, वो रोड पर दायें चलते हैं, इंग्लैंड में बिजली का स्विच नीचे ऑन होता है और अमेरिका में ऊपर की तरफ | इतने छोटे स्तर पर उन्होंने बदलाव किया अपने यहाँ, और हम ? आप जापान का इतिहास देखिये, फ़्रांस का इतिहास देखिये, जर्मनी का इतिहास देखिये, चीन का इतिहास देखिये, सब इंग्लॅण्ड के गुलाम हुए थे लेकिन जब आजाद हुए तो उन्होंने अंग्रेजों की एक-एक व्यवस्था को अपने यहाँ से उखाड़ फेंका, फ़्रांस और जर्मनी ने तो अपने यहाँ के शब्दकोष में से उन सभी शब्दों को हटाया जो अंग्रेजी से लिया गया था, अमेरिका ने अपनी अलग अंग्रेजी विकसित की | आज इन सब देशों का अपना अस्तित्व तो है ही दुनिया भी उन्हें सम्मान की दृष्टि से देखती है और ये सब हुआ है अपने यहाँ स्वराज्य लाकर, अपनी व्यवस्था बनाकर | इंग्लैंड में जो जो व्यवस्था है, जो नियम है, जो कानून है वो उनके अपने हिसाब से है और उस व्यवस्था को वो बनायें, चलायें, खुश रहें, हमें कोई आपत्ति नहीं है, तकलीफ की बात ये है कि उनकी व्यवस्थाओं को हम अपने यहाँ लायें और सोचे कि भारत सुखी हो जायेगा, समृद्धशाली हो जायेगा, ये तो अपने को धोखा देना है और पिछले 64 सालों से यहीं हो रहा है इस देश में | जो भी सरकार आती है वो अंग्रेजी और यूरोप की व्यवस्थाओं में ही देश को सुधारने की कोशिश करती है, अंत में क्या होता है कि कुछ सुधरता नहीं है | 64 साल छोडिये पिछले 20 सालों में सभी पार्टियों ने देश पर शासन किया है लेकिन देश वहीं का वहीं है क्योंकि सत्ता तो बदली लेकिन व्यवस्था नहीं बदली है | भारत बनेगा भारत के रास्ते से | 


तो मेरे मन में हमेशा एक बात आती है कि अगर हम स्वतंत्रता चाहते है, स्वराज्य चाहते हैं, स्वराज्य जो कि एक बहुत सुन्दर शब्द है, स्वराज्य मतलब अपना राज्य, वो है कहाँ ? ये तो अंग्रेजों का राज्य है, अपना कहाँ हैं ? स्वतंत्रता मिल गयी, गुलामी से मुक्ति मिल गयी, लेकिन स्वराज्य नहीं आया, अपना कुछ भी नहीं है, स्वतंत्रता के 64 साल बाद भी हम गुलाम ही हैं, स्वराज्य तो कोसो दूर है | 1947 के पहले के क्रांतिकारियों ने स्वतंत्रता लाने की लड़ाई लड़ी, अब हमको स्वराज्य के लिए लड़ना होगा | ऐसे ही स्वराज्य नहीं आएगा, या तो आप तय कर लीजिये कि हम स्वराज्य लाने के लिए लड़ेंगे नहीं तो ऐसे ही अपमान से मरते रहेंगे हम इस देश में | दो कौड़ी की आपकी कोई पूछ नहीं है, आपको एक थर्ड क्लास का आदमी सबक सिखा सकता है इस देश में | ना कहीं न्याय है, ना कहीं व्यवस्था है, और कानून इतने बेहुदे हैं इस देश में जिसकी कोई कल्पना नहीं है | अब जरूरत हैं व्यवस्था बदलने की | 

देखिये जब देश की आजादी की लड़ाई चल रही थी तो पूरा भारत उस लड़ाई में नहीं लगा था कुछ लोगों ने उस लड़ाई को लड़ा और हमें आजादी दिलाई थी अब हमें स्वराज्य के लिए लड़ना होगा, स्वराज्य मतलब अपना राज्य, अपनी व्यवस्था, तभी हम सफल हो पाएंगे एक राष्ट्र के रूप में, और आप इसमें पुरे भारत से उम्मीद मत करियेगा कि वो इसमें शामिल हो जायेगा लेकिन हाँ सभी भारतीयों के समर्थन की जरूरत जरूर होगी | और किसी क्रांति के पहले एक वैचारिक क्रांति होती है और मैं अभी उसी वैचारिक क्रांति के लिए ही आपको प्रेरित कर रहा हूँ | 
क्योंकि जब क्रांति हो तो हमारे दिमाग में ये भी तो हो कि हमें करना क्या है, इसलिए ये बाते याद रखियेगा क्योंकि समय नजदीक आ गया है | 

आपने इतने लम्बे पत्र को धैर्यपूर्वक पढ़ा इसके लिए आपका धन्यवाद्, इस पत्र को और लोगों को फॉरवर्ड करेंगे तो और भी आभारी रहूँगा | मेरा ये लेख कॉपी राईट कानून के अंतर्गत है मतलब हर किसी को कॉपी करने का राईट है, आप इसे कॉपी कीजिये, मेरा नाम हटाइए और अपना नाम डालिए मुझे कोई आपत्ति नहीं है, मेरी तो बस इतनी ही इच्छा है कि ये पत्र ज्यादा से ज्यादा राष्ट्रप्रेमी भाइयों और बहनों तक पहुंचे |   
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1 सत्ता हस्तांतरण की संधि 
हमें ही सड़कों पर उतरना होगा 
2 भारत के कानून
भारत के कानून
जय हिंद राजीव दीक्षित
सूत्रधार
एक भारत स्वाभिमानी
रवि

