Monday, July 11, 2011

फिर एक रेल दुर्घटना !

रेल दुर्घटना के नए मामले को लेकर समाचार पत्रों ने सम्पादकीय भी लिखे हैं. चंडीगढ़ से प्रकाशित ट्रिब्यून समूह के हिंदी पत्र दैनिक ट्रिब्यून ने इस रेल दुर्घटना का समाचार भी प्रमुखता से प्रकाशित किया है और इस पर सम्पादकीय टिप्पणियाँ भी की  हैं. फिर एक रेल दुर्घटना शीर्षक से अख़बार लिखता है: 
हावड़ा-कालका मेल के यात्रियों के लिए रविवार काला दिन बनकर आया। कोलकाता के हावड़ा जंक्शन और उसके बाद के स्टेशनों से इस पर सवार यात्री चले तो थे अपने गंतव्य के लिए, लेकिन उत्तर प्रदेश में फतेहपुर और कानपुर के बीच मलवां में इस टे्रेन की एक-दो नहीं, पूरी 13 बोगियां पटरी से उतर जाने के कारण दर्जनों अकाल मौत के मुंह में समा गये तो सैकड़ों घायल होकर अस्पताल पहुंच गये। जिस तरह दिनदहाड़े यह दहला देने वाली दुर्घटना हुई है और उसमें बोगियां एक-दूसरे पर इस तरह चढ़ गयी हैं  कि उनमें से यात्रियों को निकालने के लिए डिब्बों को काटने की जरूरत पड़ी है, उसके मद्देनजर यह समझना मुश्किल नहीं होना चाहिए कि मृतकों और घायलों की सही संख्या तत्काल बता पाना वाकई रेल तथा पुलिस-प्रशासनिक अधिकारियों के लिए आसान नहीं है, लेकिन दुर्घटना की भयावहता से यह भी साफ हो जाता है कि यह संख्या बहुत जायादा हो सकती है। हावड़ा-कालका मेल की दुर्घटनाग्रस्त हुई बोगियों मेंकमोबेश सभी श्रेणियों की बोगियां शामिल हैं। हम जानते हैं कि हमारे यहां श्रेणी के मुताबिक ही बोगियों में सफर करने वालों की संख्या भी घट-बढ़ जाती है। मसलन, वातानुकूलित बोगियों में सामान्यत: निर्धारित संख्या में ही यात्री सफर करते हैं, जबकि अनारक्षित बोगियों में यात्री भेड़-बकरियों की तरह भरे होते हैं। फिर भी अगर प्रति बोगी औसत संख्या को आधार मानें तो भी 13 बोगियों के यात्रियों की संख्या 600 के पार तो पहुंच ही जाती है। बेशक जिस तरह दुर्घटना हुई है, उसमें बोगियों के बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो जाने से राहत एवं बचाव कार्य प्रभावित हुए हैं, लेकिन दिन का वक्त होने और मौसम लगभग साफ होने से राहत एवं बचाव की मुश्किलें और भी अधिक जटिल होने से बच गयी हैं।
शुरुआती सूचनाओं के मुताबिक रविवार का अवकाश होने के बावजूद  रेल एवं पुलिस-प्रशासनिक अमला समय से पहुंच गया, यह अच्छी बात है। ऐसी दुर्घटनाओं में अकसर देखा गया है कि अगर राहत एवं बचाव कार्य तत्काल और त्वरित हो तो बड़ी संख्या में घायलों की जान बचायी जा सकती है। हां, अस्पताल की दूरी अवश्य एक समस्या रही होगी, लेकिन स्थानीय नागरिकों ने जिस तरह राहत एवं बचाव कार्य में बढ़-चढ़कर मदद की, वह एक अनुकरणीय उदाहरण होना चाहिए। इतनी बड़ी दुर्घटना के बाद सभी की प्राथमिकता राहत एवं बचाव कार्य होती है, होनी भी चाहिए। इसलिए तत्काल दुर्घटना  के कारणों की बाबत कुछ पता चल पाना या उनके बारे में कोई टिप्पणी करना संभव नहीं होता, लेकिन शुरुआती आधार पर इमरजेंसी ब्रेक लगने की बात कही जा रही है। सही कारण तो