Monday, January 03, 2011

वास्तव में विद्रोह की एक कविता है उपन्यास पक्षी-वास

जब इस किताब के बारे में पहली बार सुना तो बहुत ही उत्सुकता हुई. जी चाहा अभी पढ़ लूं. पर न तो जेब में पैसे थे और न ही किसी बुक स्टाल पर जा कर दुबारा उधार करने की हिम्मत. पहले का उधार ही इतना देरी से चुकता किया कि अब डर था कहीं वह इनकार न कर दे. इस डर के बावजूद भी कुछ नजदीकी मित्रों की दुकान पर देखा पर यह किताब नहीं मिल सकी. यह किताब कैसे मिली यह एक अलग लेकिन यादगारी कहानी है जिसकी चर्चा फिर कभी सही फिलहाल इतना ही कि यह किताब बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती है. बिना किसी विचारधारा की बात किये यह किताब कैसे समाज को लगे दीमक का पता देती है यह इसे पढ़ कर ही जाना जा सकता है. इसकी शुरुआत धीमी गति से होती है और इसका इशारा भी तो उस घातक विष की ओर ही है जो बहुत ही धीमी गति से शुरू होती पर सब कुछ निगल जाती है. हो सकता है आपको इस में बहुत कुछ और भी दिखाई दे. 
हम विकास के चाहे कितने ही दावे करें लेकिन हकीकत तो बहुत दुखद है. हम जिस देश को महान कहते नहीं थकते उसमें लोग गरीबी के कारण तड़प रहे हैं, तिल तिल कर के मर रहे हैं, पेट की आग बुझाने के लिए एक दूसरे से छिन्न भिन्न हो कर बिखर रहे हैं. ऐसा ही एक भारतीय परिवार है. गमों के सागर में डूब रही सरसी और दुखों के पहाड़ तले दबे उसके गरीब पति अंतरा का; जिनके सभी बच्चे रोटी की तलाश में निकले तो फिर कभी नहीं लौटे. उसी तरह जैसे चिड़िया के बच्चे कभी नहीं लौटते.जब एक दिन एक बच्चे की खबर आती भी है तो गमों का एक नया दरिया लेकर. देखिये ज़रा चार में से एक बच्चे के लौटने की एक झलक.
अंत में जीप लौट आई थी गाँव में.....तुरंत कई पुलिस वाले जीप से  उतरे. दो सिपाहीयों ने जीप में पड़ी हुई लाश को निकाल कर ऐसे फेंका जैसे शिकार कर लाये हुए किसी एक जंगली सूअर या सांभर हिरण को.....पुलिस वाला चिल्ला कर कह रहा था,
"इसको पहचानो." 
"ये तुम्हारे गाँव का लड़का है या नहीं ?" 
" किसका बेटा है ?"  ..... ......
पुलिस अंतरा से पूछने लगी,"ये तुम्हारा लड़का ?"
" जी "
"तुम्हारा बेटा नक्सल में शामिल हुआ था ?" 
अंतर चुप रहा.
पुलिस धमकी भरे स्वर में कहने लगी, साला फोरेस्ट गार्ड को मारने के लिए आया था तेरा बेटा. चलो तुम गाड़ी में बैठो. धुल  उड़ाते चली गयी पुलिस की गाड़ी. अंतरा को भी साथ ले गयी.
गांव की चौपाल में बैठी थी सरसी.एकदम गुमसुम. आंखों में आंसू भी नहीं. गांव की चौपाल में सन्नाटा छ गया था. लोग अपने अपने घर चले गए थे. अंदर से सभी ने दरवाज़े बंद कर दिए थे. मातम का माहौल छा गया था गांव में. थम सा गया था गांव. 
आखिर कौन था यह फोरेस्ट गार्ड ? इसकी एक झलक मिलती है नीचे के वार्तालाप से जब जिस्म बेचने को मजबूर हुई परबा को उसकी एक पड़ोसन आ कर कहती है...रे परबा, तुम्हारे गांव बिजी गुड़ा से एक और लड़की यहां पहुंची है. वह तुम्हारे बारे में जानती है. झुमरी की बात सुन कर परबा धक सी रह गयी. 
"सच बोल रही हो, झुमरी, फिर किसका कपाल फूटा हमारे गांव में ?" 
उत्सुकता को दबा नहीं पायी और भागने लगी परबा नीचे वाली खोली की तरफ. खोली नके बाहर बैठी थी कुंद. कुंद को देख कर परबा को अपने पाँव के नीचे की ज़मीन खिसकती नज़र आई... बोली..
"तू तो मेरी भाभी बनती....तू कैसे आ गयी इस नर्क में ?" 
इन दोनों को इस नर्क में पहुंचाने का ज़िम्मेदार था वह फोरेस्ट गार्ड जिसकी इस करतूत के बारे में कुछ ही दिन पूर्व अपनी प्रेमिका/मंगेतर कुंद से सुन चुका था उसी बदनाम बस्ती में जा कर और वादा भी करके आया, "मैं रामचन्द्र हूं तेरा यहां से उद्धार करूंगा लेकिन छुपते छुपाते नहीं रावन को मारने के बाद ही." लेकिन हुआ उल्ट. यह राम ही मारा गया और सीता का उद्धार नहीं हो पाया. बदनसीब परबा भी तो इसी नक्सल की बहन है जो एक दिन मूसलाधार बारिश में निकल पड़ी थी घर से बाहर. घर की कच्ची दीवार गिर चुकी थी, मां बीमार थी, पिता थक हार कर खाली हाथ लौट आया था...और अब परबा निकली थी कि शायद कहीं कोई साग भाजी मिल जाये. देखो एक झलक...परबा को लगा कि ऐसे बुरे समय में उसका छोटा भाई ही मदद कर पायेगा. दुखी दरिद्रों को दुःख ऐ उबारने के लिए ही तो नक्सल में शामिल हुआ था. पूरे छह दिन हो गएपर घर में चूल्हा नहीं जला. भाई को पता चलने पर कुछ व्यवस्था ज़रूर करवा देगा...फिर जंगल है ही कितना दूर / दो कोस से भी कम ही होगा. वह अपने भाई से ज़रूर मिलेगी. 
लेकिन जंगल में पहुंच कर वह फंस जाती है फोरेस्ट गार्ड के चंगुल में और अपनी इज्जत तार तार हो जाने के बाद फिर घर नहीं लौटी. पहुंच जाती है वेश्यायों की बस्ती में.यह उपन्यास बहुत सी दूसरी समस्यायों का भी ज़िक्र करता है...उनकी जड़ों को कुरेदता है जो गरीबी, शोषण और अन्यायपूर्ण व्यवस्था के कारण पैदा हो रही हैं. इन समस्यायों में धर्म परिवर्तन,  अवैध कटाई के कारण मैदान बन रहे जंगल और गाँवों कस्बों में हो रहे काले धंधों का चित्रण भी शामिल है. धर्म परिवर्तन के मुद्दे पर ईसाइयत को गाली देना आसान है, हो हल्ला मचाना भी आसान है..पर देखो हकीकत  की एक झलक जो तमाचा मारती है धर्म के ऐसे ठेकेदारों पर.