Tuesday, November 29, 2011

बड़े रिटेलर भी ‘बिचौलिए’ हैं

उनकी व्यापारिक नीति साफ है- कम से कम दाम में खरीदो और ज्यादा से ज्यादा दाम में बेचो।
वालमार्ट और भारत का खुदरा बाज़ार (भाग-2)--एक भारत स्वाभिमानी रवि
अमेरिका में बेरोज़गारी की दूसरी वजह है बड़ी रिटेल कंपनियां 
आदरणीय दोस्तों 
हमेशा ‘सबसे सस्ते विक्रेता’ की खोज के कारण अमेरिका में बड़े रिटेलर्स अब दूसरे देशों के बाजारों में पहुंच गए हैं। ‘वालमार्ट’ या ‘टार्गेट’ जैसे रिटेलर्स अमेरिका में बना माल बहुत कम रखते या बेचते हैं। उनके ज्यादातर सामान अमेरिका के बाहर से आते हैं, जिससे अमेरिकी कारखाने बंद हो गए हैं और लाखों लोग बेरोजगार हो गए हैंबड़े रिटेलर्स का कारोबार बढ़ा है, लेकिन उत्पादन क्षेत्र में गिरावट आई है। अमेरिका में वर्ष 1979 में उत्पादन क्षेत्र में एक करोड़ 95 लाख लोगों को रोजगार मिला हुआ था। उसके बाद उसमें निरंतर गिरावट आती गई। 2011 में यह आंकड़ा गिरकर एक करोड़ 18 लाख तक आ गया है। यानी 32 साल में 77 लाख रोजगार का नुकसान। यानी लगभग दो लाख 40 हजार रोजगार प्रति वर्ष या 20 हजार रोजगार प्रति माह की हानि। हालांकि इसका पहला कारण नई तकनीक है, जिससे कम लोगों से ज्यादा उत्पादन किया जा सकता है। लेकिन इसकी दूसरी वजह है बड़ी रिटेल कंपनियां, जो दूसरे देशों या ‘ऑफशोर’ से व्यापारिक माल खरीदती हैं और उत्पादन क्षेत्र को बंद हो जाने पर बाध्य करती हैं। मई 2011 में अमेरिका में बेरोजगारी का स्तर 9.1 फीसदी है। वहां एक करोड़ 39 लाख लोग बेरोजगार हैं। बेरोजगारी के ये आंकड़े आसानी से नीचे नहीं आ सकते, क्योंकि रोजगार की मूलभूत संरचना को बड़े रिटेल ने बदलकर रख दिया है। सबक बिल्कुल साफ है। मल्टी-ब्रांड रिटेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश भारी तादाद में भारतीय उत्पादों के स्थान पर विदेशी उत्पादों को ले आएगा, जिससे उत्पादन क्षेत्र में बड़े पैमाने पर रोजगार घटेंगे। भारतीय अर्थव्यवस्था रोजगार के अवसर पैदा करने में अच्छी भूमिका नहीं निभा रही, और सरकार के बजट के हिसाब से हमारे यहाँ पहले से ही jobless growth हो रहा है । नेशनल सैंपल सर्वे ने हाल ही में जारी अपनी रिपोर्ट रोजगार और बेरोजगारी सर्वेक्षण- 2009-10 में बताया है कि देश की आधी से अधिक (51 प्रतिशत) श्रमिक-संख्या स्वरोजगार में है, 16 प्रतिशत नियमित वेतन वाली नौकरी में, जबकि 33.5 प्रतिशत श्रमिक आबादी दिहाड़ी मजदूरी में लगी है। पिछले दस साल में, नियमित वेतन वाली नौकरी की श्रेणी में औसतन एक लाख रोजगार प्रति वर्ष की बढ़ोतरी हुई है। पर हमारी बढ़ती जनसंख्या के साथ इस स्तर की रोजगार वृद्धि अपर्याप्त है।

रोजगार के जरिये सामाजिक संतुलन बनाए रखने में भारतीय रिटेल क्षेत्र की महत्वपूर्ण भूमिका है। हमारे देश में तकरीबन एक करोड़ 30 लाख रिटेल प्रतिष्ठान या खुदरा विक्रेता हैं। आईआरएस-2011 के अनुसार, दो करोड़ 55 लाख लोगों को इस क्षेत्र में रोजगार मिला हुआ है। इनमें वे विक्रेता भी शामिल हैं, जिनके पास अपनी दुकान नहीं है। देश के कुल रोजगार का 11 प्रतिशत इस क्षेत्र की बदौलत है, और इस मामले में कृषि के बाद यह दूसरे स्थान पर है। मल्टी-ब्रांड रिटेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का सीधा शिकार वैसे लोग ही बनेंगे, जो किसी तरह रिटेल क्षेत्र से अपना गुजारा कर रहे हैं। हमारी अर्थव्यवस्था उन्हें रोजगार के दूसरे विकल्प नहीं दे सकती। रिटेल में रोजगार के सुरक्षा वॉल्व के बिना सामाजिक अशांति किसी भी हद तक जा सकती है। सरकार ने मल्टी-ब्रांड रिटेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति देने की जो दलीलें दी हैं, वे बनावटी हैं। एक दलील यह है कि किसानों को उनके उत्पाद की मिलने वाली कीमत और उपभोक्ताओं द्वारा अदा की गई कीमत के बीच बड़ा अंतर है। यह अंतर ‘बिचौलियों’ द्वारा हड़प लिया जाता है। ये विदेशी रिटेलर्स सीधे किसानों से खरीदेंगे और ‘बिचौलियों’ को हटाकर वे किसानों को उनकी फसल की बेहतर कीमत देंगे। बड़े रिटेलर भी ‘बिचौलिए’ हैं। उनकी व्यापारिक नीति साफ है- कम से कम दाम में खरीदो और ज्यादा से ज्यादा दाम में बेचो। दलील यह है कि जब बड़े रिटेलर किसानों से खरीदने के लिए बाजार में आएंगे, तो वे किसी तरह प्रचलित मूल्य की अनदेखी कर किसानों को अधिक कीमत देंगे। ऐसा बिलकुल नहीं होने वाला। इसके विपरीत बड़े रिटेलर किसानों की मंडी में जाएंगे और कुछ ही समय में एकाधिकार जमाकर वहां की स्पर्धा को समाप्त कर देंगे। फिर किसान अपना उत्पाद बेचने के लिए बड़े रिटेलर के रहमोकरम पर रहेंगे। किसानों को अच्छी कीमत मिलने के लिए तीन चीजें जरूरी हैं। एक, अच्छी सड़कें। दूसरी, जल्दी खराब होने वाले उत्पादों के बेहतर भंडारण की क्षमता। तीसरी, वक्त पर बाजार की सही जानकारी। सेलफोन ने इस आखिरी जरूरत को काफी हद तक पूरा कर दिया है। बाकी दो का रिटेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से कोई वास्ता नहीं। भारत में बुनियादी ढांचे की दो समस्याएं हैं- सड़क और बिजली। भारत की 30 लाख किलोमीटर से अधिक सड़कों में से राष्ट्रीय राजमार्ग लगभग दो प्रतिशत है, राज्यों के राजमार्ग चार प्रतिशत, जबकि 94 प्रतिशत जिला और ग्रामीण सड़कें हैं। जिला और ग्रामीण सड़कें राज्य सरकार के विषय हैं, और यहीं पर आपूर्ति-श्रृंखला संरचना ढह जाती है। इसी तरह, 1,74,000 मेगावाट की मौजूदा क्षमता के बावजूद केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण ने अगले वित्त वर्ष और उसके बाद के लिए जरूरत के मुकाबले विद्युत उत्पादन दस फीसदी कम रहने का अनुमान लगाया है। इस वजह से नियमत: बिजली जाती है, जो कोल्ड-चेन के परिचालन को बेहद मुश्किल बना देती है। बड़े रिटेलर सड़क और बिजली के इस मुद्दे को नहीं सुलझा सकते। आपूर्ति-श्रृंखला के बुनियादी मसलों को सुलझाने और कृषि उत्पादों के अपव्यय को कम करने की उनकी क्षमता सीमित होगी। यह भी कहा जाता है कि भारतीय औद्योगिक घराने पहले से ही खुदरा बाजार में हैं, ऐसे में विदेशी रिटेलर बहुत ज्यादा नुकसान नहीं पहुंचा पाएंगे। इस दलील से अधिक भ्रामक कुछ नहीं हो सकता। जब ‘वालमार्ट, ‘टेस्कोस’ और ‘केयरफॉर ’ बाजार में उतरते हैं, तब वे स्थानीय स्पर्धा को पूरी तरह ध्वस्त कर देते हैं, क्योंकि उनका व्यापार उसी पर आधारित है। उनके संसाधन असीम हैं। उनके निवेश उथल-पुथल मचाने की हद तक जा सकते हैं। उनका उत्पाद-स्रोत विश्वव्यापी होगा। भारतीय व्यवसाइयों ने अब तक ऐसा कुछ भी नहीं किया होगा, जो इनकी तुलना में ठहर सकें। इससे समय के साथ आस-पड़ोस के किराना स्टोर्स पूरे देश में हजारों-लाखों की संख्या में बंद हो जाएंगे। बाजार का संतुलन पूरी तरह बिगड़ जाएगा, और कई परिवार व समुदाय आर्थिक रूप से नष्ट हो जाएंगे। जहां कहीं भी ये बड़े रिटेलर गए हैं, वहां ऐसा ही हुआ है। यही वजह है कि न्यूयॉर्क शहर भी ‘वालमार्ट’ को बाहर रखने की लड़ाई लड़ रहा है। सरकार का कहना है कि वह ‘समावेशी विकास’ को बढ़ावा देना चाहती है। लेकिन मल्टी-ब्रांड रिटेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश उत्पादन और रिटेल क्षेत्र में उपलब्ध रोजगार को चोट पहुंचाएगा, जो समावेशी विकास की अवधारणा के एकदम उलट है। 

