Monday, November 30, 2009

कहानी बेस्ट सेलर डाक्टर रवि बत्रा के संघर्ष और सफलता की

                    जिंदगी में मुश्किलें भी आती हैं और करिश्में भी होते हैं.... कैसे हमारे बने बनाये काम उस वक्त बिगड़ जाते हैं जब हम  तो दूर हमारे दुश्मन भी उनके  बिगड़ने की बात नहीं सोच सकते और कभी कभी बिगड़े हुए काम  कैसे उस हालत में भी संवर  जाते हैं जब हमें किसी करिश्में की भी कोई उम्मीद बाकी नहीं बचती. यह एक सच्ची कहानी है डाक्टर रवि बत्रा नाम के उस जाने माने  विद्वान की जिसने पूरी दुनिया को हिला दिया. उसकी योग्यता का लोहा पूरी दुनिया ने मान लिया. मैंने इस पुस्तक को कई साल पहले पढ़ा था. संकटकाल के कई अवसरों पर  इस पुस्तक ने मुझे शक्ति दी,सांत्वना दी...प्रस्तुत हैं उस पुस्तक का केवल एक अंश जिसे मैंने 09 फरवरी 1998  को अपनी डायरी में नोट किया था.
            
               .... मैंने कुछ ही महीनों में अपनी किताब की आठ हजार प्रतिंयां  बेच डाली थी, फिर भी मुझे कोई  प्रकाशक नहीं मिल रहा था.मैंने फिर उपवास के माध्यम से प्रयास किया. जैसे ही मई-1986  में कक्षाएं समाप्त हुयीं, मैंने एक सप्ताह के उपवास का निश्चय किया. ठीक उसी पुराने ढंग से, पहले तीन दिन बिना कुछ खाए-पिए और अंतिम चार दिन जल के साथ. यह मेरा सातवां लम्बा उपवास था. लेकिन अब मेरा शरीर बहुत दुर्बल हो चूका था. मेरे संघर्षों की कीमत चुक चुकी थी. मैं छठे दिन उपवास नहीं कर सका. मुझे चक्र आने लगे और उल्टियाँ लग गयीं. उपवास तोडना पड़ा.
           
                यह मेरे जीवन का सब से बड़ा संकट काल था. परमपिता के प्रति मेरा विशवास डिगने लगा था.....सारी दुनिया को सुचेत करने के लिए जो भी मेरे लिए सम्भव था, मैं कर चुका था. बहुत हो चुका था. अंतर्मन दुखी होकर चिल्ला रहा था," अब और अधिक कष्ट सहन नहीं करूंगा., स्वयं को और पीड़ा नहीं दूंगा".

                        मैंने किताब सम्बन्धी सारे  काम बंद कर दिए. मुझे तीसरे प्रकाशन के बर्बाद होने की भी चिंता नहीं थी. मैं तो अब घंटों घंटों  ध्यान साधना के आनंद में दुबकी लगाने के लिए बठने लगा.मैं परमपिता को नहीं भूल सकता था.

                कुछ बहुत बड़ी बात जो मेरी जानकारी में नहीं थी, होने जा रही थी. सातवें अधूरे  उपवास ने वास्तव में उन बाधाओं की कमर तोड़ दी थी जो  मेरा पीछा लगातार कर रहीं थीं....
 बस यहाँ से शुरू हो जाती है  डाक्टर रवि बत्रा को सफलता के आसमान पर पहुँचाने वाली कई कहानिओं की शुरुआत...और यह सिलसिला आज भी जारी है. विश्व में अर्थशास्त्र के क्षेत्र में उनका नाम आज भी सम्मान से लिया जाता है. उनकी भविष्यवाणियो को आज  भी लोक दिल थाम कर पढ़ते और सुनते हैं....गौरतलब है कि जब अंतर्राष्ट्रीय स्तर के प्रख्यात आर्थिक जर्नल इकोनोमिकल इन्क्वायरी के अक्टूबर-1990  के अंक में एक विशेष तुलनात्मक अध्यन प्रकाशित किया तो अमेरिका और कनाडा के तमाम विश्वविद्यालिओं  के अर्थशास्त्र विषय के 46 सुपरस्टार अर्थशास्त्रियो  के क्रम में तीसरा स्थान  डाक्टर रवि बत्रा को दिया गया था. 
   