ट्रेन के चालक के बयान या फिर जांच के बाद ही पता चल पायेगा, पर परिस्थितियां किसी तकनीकी खामी की ओर ही इशारा कर रही हैं। कहा जा रहा  है कि संभवत: मवेशियों को टे्रेक पर देख चालक ने इमरजेंसी ब्रेक लगाये होंगे, जिससे ये बोगियां एक-दूसरे पर चढ़ गयीं। सवाल यह है कि क्या चालक को यह पता नहीं रहा होगा कि अचानक इमरजेंसी ब्रेक लगाये जाने पर ऐसा ही होगा? यदि उसे पता था तो फिर मवेशियों को बचाने के लिए यात्रियों की जान इस तरह जोखिम में डालना कहां की समझदारी थी? बोगियों को काटकर उनमें फंसे यात्रियों को निकालने के लिए गैस कटर आदि उपकरणों का जितना लंबा इंतजार करना पड़ा,  उससे भी यह स्वाभाविक सवाल उठता ही है कि जब हमारे यहां रेल दुर्घटनाएं आये दिन की बात हो गयी हैं और हम उन पर रोक लगाने में पूरी तरह नाकाम साबित हो रहे हैं तो फिर कम से कम राहत एवं बचाव के लिए जरूरी उपकरण क्यों तत्काल उपलब्ध नहीं करवाये जाते?
हावड़ा-कालका मेल दुर्घटना के कारण जांच में जो भी सामने आयें, पर एक बात बिना किसी जांच के निर्विवाद रूप से कही जा सकती है कि हमारा रेल तंत्र, जो भारत सरीखे विशाल देश में आज भी आवागमन का सबसे बड़ा और व्यापक माध्यम है, यात्रियों की सुरक्षा के प्रति आपराधिक हद तक लापरवाह रहता है। हाल ही में उत्तर प्रदेश में ही एक फाटक रहित रेलवे क्रासिंग पर ट्रेन-बस टक्कर में भी दर्जनों जानें गयी थीं। दरअसल हमारे यहां रेल वोट राजनीति का सबसे कारगर जरिया बन गया है। ऐसा नहीं है कि अन्य विभागों के मंत्री संकीर्ण वोट राजनीति से ऊपर उठकर जन कल्याण की भावना से काम करते हैं, लेकिन रेल मंत्रालय तो मानो राजनीति का ही पर्याय बनकर रह गया है। हर रेल मंत्री का एकमात्र एजेंडा अपने राजनीतिक हित के लिए रेल मंत्रालय और उसके संसाधनों का दोहन ही बनकर रह गया है। लोक लुभावन बजट पेश करते हुए शे’र-ओ-शायरी के बीच नयी-नयी रेल गाडिय़ां चलाने की घोषणाएं तो कर दी जाती हैं, पर यात्री सकुशल और समय से गंतव्य पर पहुंच पायें, इसकी किसी को चिंता नहीं है। नीतिश कुमार जब रेल मंत्री थे, तब रेल सुरक्षा कोष की बातें बहुत जोर-शोर से की गयी थीं, लेकिन उस पर अमल कहीं दूर-दूर तक नजर नहीं आता। जर्जर रेल पटरियां मौजूदा टे्रनों की रफ्तार और वजन ही तरीके से नहीं झेल पा रहीं, काहिल रेल तंत्र इन्हीं यात्री गाडिय़ों को सुचारू रूप से नहीं चला पा रहा, पर हर बजट में आम आदमी को बुलेट ट्रेन चलाने के सपने अवश्य दिखा दिये जाते हैं। ऐसा नहीं है कि किसी भी देश में रेल दुर्घटनाएं रोकने का कोई गारंटीशुदा तंत्र विकसित कर लिया गया है, पर हम तो बड़ी-से-बड़ी रेल दुर्घटना की जांच रिपोर्ट को भी ठंडे बस्ते में डालने के आदी हो गये हैं, वरना दुर्घटनाओं में कमी तो अवश्य ही लायी जा सकती है। बेहतर होगा कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह देश को गठबंधन राजनीति की मजबूरियां गिनाने के बजाय देश को एक प्रभावशाली रेल मंत्री दें।

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