जय हिंद 
एक भारत स्वाभिमानी 
रवि

Monday, November 28, 2011

बीजेपी के 11 राज्यों में एक दिसम्बर को भारत बन्द का आह्वान

ऍफ़.डी.आई.निवेश पर बी.जे.पी. की तीखी प्रतिक्रिया
        अमृतसर//28 नवम्बर//गजिंदर सिंह किंग
अमृतसर में  देश में खुदरा बाज़ार में ऍफ़. डी. आई. के निवेश पर बी.जे.पी. ने तीखी प्रतिक्रिया जाहिर की है, वहीँ आज संसद नवजोत सिंह सिधु की अध्यक्ष्ता में बी, जे, पी के  कार्यकर्त्ता इस के विरोध में सड़कों पर उतर आए, उन्होंने विदेशी निवेश और केंद्र सरकार के विरुद्ध नारे-बाजी कर नींदा की और कांग्रेस की सरकार की तुलना ईस्ट इंडिया कंपनी से की.     
       देश में खुदरा बाज़ार में ऍफ़ डी आई के निवेश पर राजनीति गरमा गई है, कई राजनैतिक पार्टीयाँ इस का समर्थन कर रही है और कहीं इस का विरोध कर रही है, अमृतसर में हाल गेट के बाहर बी, जे, पी के कार्यकर्ताओं ने आज संसद नवजोत सिंह सिधु की अध्यक्ष्ता में ऍफ़, डी, आई के निवेश की नींदा की और काले कपडे पहन कर और काली झंडियाँ दिखा कर इस का विरोध किया, इस मौके पर कई बी, जे, पी के कार्यकर्त्ता उन के साथ थे और उन्होंने केंद्र सरकार के खिलाफ जम कर नारे बाज़ी की, वहीँ इस मौके पर पत्रकारों से बात करते हुए संसद नवजोत सिंह सिधु ने खुदरा बाज़ार में ऍफ़, डी, आई के निवेश बारे जानकारी देते हुए बताया, कि देश में ईस्ट इंडिया कंपनी को गए कई साल हो गए है, लेकिन आज कांग्रेस की सरकार ईस्ट इंडिया के रूप में दिख रही है और जो आज यह निवेश की बात कह रही है, इस से छोटे दुकान-दार के अस्तित्व को खत्म कर रही है और सरकार 40 प्रतिशत आर्थिक व्यवस्थता छोटे दुकान-दार की है और आज सरकार आपना अस्तित्व को खत्म कर रही है और आज भी बी, जे, पी इस के खिलाफ जंग का ऐलान करती है और जो देश में बी, जे, पी के 11 राज्यों में बी, जे, पी एक दिसम्बर को भारत बन्द का आह्वान करती है, वहीँ जब उन से यह सवाल किया गया, कि उन की सहयोगी  पार्टी  अकाली  दल  ऍफ़, डी, आई के निवेश का समर्थन कर रही है, तब उन का कहना है की कभी-कभी किसी की विचार धारा में कोई अंतर आ जाता है, लेकिन उन की विचार धारा सही है.   
         वहीँ एक तरफ जहाँ बी, जे, पी इस ऍफ़, डी, आई के निवेश को गलत बता रही है, वहीँ अकाली दल का इस को समर्थन यह बात साफ़ साबित करता है, कि कहीं न कही दोनों पार्टीयाँ इस मंच पर एक जुट नहीं है

ज्योति डांग की नयी पोस्ट

आदमी अच्छी बुरी हर बात जिससे कर सके
हर किसी का एक ऐसा यार होना चाहिए....दर्शन दयाल "परवाज़"
लोक लिखारी सभा जालंधर उन संगठनों में है जो शायरी की परम्परा, गौरव और नियमों को सम्भालते हुए उसमें आ रही नयी तब्दीलियों को भी आगे ला रहे हैं. इस बार हुए मुशायरे की खबर को फेसबुक पर रखा है युवा पत्रकार ज्योति डांग  ने. आपको यह रिपोर्ट कैसी ;लगी अवश्य बताएं. यदि आप भी किसी मुशायरे में शामिल हुए हैं या शामिल होने जा रहे हैं तो उसकी रिपोर्ट अवश्य भेजें. पंजाब स्क्रीन में उसे आपके नाम के साथ प्रकाशित किया जायेगा.--रेक्टर कथूरिया   

Sunday, November 27, 2011

आई एम सिंह फिल्म बनेगी एक संस्था

सिख ज़ज्बे के लिए करेगी काम-कहा नवजोत सिंह सिद्धू ने
           अमृतसर//27 नवम्बर// गजिंदर सिंह किंग
9 /11 को अमेरिका के हमले के बाद अमेरिका में रह रहे सिखों की भूमिका पर बनी फिल्म आई एम सिंह बन कर तैयार हो गई है और यह दो दिसम्बर को रीलिज होने जा रही है, वहीँ जिस के चलते आज इस फिल्म की स्टार कास्ट अमृतसर पहुँच कर इस फिल्म का प्रोमोशन किया.
         आई एम सिंह अमेरिका में हुए हमले के बाद से अमेरिका में रह रहे मुस्लिम समुदाय के ऊपर बॉलीवुड में पहले भी फिल्म बन चुकी है, वहीँ अब सिखों की भूमिका को ले कर अब वहां के लो गों पर आधारित आई एम सिंह बन कर तैयार हो गई है और यह फिल्म दो दिसम्बर को परदे पर दस्तक देने जा रही है, जिस की स्टार कास्ट अमृतसर में इस फिल्म की प्रोमोशन के लिए आए, इस मौके पर अमृतसर के बी,जे,पी के संसंद नवजोत सिंह सिधु मुख्य तौर पर मौजूद हुए, वहीँ फिल्म की स्टार कास्ट में फिल्म के डिरेक्टर पुनीत इस्सर, फिल्म के हीरो गुलज़ार चाहल मौजूद थे, वही इस मौके पर उन्होंने जहाँ फिल्म के बारे में बताया, वहीँ नवजोत सिंह सिधु ने इस फिल्म के बारे में कहा, कि आज वह चाहे इस फिल्म का हिस्सा नहीं है और वह अब प्रोमोशन में इस फिल्म के साथ जुड़े है, क्यों कि जो काम सरकार को करना चाहिए था, वह सन्देश इस फिल्म के साथ जुड़े है, वहीँ इस फिल्म में जो पंजाबियों के साथ ज्यादतियां, सिखों को जो आतंकियों के साथ जोड़ा गया है यह सब इस फिल्म में दिखाया गया है, वहीँ उन का कहना है, कि यह फिल्म एक सिख ज़ज्बे के लिए एक संस्था के रूप में काम करेगी.
       वहीँ इस मौके पर फिल्म के डायरेक्टर पुनीत इस्सर ने फिल्म बारे जानकारी देते हुए बताया कि 9 /11 के बाद जो सिखों की भूमिका थी, उस पर यह फिल्म बनाई गयी है और साथ ही यह एक मंहगी फिल्म है और जाति-पात, भेद-भाव को दूर करने के लिए यह फिल्म बनाई गई है, वहीँ इस फिल्म के नायक गुलज़ार चाहल का कहना है,कि यह उन की पहली हिंदी फिल्म है और उन को काफी कुछ सिखने को मिला है और फक्र की बात है, कि सिखों की भूमिका को वह निभा रहे है और इस फिल्म में यह दर्शाया गया है कि किस तरह 9/11 के हमले के बाद उस के परिवार को लोगो को गलत समझ लेते है