                     और अब आखिरी पंक्तिया: आध्यात्मिकता की जिस मशाल को विवेकानंद ने पहले अपनी अमरीकी यात्रा में जलाया था अब वही मशाल प्रोउत के रूप में पल्लवित और पुषिप्त होकर पूरण ज्योति के साथ प्रजव्लित होगी. उठिए   और मेरे साथ भगवत गीता कि भावना से ओत प्रोत पंक्तिया  दोहराइए.
                                                                   जितनी बड़ी दुनिया, उतनी ही बड़ी बाधा,
                                                                   जितनी बड़ी बाधा, उतनी ही बड़ी उपलब्धि.
 अत: असफलता के लिए बाधाओं को नहीं, बल्कि निरंतर प्रयत्नशीलता   के अभाव को लांछित करना चाहिए.                                                                                                                                               --रैक्टर कथूरिया
          

Friday, November 27, 2009

आनंदमार्गिओं ने नकारा महासम्भूति के अवतरण का दावा

हम केवल और केवल अपने बाबा को ही जानते हैं:आनन्दमार्गी 
आनंदमार्ग के बहुत बड़े हिस्से ने उस दावे को पूरी तरह से ख़ारिज  कर दिया है जिसमें कहा गया है कि आनंदमार्ग के संस्थापक श्री श्री आनंदमूर्ति जी की भविष्यवाणी के मुताबिक अब महासम्भूती का अवतरण हो  चुका है. आनंदमार्ग के इस बड़े हिस्से ने यह बात पूरी तरह से साफ़ कर दी है कि  वे केवल और केवल बाबा को जानते हैं और उन पर ही विशवास करते हैं जो कि इस तरह के दावों से टूटने वाला नहीं. इस बड़े  हिस्से ने यह भी कहा है कि अब बाबा का स्थान  कोई नहीं ले सकता. इस हिस्से ने दावा करने वाली महिला को भी सलाह भी दी है कि वोह गहरायी में जा कर साधना , ध्यान करे और  बाबा के सामने समर्पण करदे.

गौरतलब है बैंगलोर की एक महिला ने चार नवम्बर 2009  की  तारीख वाले एक पत्र में दावा किया था कि श्री श्री आनंदमूर्ति जी की भविष्यवाणी के मुताबिक  महान्सम्भूती का  अवतरण अब हो चूका  है  इस लिए सभी लोग उसकी शरण में आ जायें. उसने महासम्भूती चक्रधर का अंतिम नोटिस भी सभी आनंदमार्गिओं के नाम जारी किया.
 
इस अंतिम नोटिसनुमा पत्र में कहा गया है कि मैं जल्द ही इस धरती पर नकारत्मक शक्तिओं के खिलाफ धर्मयुद्ध छेड़ने जा रहा हूँ; चाहे तुम इस धर्मयुद्ध में शामिल होना चाहो या न, मैं जल्द ही महाविनाश और महाप्रलय  की शुरुआत कर दूँगी. पत्र में कहा गया है कि मैं ही सम्पूर्ण और परिपूर्ण हूँ, मुझे जान लो, मुझे पहचान लो...मैं इस महाविनाश में तुम्हारी रक्षा करना चाहता हूँ. पत्र के आरम्भ में ही यह भी कहा गया है मैंने  ही आनंदमूर्ति बनकर इस धरती पर जनम लिया था और कहा था कि एक दिन महासम्भूती का अवतरण होगा...और अब यह अवतरण हो चूका है....

खुद  को श्री  श्री  आनंदमूर्ति का अवतार बताने वाले  महासम्भूती  चक्रधर ने  अपनी महायुद्ध और महाविनाश की  चेतावनी में कहा है इसकी शुरुआत 31  दिस्मबर 2009  और प्रथम जनवरी 2010  की मध्य रात्रि को हो जाएगी. इस चेतावनी में यह भी कहा गया है की उसने अपने भक्तों और सच्चे  लोगों को अपना बचाव करने के लिए नवम्बर  और  दिसम्बर - दो महीनों का वक्त दिया है...इसलिए अब वही  लोग बच पायेंगे जिन्होंने इस कार्यकाल में उसका दिया मन्त्र लगातार जपा होगा. पत्र में यह भी कहा गया है कि उसका नाम ही अपने आप में महामंत्र है..