जीने की लड़ाई का मंच

....इन्हीं दो चाकलेट की खातिर मैं गांव छोड़ने को राज़ी हो गया था. जिस दिन इमानुअल साहिब की बीवी मेरी मां को बोली," दे दे इस बच्चे को मुझे दे दे, मैं इसे आदमी बना दूँगी.
....."सवेरे सवेरे बाप बोला," जाने दो उसे यहां तो एक वक्त का खाना मिलता है तो एक वक्त का फाका पड़ता है. मिशन में रहेगा तो डाल भात कहा कर जीवन जी लेगा....दोनों वक्त का खाना तो मेरे बेटे को मिलेगा."
...."मां की गोद में से खींच कर बाप ले गया मुझे जबरदस्ती और मैं साहिब की गाड़ी में बैठा दिया..." इसके साथ ही देखो एक और कड़वी हकीकत की झलक....."घर के बोझ ने बेटे को उम्रदराज़ बना दिया था घर के बोझ से मुक्त हो कर बाप बेटे की तरह किशोर हो गया था." ....यह उपन्यास वास्तव में विद्रोह की एक कविता है. समस्यायों की जड़ों को कुरेदने के साथ साथ यह नक्सल लहर पर भी सवाल करता है. इसके बारे में और जानकारी के लिए यहां क्लिक करें. आपको यह पोस्ट कैसी लगी अवश्य बताएं.   --रेक्टर कथूरिया 



ਬਹੁਤ ਹੀ ਡੂੰਘੀਆਂ ਗੱਲਾਂ ਕਰਦਾ ਹੈ ਸਰੋਜਨੀ ਸਾਹੂ ਦਾ ਨਵਾਂ ਨਾਵਲ




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