सीमा पर सुरक्षा में सेंध लगने का एक और मामला आया सामने

पाकिस्तानी नागरिक के पास से सात जिंदा कारतूस बरामद 
       अमृतसर//27 नवम्बर//गजिंदर सिंह किंग - 

अमृतसर में देश की सरहद पर सुरक्षा में सेंध लगने का एक मामला आया है, जहाँ पकिस्तान से आए एक व्यक्ति अमृतसर एयरपोर्ट से उस समय गिरफ्तार किया गया, जब वह विमान यात्रा के द्वारा दिल्ली जाने वाला था, चेकिंग के दौरान उस के बैग से सात जिंदा कारतूस बरामद हुए, पुलिस ने पाकिस्तानी नागरिक को गिरफ्तार कर कार्यवाही शुरू कर दी है
      कहा जाता है, कि जब देश के लोग सोते है, तो सरहद पर देश के जवान उन की रक्षा करते है, लेकिन यह सब बाते इस घटना के साथ खत्म हो जाती है, जब देश की सरहद से एक पाकिस्तानी नागरिक आपने साथ सात कारतूस ले कर भारत में दाखिल हो जाता है और कोई उस की चेकिंग तक नहीं करता, चलिए हम बताते है, कि पूरा मामला क्या है, शेख आरिफ मोहमद पकिस्तान के सियालकोट का रहने वाला आरिफ 10 सदस्य दल के साथ भारत आया, लेकिन जब वह भारत आया तब इस के बैग में सात जिंदा कारतूस थे और वह वाघा सीमा के रास्ते बिना किसी चेकिंग के भारत आया और आपने सामान के साथ भारत में रहने लगा, जब यह व्यक्ति दिल्ली जाने के लिए अमृतसर के गुरु राम दास एयरपोर्ट पर पहुंचा, तब एयरपोर्ट पर सी,आई,एस,ऍफ़ के स्टाफ ने इन के सामान की तलाशी के दौरान इन के पास से सात जिंदा कारतूस बरामद किए गए, वहीँ इस मामले में सी,आई,एस,ऍफ़ ने इस व्यक्ति को पंजाब पुलिस के हवाले कर दिया, वहीं पुलिस ने इस पाकिस्तानी नागरिक पर आर्म्स एक्ट के तहत मामला दर्ज कर लिया है, जब इस मामले में पकिस्तान के नागरिक आरिफ से बात करने की कोशिश की गई, तो वह आपने आप को मीडिया से बचा रहा था और जब उस से यह सवाल पूछा गया, कि उस के पास यह सामान कहाँ से आया है, तब उस ने बताने से इनकार कर दिया, फिलहाल पुलिस ने इस व्यक्ति को गिरफ्तार कर जांच शुरू कर दी है. 

   वहीँ अमृतसर पुलिस के डी,सी,पी सतपाल जोशी का कहना है, कि यह वाघा सीमा के रास्ते भारत आया था और अमृतसर के होटल एम,के में रहां और आज जब यह दिल्ली जा रहा था, तब अमृतसर एयरपोर्ट पर इस की गिरफ्तारी हुई है, वहीँ सीमा पर हुई सुरक्षा की सेंध पर जब सवाल किया गया, तब उन का कहना है, कि इस मामले में गहरी जांच की जा रही है और जो भी दोषी पाया गया, उस पर कार्यवाही की जायेगी
     इस पूरे घटना क्रम में अब सवाल यह पैदा होता है, कि कितनी आसानी से एक व्यक्ति देश की सरहद से भारत में घुस आता है और बिना किसी चेकिंग के उस को भारत में आने की अनुमति दे दी जाती है, इस बात से आप खुद अंदाजा लगा सकते है, कि किस तरह आपने आप को देश की सब से महफूज़ समझने वाली सरहद  का असली चेहरा क्या है