दूसरी  तरफ  आनंदमार्गिओं ने इस मुद्दे पर सखत रुख अपनाते हुए यहाँ तक कहा है की इस  तरह की बकवास कोई दिमागी मरीज़ ही कर सकता है. मार्ग से जुड़े लोगों का यह भी कहना है कि वे केवल और केवल अपने बाबा को ही जानते हैं और किसी को नहीं. आनंदमार्गिओं ने इस महासम्भूति उर्फ चक्रधर को साधना और ध्यान करने की सलाह भी दी है तां कि उसे बाबा का ज्ञान प्राप्त हो सके.  फिर भी जो लोग देखना ही चाहते हैं कि आखिर क्या है इस चेतावनी में और क्या है अवतरण का दावा,  वे नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर सकते है और देख सकते हैं महाविनाश के शरू होने का वह वक्त जो महासम्भूति उर्फ़ चक्रधर ने घोषित किया है. 
http://cakradhara.yolasite.com/shona.php

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आनंदमार्गिओं ने नकारा महासम्भूति  के अवतरण का दावा

नए साल के साथ ही हो जाएगी कयामत की शुरुआत

आनन्दमार्ग जागृति में हुई तन-मन के गहरे रहस्यों की चर्चा 

ਵਿਆਹ ਕਿਸ ਲਈ ਤੇ ਕਿਓਂ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ?

Wednesday, November 25, 2009

दरअसल यह किताब अन्याय पर मेरा दूसरा जूता है-जरनैल सिंह


अपनी  नयी  किताब पर जरनैल सिंह का कहना है कि दरअसल अन्याय पर ये उसका दूसरा जूता है. यह बात उसने एक मीडिया इंटरवीयू में कही है. उसने यह भी बताया  कि कैसे इस किताब को लिखने  के लिए उसे सखत मेहनत और खोज करनी पड़ी. हालांकि उसने माना कि इसमें उसका अपना 11 बरसों का कटु अनुभव भी शामिल है पर फिर भी यह एक हकीक़त है इतने बरसों के बाद घटनायों के पीड़ितों को खोज निकालना  कोई आसान नहीं था. वो भी वहां जहाँ घटना के वक्त ही इतने  बड़े सामूहिक  हत्याकांड  को सरकारी मीडिया ने पूरी तरह से नज़र अंदाज़ कर दिया था. इस किताब को लिखने की पूरी कहानी आप अंग्रेजी में भी पढ़ सकते हैं बस नीचे दिए गए लिंक को दबा कर जहाँ आपको जरनैल सिंह की किताब और उसके बारे में कई और लोगों के विचार भी मिलेंगे.  इसके  साथ ही और भी बहुत कुछ.देख और सुन सकते हैं आप दूसरे लिंक पर क्लिक कर के यह कहानी है कुछ उन लोगों की जिन्हों ने इस देश का इतिहास भी कलंकित कर  दिया. पर कमज़ोर दिल के लोग इसे न देखें तो अच्छा होगा.

यह अन्याय पर मेरा दूसरा जूता है-जरनैल सिंह 

http://www.1984vigil.com/

और अब 1984 पर जरनैल सिंह की नयी किताब : I Accuse ...