श्री हरिमंदिर साहिब में परिवार समेत नमस्तक हुई आशा भोसले

जसपिंदर नरुला भी थी साथ आम श्रद्धालु की तरह हुए नतमस्तक 
अमृतसर//26 नवम्बर//गजिंदर सिंह किंग
सच्च्खंड श्री हरि मंदिर साहिब में हिंदुस्तान की मशहूर फ़िल्मी गायिका आशा भोसले  अपने परिवार सहित गुरु घर के दर्शन कर नमस्तक हो कर माथा टेक गुरु घर की खुशियाँ प्राप्त की, उनके साथ हिन्दी और पंजाबी फिल्मो की गायिका जसपिंदर नरुला भी उस के साथ थी, उन्होंने एक आम श्रद्धालु की तरह सच्च्खंड श्री हरिमंदिर साहिब गुरु घर में नमस्तक होकर माथा टेक कर गुरु जी के दर्शन कर आशीर्वाद लिया
          सच्च्खंड श्री हरि मंदिर साहिब में आज हिंदुस्तान की मशहूर फ़िल्मी गायिका आशा भोसले  आपने परिवार समेत आशीर्वाद लेने पहुंचे, उनके साथ हिन्दी और पंजाबी फिल्मो की गायिका जसपिंदर नारुला भी उस के साथ थी, उन्होंने एक आम श्रद्धालु  की तरह सचखंड श्री हरिमंदिर साहिब की परिक्रमा कर गुरु घर के दर्शन कर गुरु घर में नमस्तक होकर माथा टेक कर आशीर्वाद लिया और गुरु घर की खुशीया प्राप्त की, शरोमाणी गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी की तरफ से गायिका आशा भोसले और उनके परिवार को सच्च्खंड श्री हरिमंदिर साहिब जी का यादगारी माडल देकर सन्मानित किया, इस दौरान उन्होंने अपने अमृतसर में आने के बारे जानकारी देते हुए बताया,  कि मेरी मन की इच्छा थी की मै सच्च्खंड श्री हरिमंदिर साहिब जी के दर्शन करू आज बाबा जी में मुझे याद किया है और सच्च्खंड श्री हरिमंदिर साहिब गुरु घर में पहुँच कर गुरु के सामने नतमस्तक होकर गुरु का आशीर्वाद लिया है,  वहीँ उन का कहना है, कि वह यहाँ पर पहली बार आई है और उन का मन है, कि वह बार बार यहाँ पर आये साथ ही उन का कहना है, कि जब वह वहां माथा टेक रही थी, तब परमात्मा ने उन को शक्ति दी, जिस के बल पर वह झुक कर माथा टेक सकी, क्यों कि घुटने में अब तकलीफ है, जिस के चलते वह झुक नहीं सकती, लेकिन आज वह यहाँ पर नतमस्तक हुई है और वह बहुत खुश है
       उन्होंने बताया, कि आज कल वह फिल्मों में बहुत कम गाती है, क्यों कि आज के ज़माने में फ़िल्मी गानों और संगीत का स्तर बहुत गिरा गया है और जो अच्छे गाने लिखने वाले लोग थे, वह अब नहीं रहे, वहीँ उन का कहना है, कि आज भी उन के द्वारा गए हुए गाने लोग देश-विदेश में सुनते है और उन के गानों को गया जाता है और उन को ख़ुशी है, कि आज चौथी पीडी उनके गाने गा रही है और उन के लिए गायकी पैसों से बहुत ऊपर है और वह अच्छा संगीत चाहती है
      वहीँ इस मौके पर उन के साथ आई गायिका जसपिंदर नरूला का कहना है, कि वह आज बहुत खुश है, कि वह आशा जी के साथ यहाँ पर आई है और आशा जी ने मुझे कहा था, कि वह यहाँ आना चाहती है और वह आज उन को यहाँ ले कर आई है, यह उन के लिए ख़ुशी की बात है और यह ही उन की सेवा है, कि वह यहाँ पर दर्शन कर रही है साथ ही वह आपने आप को खुश किस्मत मान रही है

वालमार्ट और भारत का खुदरा बाज़ार

इन्हें तो अमरीकी हित की ज्यादा चिता है !--रवि वर्मा  
भारत की अर्थव्यवस्था का अध्ययन जब आप करेंगे तो पाएंगे कि हमारी अर्थव्यवस्था जो है उसका 80% unorganised sector में चलती है और 20% अर्थव्यवस्था ही organised है | हमारी जो बड़ी-बड़ी कंपनियां, प्राइवेट और पब्लिक सेक्टर में हैं वो इस 20% हिस्से में हैं और 80% हिस्सा unorganised सेक्टर में हैं, जैसे छोटे उद्योग, मंझोले उद्योग, कृषि क्षेत्र, फुटपाथ की दुकाने, किराना दुकाने, परचून की दुकाने (General Store)   | फूटपाथ पर हमारे यहाँ बाज़ार लगते हैं, दिल्ली में चले जाइये, दिल्ली की दुकानों में, मौलों में जितना समान बिकता है उससे ज्यादा दिल्ली के फुटपाथों पर बिकता है, मुंबई चले जाइये, कोलकाता चले जाइये, चेन्नई चले जाइये, बंगलौर चले जाइये, हैदराबाद चले जाइये, हर बड़े शहर में आपको ऐसे बाजार मिल जायेंगे और कितना सुन्दर बाजार है ये , कोई बिल्डिंग नहीं, कोई स्ट्रक्चर नहीं, कोई ए.सी. नहीं, establishment का खर्चा शुन्य | हजारों करोड़ का बाज़ार हैं ये और ये इतना व्यवस्थित और इतना सुन्दर बाज़ार क्यों लगता है, क्योंकि मौसम की मेहरबानी है हमारे देश के ऊपर | मौसम हमारे यहाँ इतना अनुकूल है कि हमको मालूम है कि बारिस के मौसम में ही बारिस आएगी, सर्दी के दिनों में ही सर्दी होगी, गर्मी के दिनों में ही गर्मी होगी, इसलिए ये बाजार लगता है और सजता है | और दूसरी बात कि भारत में जीवन को चलाने के लिए जितनी जरूरत की चीजे होती हैं वो हर समान हर जगह होती है | Indian Council for Agricultural Research (ICAR)  के दस्तावेज मेरे पास हैं और उनके अनुसार भारत में 14785 वस्तुएं होती हैं | ये भारत की सभी राज्यों में एक समान होती हैं और भारत के उन शहरों या गाँव को बाहर से केवल नमक मांगना पड़ता है, बाकी हर जरूरत की चीज उसी राज्य में हो जाती हैं | यूरोप और अमेरिका में चूकी मौसम की अनुकूलता नहीं है, साल में नौ महीने ठण्ड पड़ती है और उनके यहाँ कभी भी बारिस हो जाती है और बर्फ भी बहुत पड़ती है, धुप का दर्शन तो साल में 300 दिन होता ही नहीं है | इसके अलावा उनके कृषि क्षेत्र में कुछ होता नहीं है, कुल मिला के दो ही चीजें होती हैं, आलू और प्याज और थोडा बहुत गेंहू, हाँ अमेरिका, यूरोप से थोडा बेहतर है, थोडा सा | वहां कुछ चीजें यूरोप से ज्यादा हो जाती है बाकी उसका भी वही हाल है | तो अपनी इन कमियों को पूरा करने के लिए उन्हें बाहर से वस्तुओं का आयात करना पड़ता है | तो उनकी ये समस्या है, जीवन चलाने के लिए चाहिए तो सब कुछ लेकिन होता कुछ भी नहीं तो बाहर से जो समान आते हैं उनको centralised कर के उनको रखना पड़ता है ताकि लोग आ के उसे खरीद सके, इसलिए उनको बड़े बड़े शौपिंग माल्स की जरूरत पड़ती है और उनके शौपिंग माल्स भारत के माल्स की तरह नहीं हैं, उनके और हमारे शौपिंग माल्स में जमीन आसमान का अंतर है | उनके शौपिंग माल्स में मोटर कार से ले के सुई-धागे तक मिल जायेंगे आपको | और अगर ये एक जगह ना मिले तो उनकी जिंदगी चलनी मुश्किल है | तो उनका unorganised sector इतना बड़ा नहीं है, मौसम की अनुकूलता नहीं है, सब कुछ सब जगह नहीं होता, सब बाहर से मांगना पड़ता है तो उन्होंने बड़े-बड़े Departmental Store बनाये हैं, वालमार्ट आया, केयरफॉर आया, टेस्को आया | ये बाहर से समान मंगाते और उसे redistribute करते हैं | उनकी मजबूरी को हमारे यहाँ ख़ुशी-ख़ुशी लाया जा रहा है और हमारा राजा कह रहा है कि वालमार्ट को भारत में आना चाहिए , बड़े बड़े departmental store खुलने चाहिए, रिटेल मार्केटिंग में विदेशी निवेश होना चाहिए |  कैबिनेट की मंजूरी भी मिल गयी है और सरकार उसको वापस लेने को तैयार नहीं है | अदूरदर्शी राजा से उम्मीद भी क्या की जा सकती है |         

वालमार्ट के समर्थक लोग अलग-अलग न्यूज़ चैनलों पर सरकारी भोपू बन के तर्क दे रहे हैं,  तर्क क्या हैं कि जब ये कंपनियां आएँगी तो ये किसानों से सीधा अनाज खरीदेंगे, किसानों को लाभ होगा, बिचौलिए ख़त्म हो जायेंगे, उपभोक्ताओं को भी फायदा होगा, रोजगार के अवसर बढ़ेंगे और अक्सर इस देश के पढ़े लिखे लोग हैं वो इस बात को मानते हैं कि ये ठीक रास्ता है, WTO पर जब हमारे सरकार ने हस्ताक्षर किया था तब भी यही कहा था, यही तर्क दिए गए थे | वालमार्ट इतनी बड़ी कंपनी है कि उसकी सालाना आय 48 देशों की GDP से ज्यादे है, वालमार्ट का total turnover है वो 400 बिलियन डॉलर का है जो कि भारत के अन्दर जितने व्यापार है उसके बराबर है, एक कंपनी का ये हाल है | वालमार्ट अमेरिका की कंपनी है और उनको अपने देश में एक disclosure statement देनी होती है, और अपने disclosure statement में वालमार्ट ने कहा है कि पिछले पाँच साल में उसने भारत के अन्दर 70 करोड़ रूपये खर्च किया है, खर्च क्यों किया है ? तो भारतीयों को educate करने के लिए, समझाने के लिए | मतलब आप समझे कि नहीं ? ये जो टेलीविजन पर और अख़बारों में भोंपू लोग बैठे हैं उन जैसे लोगों के लिए, और सरकार को educate नहीं करेगी तो उसका प्रोपोजल तो पास होगा ही नहीं तो |  बाकी कंपनियों का खर्च कितना है ये मालूम नहीं है क्योंकि उनका disclosure statement नहीं आया है | और देखिये सरकार का पेंडुलम घिसक के इनके पक्ष में आ गया है, इसीलिए देखिये, सरकार कैसे अकड़ के बोल रही है कि "ये वापस नहीं होगा" | 

कहा जा रहा है कि  इससे अपव्यय कम होगा। यह भी कहा गया है कि इससे रोजगार बढ़ेंगे और किसानों को उनकी फसल की बेहतर कीमत मिल सकेगी। हालांकि ये तर्क संदेहास्पद हैं और सूक्ष्म परीक्षण पर शायद ही खरे उतर पाएं। इस विवाद से परे यह पूछा जाना चाहिए कि ऐसे मल्टी-ब्रांड रिटेल क्या उत्पादक (चाहे किसान हों या निर्माता) से उपभोक्ता के बीच होने वाले वितरण-मूल्य को कम करेगा? मार्केटिंग की भाषा में इसे ‘चैनल कॉस्ट’ कहा जाता है। आम आदमी की भाषा में यह परिवहन/ संग्रह/ वित्तीय प्रबंधन/ विक्रय पर होने वाला वह खर्च है, जो उत्पादन बिंदु और उपभोक्ता को की गई अंतिम बिक्री के बीच किया जाता है। यह आर्थिक कार्यकुशलता का मुख्य मापदंड है, जिस पर हमें गौर करना चाहिए। यह सवाल ही तय करेगा कि मल्टी-ब्रांड रिटेल में एफडीआई न्यायोचित है या नहीं। भारत की थोक और खुदरा व्यापार व्यवस्था की तुलना में वालमार्ट और टेस्को जैसे मल्टी-ब्रांड रिटेलर्स उपभोक्ता को मिलने वाले मूल्य में तत्काल काफी बढ़ोतरी कर देंगे। इस बात को साबित करने के लिए हमारे पास कई प्रमाण हैं। उपलब्ध तथ्यों और तुलनात्मक अध्ययन से इसे आसानी से दिखाया जा सकता है। मूल्यों में होने वाली वृद्धि का यह प्रतिशत छोटा नहीं है। भारत के थोक और खुदरा व्यापार में होने वाले ‘मार्क-अप्स’ (क्रय-मूल्य और विक्रय-मूल्य के बीच का अंतर) की तुलना में, मल्टी-ब्रांड रिटेल में ‘मार्क-अप्स’ की गुंजाइश दो गुना से लेकर नौ गुना तक होती है। यह ‘मार्क-अप्स’ उनकी व्यापार-संरचना में निहित होता है, जिसका भुगतान पश्चिमी देशों में आम उपभोक्ता अपनी रोजमर्रा की खरीद में करते हैं। आइए जरा रोजमर्रा के काम में आने वाले पदार्थो के ऐसे चार वर्गों के ‘चैनल कॉस्ट’ या खर्च की तुलना करें, जो मल्टी-ब्रांड रिटेल के जरिये उपलब्ध होंगे। 