25 बरसों से लगातार न्याय  की इंतज़ार कर रही सिख कौम के युवा पत्रकार जरनैल सिंह ने जूता उछाला तो बात दूर दूर तक पहुच गयी. दरअसल वह जूता किसी व्यक्ति पर न तो था न ही हो सकता था क्योंकि सिख कौम तो दोनों वक्त सर्बत्त का भला मांगती है. सिख आक्रोश का वह जूता उछला था उस सिस्टम पर जिस पर सभी को शर्म आनी चाहिए पर कभी आती नहीं. बात आई गयी हो गयी. इसकी याद ताज़ा हुयी आज उस वक्त जब मैं अपनी मेल देख रहा था. उसमे  एक ऐसा पत्र भी था जिसमें एक बार फिर नवम्बर-1984 की चर्चा की गयी थी. उसे खंगालता खंगालता मैं पहुँच  गया एक ऐसी साईट पर जिसमे एक बार फिर नज़र आया जरनैल सिंह का चेहरा. चर्चा उसकी किताब की थी. इस किताब को अपने गरिमामय अंदाज़ में प्रकाशित किया है पेंगुइन ने और इसकी भूमिका लिखी है खुशवंत सिंह ने.  तथ्यों और आंकड़ों का ज़िक्र जहाँ जरनैल सिंह की पत्रकारिता और तर्क को दिखाता है वहीँ पर घटनायों का मार्मिक प्रस्तुतिकरण उसके कवी ह्रदय से भी रूबरू करवाता है. 

http://www.carnage84.com


Saturday, November 21, 2009

हजारों कुर्सियां ऐसी कि हर कुर्सी पे दम निकले,

 जो इस पे बैठ कर खुद से उठे हों ऐसे कम निकले
चलते चलते  याद आ गयी तो उठ कर डायरी  के पन्ने उलटे. एक पन्ने पर नज़र अटकी तो देखा  तारीख थी 16 मार्च और साल था 1996. दिल्ली  में  42 वां शंकर  शाद  मुशायरा था जिसमें पाकिस्तान से डाक्टर अहमद फ़राज़ भी आये हुए थे. जनाब कैफ़ी आज़मी, निदा  फाजली  और  कृशन बिहारी नूर जैसे कई और शायर भी इस रात को बहुत रंगीन बनाने वाले थे.  उस मुशायरे में बहुत कुछ यादगारी पढ़ा भी गया और सुना भी गया. पर जिस जिस जिस की चर्चा हुयी उसका ज़िक्र करने से पहले ग़ालिब साहिब का ज़िक्र बहुत ज़रूरी है. जनाब मिर्ज़ा ग़ालिब का एक अश्यार है:

हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले, 
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले.

इस की पैरोडी पेश करते हुए जनाब कैफ़ी आज़मी ने इस मुशायरे में अपना कलाम पढ़ा :

हजारों  कुर्सियां  ऐसी  कि हर कुर्सी पे दम निकले, 
जो इस पे बैठ कर खुद से उठे हों ऐसे कम निकले.

इस मौके पर निदा फाजली भी मौजूद थे. जब आधी रात के बाद उनकी बारी आई तो उन्होंने अपना निशाना साधा  लाल कृष्ण  अडवानी की दूसरी रथ यात्रा पर और कहा :

तुम्हे हिन्दू की चाहत है न मुस्लिम से अदावत है ;
तुम्हारा धर्म सदिओं से तिजारत था तिजारत है.

मुझे इस की याद आई कल रात उस वक्त आई जब टीवी पर चल रही लोकमत और आईबीएन-7 पर हुए  हमले  की खबर पुराना होने का नाम ही नहीं ले रही थी. इस खबर के मुद्दे में मओवादिओं की और से ब्लास्ट करके उड़ाई गयी रेल की खबर भी कहीं गुम हो गयी थी और दिल्ली  में किसानों  की महारैली  के कारन हुए हंगामों  और जाम की खबरें भी गायब थीं. सुबह होने पर यह भी पता चला कि शिव सेना ने बाकायदा इस हमले की ज़िम्मेदारी ले ली है और शिव सेना के सुप्रीमो बाल ठाकरे ने इसे सामना में जायज़ ठहराते हुए लिखा है  कि मीडिया कोई भगवान् तो नहीं है....

इस टिप्पणी को पढ़ कर लगा कि सचमुच भगवान  तो अपने आप को वही लोग समझते हैं जिन्हें कुर्सी मिल जाती है और ठाकरे साहब तो किंग मेकर  रहे हैं ... वे मीडिया तो दूर भगवान् को भी पूछ सकते हैं हां भाई कौन हो...? कहाँ से आये हो...? क्या करने आये हो...?  अगर उत्तर  भारत के देवता हो तो फिर यहाँ महाराष्ट्र में क्या करने आये हो....चलो अगर अब आ ही गए हो तो सिर्फ मराठा लोगों को ही अपना भक्त बनाना...समझे या फिर हम समझाएं....!!!!  अगर भगवान् मान गए तो ठीक नहीं तो फिर उन पर भी हो सकता है  शिव सेना या फिर मनसे का  एक हमला.