पहला वर्ग है उपभोक्ता वस्तुओं का- इस मामले में भारत में वितरक व थोक व्यापारी का मार्जिन चार से आठ प्रतिशत के बीच होता है, और खुदरा व्यापारी का मार्जिन होता है आठ प्रतिशत से 14 प्रतिशत तक। यह मार्जिन उत्पादन मूल्य पर जोड़ा जाता है। कंपनी की उत्पादन क्षमता, बाजार पर उसकी पकड़, माल की किस्म आदि पर मार्जिन का प्रतिशत निर्भर करता है। इसलिए भारत में वितरण श्रृंखला के ऊपर आने वाली कुल ‘चैनल कॉस्ट’ 12 से 22 प्रतिशत के मध्य होती है। अमेरिका और यूरोप में ‘सेफवेज’, ‘क्रोगेर्स’ और ‘टेस्को’ जैसी कंपनियां इस श्रेणी के पदार्थो के बुनियादी मूल्य पर माल की किस्म, मात्र, मांग और उपलब्धता को देखते हुए तकरीबन 40 प्रतिशत का ‘मार्क-अप्स’ लगाती हैं। यह चैनल ‘मार्क-अप्स’ भारतीय चैनल/ रिटेल कीमतों की तुलना में दो से तीन गुना ज्यादा है। इन कंपनियों द्वारा ग्राहकों को लुभाने के लिए समय-समय पर घोषित ‘सेल’ और ‘लॉस लीडर प्रोमोशन’ से हमें गुमराह नहीं होना चाहिए। दूसरा वर्ग है वस्त्र का- भारत के कपड़ा व्यवसाय में संयुक्त रूप से थोक व खुदरा का मार्जिन, मिल कीमत के ऊपर 35 से 40 प्रतिशत के बीच होता है। रेडीमेड कपड़ों के व्यवसाय में किसी ब्रांडेड रिटेल दुकान का मार्जिन शायद ही कभी लागत के 30 प्रतिशत से ज्यादा होता है। अब जरा इसकी तुलना ‘मेसीस’ या ‘मार्क्स ऐंड स्पेंसर’ स्टोर से करते हैं। ये रिटेलर अक्सर कपड़ों के खरीद मूल्य पर दो से 4.5 गुना ‘मार्क-अप‘ लगाते हैं। उसके बाद वे 15 से 30 प्रतिशत की छूट ‘सेल’ ऑफर पर देते हैं। ‘सेल’ पर मिलने वाली कीमत के बावजूद इन रिटेलर्स द्वारा लगाया ‘मार्क-अप’ कम-से-कम दो गुना अधिक होता है। इसीलिए नियमत: उनके ‘मार्क-अप्स’ भारतीय रिटेलर्स की तुलना में पांच से नौ गुना ज्यादा होते हैं। तीसरा, दवा और चिकित्सा सामग्री- भारत में दवा की दुकानें और औषधि-विक्रेता एक व्यापारिक संस्था के रूप में काफी व्यवस्थित हैं, पर सप्लाई साइड बिखरा पड़ा है, जिससे उन्हें रिटेल में बेहतर मार्जिन मिल जाता है। बावजूद इसके, भारत में एक रिटेल दवा विक्रेता का मार्जिन 20 प्रतिशत तक होता है। इसमें अगर हम वितरक, थोक व्यापारी का 10 प्रतिशत मार्जिन और सीएंडएफ एजेंट का चार प्रतिशत जोड़ दें, तो कुल ‘चैनल कॉस्ट’ लागत का 34 प्रतिशत बनती है। अब इसकी तुलना अमेरिका के ‘वालग्रीन‘ या ‘सीवीएस’ या फिर ब्रिटेन के ‘बूट्स’ से कीजिए। ये रिटेलर्स चिकित्सा-सामग्रियों और दवाइयों के दामों में दो या तीन गुना ‘मार्क-अप’ कर देते हैं और फिर कुछ  मद पर ‘सेल’ ऑफर चला देते हैं। जहां तक ‘चैनल कॉस्ट’ का सवाल है, भारतीय दवा-विक्रेताओं की तुलना में इन बड़े रिटेलर्स की कीमतों में कम-से-कम छह गुना का ‘मार्क-अप’ रहता है। चौथा है, किचनवेयर- भारतीय ‘चैनल कॉस्ट’ या खर्च इस श्रेणी में कम है। भारत में प्रेशर कुकर, कुकवेयर में वितरक, रिटेलर का संयुक्त मार्जिन 30 प्रतिशत से कम है, जिसमें से रिटेलर सिर्फ 10 से 15 प्रतिशत ही रखता है। इसी श्रेणी के उत्पादों के लिए ‘वालमार्ट’, ‘ब्लूमगडेल्स’ और ‘सीयर्स’ जैसे रिटेलर्स अमेरिका में लागत खर्च पर नियमत: 100 से 200 प्रतिशत का ‘मार्क-अप’ करते हैं। यहां तक कि ‘सेल’ पर भी कम-से-कम भारत के मुकाबले चैनल मूल्यों में पांच गुना का ‘मार्क-अप’ रहता है। ये सभी साक्ष्य दर्शाते हैं कि वर्षों में विकसित हुई भारतीय वितरण व्यवस्था, विश्व में सबसे सक्षम और किफायती है। माना कि हमारे बाजार यूरोप, अमेरिका व जापान के ‘मॉल्स’ की तरह लुभावने नहीं, परंतु आम घरेलू महिलाओं के लिए वे बेहद उपयोगी हैं, और कम कमाई व ज्यादा महंगाई के बुरे वक्त में उनका बखूबी साथ निभाते हैं। रिटेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का प्रस्ताव इस संतुलन को बिगाड़ देगा। आपूर्ति श्रृंखला में निवेश और ‘बैकएंड लॉजिस्टिक्स’ की बातें सिर्फ ‘चैनल कॉस्ट’ के मुख्य विषय से ध्यान हटाने के लिए हैं। उद्योगों और विदेशी सरकारों के दबाव में आए बगैर हमारी सरकारी कमेटी को अपना पूरा ध्यान इस बात पर केंद्रित करना चाहिए कि हमारे देश के नागरिकों, उपभोक्ताओं के हित में क्या है। हमारे बाजार बेहद सक्षम हैं और लाखों छोटे व्यापारियों और उद्यमियों के हित से जुड़कर चलते हैं। इसमें हस्तक्षेप कर हमें मल्टी-ब्रांड रिटेल के पश्चिमी मायाजाल में नहीं फंसना चाहिए। 

आपने पढ़ा कि किस तरह पश्चिमी देशों में बड़े मल्टी-ब्रांड  रिटेलर्स, जैसे वालमार्ट, टेस्को और कार्रेफौर अपने सभी उत्पादों के दाम में कम से कम दोगुना ‘मार्क-अप’ करते हैं और भारत के रिटेल/होलसेल ‘मार्क-अप्स’ की तुलना में यह नौगुना से भी अधिक तक चला जाता है। सारांश यह है कि चैनल की सक्षमता इस बात से तय होनी चाहिए कि ‘मार्क-अप्स’ (जो दुकान चलाने के खर्च और चैनल द्वारा कमाए गए मुनाफे का कुल योग है) के साथ आम उपभोक्ता को कितना मूल्य अदा करना पड़ेगा। इसी मापदंड के आधार पर मैंने यह निष्कर्ष निकाला था कि थोक विक्रेता, वितरक, स्टॉकिस्ट और खुदरा विक्रेता से बनी भारतीय वितरण श्रंखला दुनिया में सबसे सक्षम और किफायती है।
ऐसा कैसे संभव है? मैं जानता हूं कि आप में से ऐसे लोग भी होंगे, जो इस निष्कर्ष को मानने से इनकार करेंगे। उनसे मेरा अनुरोध है कि वे जरा पश्चिमी व भारतीय खुदरा बाजार के स्वरूप के गणितीय तर्क की गहराई से पड़ताल करें। जिस किसी ने भी व्यावसायिक कार्यप्रणाली एवं नियमों को देखा-समझा है, वे बाजार की इस हकीकत से जरूर वाकिफ होंगे कि बाजार जितना ही संघटित होता है, वह उपभोक्ता को चयन का कम अधिकार देता है, और रिटेलर द्वारा उतना ही अधिक ‘मार्क-अप’ करने व कीमतों में वृद्धि करने की गुंजाइश रहती है। इसके उलट बाजार जितना बिखरा होता है और उपभोक्ता को चयन का अधिक विकल्प मिलता है, ‘मार्क-अप’ उतना ही कम होता जाता है, क्योंकि रिटेलर्स को प्रतिस्पर्धा व व्यापार में बने रहने के लिए कम से कम मूल्य रखने पड़ते हैं।
जब बड़े मल्टी-ब्रांड रिटेल बाजार में प्रवेश करते हैं, तो उनकी रणनीति प्रतिस्पर्धा को खत्म करने और बाजार पर अपनी मजबूत पकड़ बनाने की होती है। दो उदाहरणों पर गौर कीजिए। अमेरिका में रिटेल बाजार का आकार (खाद्य सेवा और ऑटोमोटिव को छोड़कर) वर्ष 2009 में तीन ट्रीलियन डॉलर आंका गया था। वालमार्ट ने 10 प्रतिशत की बाजार हिस्सेदारी (मार्केट शेयर) के साथ 300 से भी अधिक बिलियन डॉलर का कारोबार किया था। जाहिर है, लंबे समय में अजिर्त ऐसी संघटित शक्ति का इस्तेमाल आपूर्तिकर्ता या वितरक से कम कीमत पर चीजें खरीदने और उपभोक्ता को अधिक ‘मार्क-अप्स’ के साथ बेचने के लिए किया जाता है। वालमार्ट का उद्देश्य दूसरे रिटेलर्स से ज्यादा किफायती बनना है, पर उसका मुख्य लक्ष्य अपने शेयरधारकों को अधिकतम लाभ पहुंचाना है। (जिन लोगों को वालमार्ट के बारे में जानने की रुचि हो, वे बिल क्विन्न की किताब ‘How Walmart is Destroying America and the World ’ पढ़ सकते हैं) ब्रिटेन में इसी से मिलता-जुलता उदाहरण टेस्को का है। पिछले वर्ष इस कंपनी ने 61 बिलियन पाउंड (यानी 99 बिलियन अमेरिकी डॉलर) का व्यापार किया था, और विकीपीडिया के अनुसार, ब्रिटेन किराना दुकान बाजार में इसकी हिस्सेदारी (मार्केट शेयर) 30 प्रतिशत है। इस स्तर का एकाधिकार रिटेल की दुनिया में अनोखा है और टेस्को को आपूर्तिकर्ता व उपभोक्ता, दोनों के ऊपर असाधारण शक्ति प्रदान कर देता है। ब्रिटेन में किराने का सामान खरीदने वालों के लिए घर के समीप ज्यादा से ज्यादा दो या तीन रिटेलर (टेस्को, सैन्सबरी या शायद अल्डी) का विकल्प होता है। इसका अर्थ है कि प्रोमोशनल ऑफर के बावजूद निर्धारित कीमतों में अधिमूल्य (प्रीमियम) शामिल रहता है और उपभोक्ता की खरीदारी पर रिटेलर की पकड़ मजबूत बनी रहती है। उत्पादक के ऊपर भी उनकी जबर्दस्त पकड़ होती है। अब इसकी तुलना जरा भारत से कीजिए। हमारे पड़ोस में दर्जनों छोटे रिटेलर्स होते हैं, जिनमें हमारे रुपये को पाने की होड़ लगी रहती है। यहां जबर्दस्त प्रतिस्पर्धा है। लिहाजा, ‘मार्क-अप्स’ व कीमतें मजबूरन कम रहती हैं। हमारी बाजार संरचना लगभग परिपूर्ण है, जिसमें हजारों उत्पादक लाखों रिटेलर्स को माल उपलब्ध कराते हैं, जो आगे करोड़ों उपभोक्ताओं को अपनी सेवाएं देते हैं। बाजार में किसी के पास सचमुच इतना असर या जोर नहीं कि वह अधिक ‘मार्क-अप्स’ लगा सके। यह जमीन से जुड़ी सच्चाई है, जो लाखों छोटे व्यवसायों की उद्यमशीलता और ऊर्जा से पैदा हुई है। इसके संगठन में सरकार ने कोई भूमिका नहीं निभाई है। यदि बड़े मल्टी-ब्रांड रिटेल को भारत में प्रवेश की अनुमति दी जाती है, तो उसका बुरा परिणाम होगा। किसी इलाके में एक विशाल रिटेल स्टोर का उद्घाटन धूमधाम के साथ किया जाएगा। फिर बहुत सारे ‘प्रोमोशनल ऑफर’ दिए जाएंगे और कई जरूरी सामान अनेक दिनों तक मूल कीमत से भी कम में बेचे जाएंगे। (वालमार्ट की भाषा में इसे ‘स्टॉम्प द कॉम्प’ कहा जाता है, जिसका अर्थ होता है प्रतिस्पर्धा को मिटा देना)। जाहिर है, इस छूट से आकर्षित होकर लोग भारी संख्या में वहां उमड़ पड़ेंगे। ऐसे में, छोटे रिटेलर व्यापार-घाटे को बहुत समय तक नहीं उठा पाएंगे। इस झटके की वजह से उनमें से ज्यादातर दुकानें बंद हो जाएंगी। ऐसा निरपवाद रूप से हर जगह हुआ है। प्रतिस्पर्धा पूरी तरह ध्वस्त हो जाने पर आपूर्तिकर्ताओं व उपभोक्ताओं पर बड़े रिटेलर की पकड़ कस जाती है। उसके बाद बाजार पर नियंत्रण करके वे अधिकतम मुनाफे के लिए धीरे-धीरे ‘मार्क-अप्स’ बढ़ाते जाते हैं। ऐसे में, आखिर क्यों भारत सरकार के प्रमुख वित्तीय सलाहकार के नेतृत्व में बनी कमिटी ने मल्टी-ब्रांड रिटेल में एफडीआई की सिफारिश की है? फिर निवेश के लिए सुझाए गए कुछ मानदंड भी काफी दुरूह हैं। उदाहरण के लिए, कमिटी ने न्यूनतम एफडीआई निवेश 100 मिलियन अमेरिकी डॉलर तय किया है। यह ओलंपिक में किसी हेवीवेट लिफ्टर को 10 किलोग्राम वजन उठाने के लिए कहने जैसा है। मैं उन वरिष्ठ बुद्धिजीवियों की कद्र करता हूं, जिन्होंने इस पहलू पर गौर किया है। मैं यह सलाह देने का साहस अवश्य करूंगा कि इस संबंध में बनी नीति का लक्ष्य देश की विशाल आबादी का हित होना चाहिए। नीति-निर्धारकों को पश्चिमी देशों की सरकारों को खुश करने की जल्दबाजी नहीं दिखानी चाहिए, जो भारतीय रिटेल बाजार को खुलवाने के लिए निरंतर दबाव बना रहे हैं। मल्टी-ब्रांड रिटेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति भारतीय खुदरा क्षेत्र व उन करोड़ों परिवारों का अहित करेगा, जो अपने गुजारे के लिए संघर्ष कर रहे हैं। वर्ष 2008 में आई विश्वव्यापी आर्थिक मंदी से भारत बच गया, क्योंकि बैंकिंग उद्योग जगत जोखिम से अनजान था। ठीक वैसी ही स्थिति रिटेल में है। हमें भारत में पश्चिमी रिटेल की बीमारू संरचना को लाने का प्रयास नहीं करना चाहिए, जो भारतीय उपभोक्ताओं को आने वाले समय में अपना गुलाम बना लेगी।        

ये बाते हमारे सरकार के लोगों, विभिन्न समाचार चैनलों और अख़बारों में बैठे भोपुओं और नपुंशक विपक्ष को समझ में नहीं आ रहा है, विपक्ष तो नूरा कुश्ती लड़ रहा है सरकार के साथ, नूरा कुश्ती आप समझते हैं न, मतलब दिखावे के लिए हल्ला मचाते हैं | वास्तव में ये भारत देश की सरकार अब भारतीयों की सरकार नहीं रही बल्कि विदेशी कंपनियों की दलाल हो गयी है और हो भी क्यों नहीं, जब इस देश का प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री, गृहमंत्री और तमाम मंत्री अमेरिका बनवा रहा है तो इनसे उम्मीद भी क्या की जा सकती है | ये भारत के लोगों का ख्याल थोड़े ही करेंगे, इन्हें तो अमरीकी हित की ज्यादा चिता है | 

जय हिंद 
एक भारत स्वाभिमानी
रवि