बहुत कुछ है कहने को...कई और यादें भी ताज़ा हो गयी हैं पर उनकी चर्चा फिर कभी सही.... फिलहाल इसी मुशायरे में से कैफ़ी आज़मी साहब की ही एक और ग़ज़ल की चर्चा:

बस्ती में अपनी हिन्दू मुसलमां जो बस गए,
इन्सां की शक्ल देखने को हम तरस गए .
बस अब गरीबी जाने ही वाली है मुल्क से,
ये सुनते सुनते ऊम्र से 70 बरस गए..!

देश की जनता इस मूल मुद्दे को कब समझेगी और उन लीडरों को कब अलविदा कहेगी जो जनता को लड़ाने के चक्र में ही रहते है...
आजमगढ़ से आये सागर आज़मी ने एक बात इसी मुशायरे में कही थी...वो आपकी नज़र कर रहा हूँ इस उम्मीद के साथ कि शायद देश कि जनता अपने दोस्तों और दुश्मनों  को अब भी जल्द से जल्द पहचान ले.....सागर साहब ने अपना तजुर्बा भी कहा और सलाह भी दी.....:

जब उसने कोई ज़ख़्म हमारा नहीं देखा, 
हमने भी उसे मुड़के दोबारा नहीं देखा.

Tuesday, November 17, 2009

ग़ज़ल


दुनिया  को  असल बात बता क्यूं नहीं देते !
लफ़्ज़ों की करामात दिखा क्यूं नहीं देते ?

ज़ालिम का हर नकाब उठा क्यूं नहीं देते!
लोगों को उसकी शक्ल दिखा क्यूं नहीं देते ?

ज़ुल्मों की दास्तान सुना क्यूं नहीं देते !
कलमों से इक तूफ़ान उठा क्यूं नहीं देते ?

लोगों को उनके ज़ख़्म दिखा क्यूं नहीं देते !
सोयी हुयी ताक़त को जगा क्यूं नहीं देते ?

महलों की नींव आज हिला क्यूं नहीं देते !
तुम जालिमों की नींद उड़ा क्यूं नहीं देते ?

ज़ालिम का पता सब को बता क्यूं नहीं देते !
इक आग बगावत की लगा क्यूं नहीं देते ?

(12-4-1991 को)

ग़ज़ल


दुनिया को मेरा जुर्म बता क्यूँ नहीं देते ?
मुजरिम हूँ तो फिर मुझको सजा क्यूं नहीं देते ? 

बतला नहीं सकते अगर दुनिया को मेरा जुर्म !
इल्जाम नया मुझ पे लगा क्यूं नहीं देते ?

मुश्किल मेरी आसान क्यूं बना क्यूं नहीं देते !
थोड़ी सी ज़हर मुझको पिला क्यूं नहीं देते ?

यूं तो बहुत कुछ आप ने इजाद किया है !
इन्सान को इन्सान बना क्यूं नहीं देते..?

दिल में जनूं की आग जला क्यूं नहीं लेते !
इन शोअलों को कुछ और हवा क्यूं नहीं देते ?

(10, 11 और 12 अप्रैल 1991 को)

ग़ज़ल


सब से पत्थर खाता है वो दीवाना!
फिर भी सच सुनाता है वो दीवाना!

यादों की खुद आग लगाता है हर रोज़;
फिर उसमें जल जाता है वो दीवाना!

तूफां  में चिराग जलाता हो जैसे; 
प्यार के गीत सुनाता है वो दीवाना!

बार बार करता है बात मोहब्बत की,
खुद ही दर्द जगाता है वो दीवाना!

ये दीवानापन तो अच्छी बात नहीं;
मुझको यह समझाता हिया वो दीवाना!

(13-4-1991 की रात को)